कविता -- रिश्ता यही है सच्चा!
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मुर्गी़ का जो चूजे़ से रिश्ता,
चूजे़ से जो मुर्गी़ का रिश्ता,
वही है मन से मन का रिश्ता,
मन जाने या ना जाने!
एक है चूजा़, मुर्गी है एक,
मुर्गी है एक, एक है चूज़ा,
मन को भी, जो मन जाने,
क्या एक ऐसा, मन कोई दूजा!
कौन है चूज़ा, मुर्गी है कौन,
मुर्गी है कौन, चूज़ा है कौन!
दूजा है कौन, पहला है कौन!
पहला है कौन, है दूजा कौन!
अण्डा था पहले या मुर्गी?
मुर्गी़ थी पहले, या अण्डा!
चूज़ा था पहले, या थी मुर्गी़!
मुर्गी़ थी पहले, या था चूज़ा!
चूज़ा भी पहले, था मुर्गी,
मुर्ग़ी भी पहले, थी चूज़ा!
जो भी था पहले, अब भी वही है,
एक वही जो था, मुर्ग़ी या चूज़ा!
सवाल में है, क्या कोई ख़ामी?
या फिर है क्या, कोई ग़लतफ़हमी?
तमाम आलिम फ़ाजि़ ल उलझे,
फिल्मी, चिल्मी या हों इल्मी!
सवाल कोई भी हो उसका,
हो सकता है जवाब तभी,
सवाल ग़लत भी ना हो पर,
साथ ही हो वो सवाल सही!
सवाल कोई करने के लिए,
ज़रूरी है होना, अक्ल जितना!
दुरुस्त होना भी अक्ल का,
ज़रूरी ही है लेकिन उतना!
फिर क्यों भटकता है इंसाँ,
हज़ारों ग़लत सवालों में!
क्यों ढूँढता है कोई जवाब,
किताबों और हवालों में!
खुद से ही क्यों नहीं पूछ लेता,
कि सवाल कितना मुनासिब है?
यह पूछनेवाली अक्ल है क्या,
और मन भी कितना वाजिब है!
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