कविता : 25-05-2021
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मन भटकता जा रहा था,
चंचल निराकृति प्राण सा,
आसरा फिर उसने पाया,
शरीर मूर्तिमान का! १
देह मन ऐसे मिले,
इक दूसरे में खो गए,
कौन था पहचान किसकी,
ऐसे अबूझ हो गए! २
नित्य साथी सुख-दुःख के,
एक बिन दूजा नहीं,
दोनों के ही साथ साथ,
बसा सकल संसार यहीं! ३
किंतु फिर भी धीरे धीरे,
पल पल, दिन दिन, बीते युग,
देह हो गई जीर्ण-जर्जरित,
प्राण भी हो गए थकित! ४
और फिर जब अंततः,
प्राणों ने तजी देह,
देह ने भी तजा मन को,
विलीन वह हुआ गेह! ५
किंतु नहीं हुआ विलीन,
देह मन का नेह वह,
प्राणों में रहा रमता,
अजर अमर विदेह वह! ६
फिर से नवीन देह हुई,
फिर आकर्षित हुआ मन,
फिर प्राण चंचल आ बसे,
फिर हुआ पुलकित जीवन! ७
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