May 29, 2021

चेतना-जल!

कविता : 29-05-2021

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।। बोध-द्वादशी।। 

इस नदी के दो किनारे,

एक मैं, संसार एक,

इस नदी में जल भी है,

चेतना, वह भी है एक! १

किस काल में इस चेतना से, 

संसार का सृजन हुआ,

प्रश्न कितना विसंगत है, 

काल है आयाम एक! २

हर किसी के लिए अपना, 

बिंदु वर्तमान एक, 

विस्तार जिसका मनोकल्पित, 

अतीत एक, भविष्य एक! ३

फिर वही मन खोजता है,

जगत्-उद्गम काल में,

पड़ा रहता है विमोहित,

विचारभ्रम के जाल में! ४

काल का उद्भव अगर है,

और है, अवसान अगर, 

तो काल से पहले का क्या,

यह प्रश्न ही अतः वृथा! ५

पहले तथा फिर बाद में, 

काल के हैं रूप कल्पित!

काल तो केवल बिंदु है, 

शाश्वत, चिरंतन, है अभी! ६

चेतना से काल है,

काल से ही, स्थान भी,

काल-स्थान हैं कहाँ, 

यदि नहीं हो चेतना ही! ७

और फिर यह चेतना,

भी नहीं बस कल्पना! 

कल्पना का अधिष्ठान,

स्वयंस्फूर्त, स्वयंप्रमाण! ८

यद्यपि यह मन नहीं, 

नहीं बुद्धि, भाव, विचार,

न अस्मिता, विचारकर्ता,

पर सभी का है आधार! ९

सब से परे, सबसे पृथक्,

अनछुई, यह अस्पर्शित,

नित्य है यह बोध-मात्र, 

अप्रकट, पर प्रकट नित्य! १०

चेतना के दो किनारे,

एक मैं, संसार एक,

दो नहीं, जब जल नहीं,

इसलिए मैं भी, नहीं एक! ११

आभास दो का एक से,

न हों दो तो, कहाँ एक!

इसलिए कहते हैं उसको,

एकमेवाद्वितीय-अभेद! १२

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