May 16, 2021

टकराहट!

वर्षों पहले जब बैंक में कार्य करता था तो मल्टी-टास्किंग शब्द का पता न होते हुए भी करता था। मल्टी-टास्किंग करना वैसे तो हमेशा से कमोबेश अलग अलग समय और स्थान पर हरेक की मज़बूरी होती है, लेकिन कुछ लोग इसे सफलता से कर पाने पर एक ओर तो सहकर्मियों के लिए ईर्ष्या करने का कारण बन बैठते हैं तो कुछ लोग एक सफल जोकर भी सिद्ध होते हैं! 

इसे दुर्भाग्य या सौभाग्य या विडम्बना, क्या कहें!

कभी कभी इसमें सफल होने का फल होता है स्प्लिट माउंड या खंडित मन, तो कभी कभी उससे बढ़कर यह सिज़ोफ़्रेनिया तक हो जाता है।

खंडित मन वस्तुतः मल्टी-टास्किंग की कला में निष्णात भी हो सकता है, किन्तु मनोविखण्डित (schizophrenia) मल्टी-टास्किंग कर सके कह नहीं सकते। शायद अलज़ाइमर इसकी ही अगली स्थिति होता होगा! 

एक वायलिन-वादक मल्टी-टास्किंग करता है, वैसे ही हर व्यक्ति प्रायः अनायास ही इस कार्य में दक्ष हो जाता है। 

यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि एक ओर तो इस प्रकार कोई अपने कार्य को अच्छी तरह पूरा  करता है तो दूसरी ओर आवश्यकताओं, रुचियों और बाध्यताओं की टकराहट उसे इस कार्य को एकाग्रता से कर पाने में बाधक हो जाती हैं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति से फोन पर बात करते समय किसी दूसरे व्यक्ति का अनपेक्षित आगमन,  जिससे ध्यान विचलित हो सकता है। कुछ कार्यकुशल (जैसे कि टेलिफोन-आपरेटर या कॉलसेन्टर पर कार्य करनेवाला) यद्यपि धैर्य से ऐसी परिस्थिति का सामना सफलतापूर्वक कर लेते हैं किन्तु इसकी कितनी बड़ी कीमत उन्हें चुकानी होती है यह तो बरसों बाद जब वे बूढ़े होने लगते हैं तब पता चलता होगा। 

इसलिए ऐसी स्थितियों को आवश्यकताओं की टकराहट, रुचियों की टकराहट या बाध्यताओं की टकराहट कहा जा सकता है। 

अंग्रेजी में :

Clash of necessities, 

Clash of interests, 

Clash of compulsions. 

दो दिन पूर्व शाम को खुली हवा में चहलकदमी करते हुए ऐसा ही कुछ महसूस हुआ ।

ठंडी हवा में चलते रहना बहुत अच्छा लग रहा था, मन हो रहा था कि घूमता ही रहूँ, भूख भी ऐसी तेज लग रही थी कि घूमना नहीं हो पा रहा था, और नींद भी ऐसी ही बहुत तेज आ रही थी। 

याद आए बैंक में कार्य करने के वे दिन जब सामने बैंक का कोई पेंडिंग कार्य होता था, चाहे वह कंप्यूटर का हो या दूसरा, नींद व  थकान भी आ रही होती, भूख भी लगी होती और अपने से बड़े अधिकारी सामने सिगरेट के क़श खींचते हुए काम कब पूरा होता है इसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करते होते।  क्योंकि हम सब साथ ही बैंक का काम पूरा होने पर घर जाते थे। 

मैं न तो सिगरेट पीता था,  न पाउच का सेवन करता था और थरमस में रखी चाय को पिए हुए भी दो घंटे हो चुके होते थे।  घड़ी का काँटा दस को पार कर चुका होता था। 

इसका एक बड़ा कारण यह था कि तब हमारे उस बैंक में 1988 के प्रारंभ में कंप्यूटर लगे ही थे, इसलिए एक ओर तो लेजर में एन्ट्री मैन्युअल भी होती थी और कंप्यूटर पर डिजिटली भी। 

स्पष्ट है कि कार्य का दोहराव  हो रहा था लेकिन कंप्यूटर कब ब्रेक डाउन हो जाए पक्का नहीं था। यह मल्टी-टास्किंग ही नहीं बल्कि कंपाउन्डेड मल्टी-टास्किंग ही था। 

पता नहीं इसे क्या कहा जाए! 

फिर भी उन दिनों जॉब सिक्योरिटी तो थी!

यह अलग बात है कि मुझे इस सब में कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती थी। मेरे अधिकारी और दूसरे कलीग सभी शादीशुदा थे,  और मुझे तो विवाह की व्यवस्था से ही चिढ़ थी। 

इसे कहते हैं आवश्यकताओंं की, रुचियों की, परिस्थितियों की, मज़बूरियों (बाध्यताओं) की टकराहट।

टकराहट ख़त्म होने पर राहत तो होती ही है,  वरना ज़िन्दगी सतत आहत और हताहत होती रहती है!

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