May 27, 2021

क्या कहूँ!

कविता : 27-05-2021

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मेरी ही क्या सत्यता, 

संसार की क्या कहूँ,

मेरी ही क्या सुरक्षा, 

संसार की क्या कहूँ! 

मैं हर पल बनता-मिटता,

संसार भी तो, मुझ जैसा ही,

फिर भी दोनों नित्य लगें,

इससे ज्यादा क्या मैं कहूँ! 

मुझसे ही संसार है मेरा, 

संसार ही से तो मैं भी हूँ, 

एक हैं दोनों, या हैं दोनों,

अलग अलग वे, मैं क्या कहूँ!

जब मैं न था, संसार न था, 

संसार न था तब, था क्या मैं! 

अब लगता है, वे दोनों हैं,

इससे ज्यादा, क्या मैं कहूँ!

लेकिन फिर यह भी लगता है, 

इक दिन दोनों नहीं रहेंगे,

क्या ऐसा भी हो सकता है, 

आकर किससे लोग कहेंगे!

उस दिन होने-ना-होने की, 

उलझन शायद मिट जाएगी,

लेकिन किसको चैन आएगा,

मौत मुझे क्या बतलाएगी!!

जिसमें संसार है बनता-मिटता,

जिसमें मैं भी हूँ बनता-मिटता,

जो बनता है, ना मिटता है,

उसके बारे में, मैं क्या कहूँ! 

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