कविता 08-05-2021
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वे पूछते हैं,
जीवन कहाँ से आया?
इस धरती पर जीवन का उद्भव,
कैसे हुआ?
क्या किसी सुदूर की मंदाकिनी से,
किसी नीहारिका में स्थित,
किसी पिण्ड से?
वे यह नहीं पूछते कि,
उस सुदूर नक्षत्र या ग्रह पर,
जीवन कहाँ से आया?
कैसे उद्भव हुआ होगा,
वहाँ पर जीवन का?
वे यह भी नहीं पूछते कि,
क्या उद्भव से पहले,
जीवन नहीं था?
क्या जीवन का उद्भव हुआ,
या जीवन की अभिव्यक्ति हुई!
जो जीवन बीज था,
वही अंकुरित हुआ,
जो अंकुरित हुआ,
वही पल्लवित पुष्पित हुआ,
जो पल्लवित पुष्पित हुआ,
वही फलित हुआ,
जो फलित हुआ,
वही बीज का अधिष्ठान था!
जो अधिष्ठान था,
वही बीज में सुषुप्त हुआ,
जो सुषुप्त हुआ,
वही पुनः जागृत हुआ।
वही पुनः अंकुरित हुआ!
और वही पुनः,
अभिव्यक्त हुआ!
क्या उसकी ही क्रीडा,
काल और स्थान,
दिक्काल नहीं है?
क्या कोई ऐसा समय था,
जब काल नहीं था?
नहीं है और नहीं होगा?
क्या कोई ऐसा स्थान है,
जहाँ काल नहीं है!
क्या कोई ऐसा काल है,
जहाँ स्थान नहीं है!
फिर जीवन क्या है?
क्या वह सर्वत्र और सदैव नहीं है!
जो काल और स्थान से स्वतंत्र है!
क्या फिर उसका आगमन,
कहीं और से हुआ होगा!
क्या फिर उसका उद्भव,
किसी स्थान पर हुआ होगा!
क्या फिर उसका अस्तित्व,
किसी काल से पहले नहीं था!
तब जो नहीं था,
क्या वह काल और स्थान की,
परस्पर प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ!
क्या काल और स्थान,
जो नहीं है,
उसे अस्तित्व में ला सकते हैं!
या, इसके विपरीत क्रम में,
वही, जो सदा और सर्वत्र और,
सचेतन और प्राणमय है,
काल और स्थान,
द्रव्य और ऊर्जा का,
एकमात्र कारण और जनक नहीं है!
फिर जीवन का उद्भव,
किसी कल और स्थान पर हुआ,
ऐसा कहना ही,
मूलतः त्रुटिपूर्ण नहीं है!
फिर, क्या कोई जब पिण्ड,
मशीन, रोबोट या कंप्यूटर,
ऐसा कहता या पूछता है!
कैसे जानोगे या पता लगाओगे उसका!
क्या जाननेवाला, या पता लगानेवाला,
स्वयं ही जीवन नहीं है!
***
इसलिए जीवन एक रहस्य है!
जो सदा रहस्य ही रहता है!
एक रहस्य अद्भुत्, अवर्णनीय, अनिर्वचनीय!
ज्ञात-अज्ञात से अछूता और परे,
बोध-मात्र!
मधुर, मदिर, चिरन्तन, नित-नूतन, सद्यसनातन!
***
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