कविता : 25-05-2021
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देह प्रकृति की अभिव्यक्ति,
मन प्रकृति की अनुकृति,
देह का परिणाम मन,
या देह का परिमाण मन!
भाव, बुद्धि, चित्त, विचार,
सब कुछ मन का ही विस्तार!
स्मृति या स्मृति की कल्पना,
जिससे अपनी प्रतीति,
मन का ही गुण-दोष वह,
काल, स्थान, भवभूति!
यह प्रतीति क्या प्रकृति है,
या प्रकृति का परिणाम?
क्या यह नित्य-अनित्य है!
या है कोरा अनुमान?
नित्य अनित्य, काल पर निर्भर,
इन्द्रिय, विषय, अनुमान,
बुद्धि, विचार, स्मृति, कल्पना,
स्मृति की ही सब पहचान!
इस पूरे प्रपञ्च का,
फिर है कर्ता कौन?
मैं तो हूँ कदापि नहीं,
प्रकृति भी है मौन!
कर्ता वैसी ही कल्पना,
जैसे कर्म प्रतीति,
सुख-दुःख फिर क्या वस्तु है,
है किसकी अनुभूति?
जिसकी भी अनुभूति है,
क्या वह भी कोई स्वतंत्र?
या वह भी है कल्पना,
प्रकृति की ही तरंग!
यह सब बिलकुल स्पष्ट है,
फिर क्यों है अभिमान?
क्या यह भी नहीं कल्पना?
प्रमाद या अनवधान!
अनवधानता ही जगत है,
अनवधानता ही है संसार,
अविवेक ही सुख-दुःख है,
सुषुप्ति है अहंकार!
अनवधानता है अभाव,
कल्पित जैसे अंधकार,
उसको दूर करेगा कौन,
यह तो है मिथ्या विचार!
देह तो है मात्र प्रकृति,
जन्म-मृत्यु देह का धर्म,
देह का परिणाम ही मन,
न कोई कर्ता, न कोई कर्म!
देह तो है मात्र प्रवृत्ति,
प्रकृति का निश्छल विलास,
बनते-मिटते चित्र नित्य,
नियति-नटी का है उल्लास!
फिर क्या मेरा, हुआ जन्म!
तो क्या मृत्यु होगी, मेरी?
प्रश्न असंगत, कोरा भ्रम,
मैं जीवन! जीवन की रीत!
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