अलकेमी
कविता 13-05-2021
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बिखेर देता था बीजों को,
नम, सूखी, गीली, धरती पर,
बंजर, कंकरीली, पथरीली,
रेतीली, बर्फीली, परती पर,
बीजों को यूँ ही बिखेरता,
धरती के ही आँचल में,
थककर एक दिन सो गया,
अम्बर की चादर ओढ़े,
इस मिट्टी में ही खो गया!
पता नहीं युग युग कितने
सोता ही रहा बीज बनकर,
इक दिन फिर बरसे बादल,
जागा, चौंका वह क्षण भर!
सोंधी सोंधी सी महक उठी,
धरती को चीन्ह नहीं पाया,
चारों ओर घना जंगल था,
हरियाली का फैला साया!
उसने सोचा, मरकर भी,
आखिर को उसने क्या खोया?
हाँ नए सिरे से फिर जीवन को,
जीने का अवसर ही पाया!
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