May 27, 2021

मेरा जीवन-दर्शन

जीवन के सप्तसूत्र

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मेरी समझ में जीवन के जो सात आयाम सदैव होते हैं, जीवन को जिनसे अभिन्न और अनन्य कहा जा सकता है उन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है :

1. जरूरत, संबंध और प्रेम, 

2. अर्थ, प्रयोजन, समाधान और संतुष्टि। 

अस्तित्वमान होने का तात्पर्य है, -जरूरतें होना। 

जरूरतें पुनः दो प्रकार की, शारीरिक या मानसिक हो सकती हैं। इन जरूरतों की पूर्ति होना और निरंतर होते रहना ही जीवन या जीने को संभव बनाता है।

इन जरूरतों की पूर्ति जिन माध्यमों से होती है, उनसे ही संबंध हो सकता है। ये माध्यम भी पुनः व्यक्ति, वस्तुएँ एवं परिस्थिति होते हैं। 

इसका विस्तार समूह या समुदाय तक किया जा सकता है, और जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ परिभाषित की जा सकती हैं। जिन माध्यमों से ये आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, उनसे संबंधित होने पर जीवन सुचारु और सरल रूप से व्यतीत होता है। 

जरूरतों तथा आवश्यकताओं, इन दोनों आयामों के बाद का जो महत्वपूर्ण तीसरा आयाम है वह है प्रेम, जिसे वैसे तो ठीक-ठीक परिभाषित करना न तो संभव है न आवश्यक ही है, फिर भी यह कहना पर्याप्त है कि प्राणिमात्र को जीवन से, और विशेष रूप से अपने जीवन से तो प्रेम होता ही है।

प्रश्न यह भी है कि प्रेम का पर्यायार्थी, निकटतम शब्द क्या हो सकता है, जिससे इस अमूर्त तत्व / आयाम को अधिक स्पष्टता से कहा-समझा जा सके? 

मुझे लगता है कि प्रेम और संवेदनशीलता एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त दो भिन्न शब्द हैं। प्रेम हो तो संवेदनशीलता होती है, और संवेदनशीलता होती है तो प्रेम भी!  

इस प्रकार प्रेम कोई भावना-विशेष नहीं, बल्कि जीवनमात्र के प्रति सहज संवेदनशीलता का ही एक रूप है। 

यह संवेदनशीलता ही किसी भावना का रूप ले लेती है, किंतु उसमें भी अपने-आपसे प्रेम अर्थात् स्वयं के जीवन के प्रति होने वाला संवेदन ही उसका प्रमुख आधार होता है। 

इसी "स्व" या स्वयं को हर कोई अनायास ही सदैव जानता भी है, यद्यपि इस "जानने" में, जाननेवाला स्वयं को स्वयं से भिन्न उस तरह से नहीं जानता जैसे कि वह (सापेक्षतः) किसी अन्य विषय, वस्तु या व्यक्ति को जाना करता है।

इस प्रकार, आत्मप्रेम ही अपने और अपने से भिन्न के प्रति होने वाली सहज स्वाभाविक संवेदनशीलता है।

इसी आत्मप्रेम को स्वार्थ के रूप में भी देखा जाता है, जहाँ यह बहुत संकीर्ण हो जाता है। 

शारीरिक जरूरतों में प्रमुख हैं भूख, प्यास, निद्रा और सुरक्षा । किंतु एक विशिष्ट प्रवृत्ति जो इतनी ही शक्तिशाली, स्वाभाविक और अदम्य होती है, वह है अपनी संतान को उत्पन्न करने की तीव्र लालसा। इसकी अभिव्यक्ति स्त्री और पुरुष में भिन्न भिन्न प्रकार से होती है, जिसे समाज और सामाजिक नैतिकता और भी अधिक जटिल तथा कठिन बना देते हैं। 

समाज का तात्पर्य है : व्यक्तियों के बीच समन्वय, तालमेल और सामञ्जस्य, जो प्रायः संघर्ष ही बन जाता है। विभिन्न समुदायों के अपने-अपने रीति रिवाज, रूढ़ियाँ और आग्रह इसे और भी पेंचीदा बना देते हैं। 

यहाँ से हमारे चिंतन की दिशा सनातन / वैदिक परंपरा अर्थात् 'धर्म' को आधार की तरह ग्रहण कर स्थापित की गई 'विवाह' नामक संस्था की उपादेयता की ओर भी जा सकती है, वर्णाश्रम धर्म को महत्व देने की दृष्टि से उसकी आवश्यकता भी समझी जा सकती है।

श्रीमदभगवद्गीता अध्याय 7 में कहा गया है :

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। 

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। ११

उल्लेखनीय है कि यहाँ अर्जुन से कहते हुए श्रीकृष्ण उसे "भरतर्षभ" का संबोधन देते हैं ।

ऋषभ का एक अर्थ है श्रेष्ठ। 

ऋषभ शब्द का प्रयोग उस नर गौवंश के लिए भी किया जाता है जिसे गौवंश की संतति की वृद्धि के लिए गायों के साथ, उनके बीच छोड़ा जाता है। इसे ही 'वृषोत्सर्ग' कहा जाता है। 

चूँकि कृषि पर आधारित समाज में गो-पालन तथा नर गोवत्स को बधिया कर कृषि तथा अन्य कार्यों को किया जाता है, अतः ऋषभ का तात्पर्य है "श्रेष्ठ" ।

इस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ के अर्थ में अर्जुन को भरतर्षभ कहा गया। गौवंश में पशुओं के लिए बल ही श्रेष्ठता का पैमाना होता है और इसी प्रकार प्रकृति भी श्रेष्ठतर की जीवितता (survival of the fittest) के सिद्धांत से श्रेष्ठता तय करती है, इसलिए इस श्लोक में "काम" अर्थात् संतान उत्पन्न करने की प्रवृत्ति के  भेद को क्रमशः पशुओं और मनुष्यों की स्थिति में स्पष्ट किया गया है। 

इस प्रकार यह निर्देश दिया गया कि मनुष्यों के लिए "काम" उपभोग न होकर कर्तव्य है, जिससे वर्ण-व्यवस्था सुचारु रूप से संरक्षित रहे। (वैसे भी "काम", धर्म, अर्थ, तथा मोक्ष की ही तरह एक पुरुषार्थ की तरह भी जाना जाता है। यहाँ "काम" का अर्थ काम-वासना न होकर कामनाएँ, इच्छाएँ, ऐषणाएँ आदि हैं :

जैसा कि वित्तैषणा, पुत्रैषणा या कीर्तिप्राप्ति की अभिलाषा होने के अर्थ में समझा जाता है।) 

किंतु विवाह की अवधारणा का यह आधार ही आज के समाज में खो चुका है। 

फिर भी, परिवार नामक संस्था को सुचारु रूप से बनाए रखने के लिए कोई न कोई आधार तो आवश्यक है ही।

स्वार्थ अर्थात् स्व के संकीर्ण अर्थ तक सीमित 'प्रेम' क्या ऐसा आधार हो सकता है?

क्या इस प्रकार से सुनिश्चित और परिभाषित विवाह में कोई ऐसा घटक हो सकता है जो परिवार और समाज को शक्तिशाली बना सके? 

जीवन का चौथा आयाम है मनुष्य और मनुष्यों के समुदाय की सामूहिक इच्छाएँ, परंपराएँ, रूढियाँ आदि। 

यह मनुष्य की मानसिक स्थितियों के बारे में है। 

संवेदनशीलता के अभाव में ऐसी तमाम इच्छाएँ, परंपराएँ आदि शायद ही समाज को सुखी और संतुष्ट कर सकें। 

अगला पाँचवाँ आयाम है : 

अर्थ यानी सार्थकता / उपयोगिता।

इसी अर्थ को समग्रता से प्राप्त करना "प्रयोजन" नामक आयाम है। 

एक व्यक्ति के सुख प्राप्त कर लेने से क्या मनुष्यमात्र सुखी हो सकता है? क्या सभी के सुख परस्पर टकराते नहीं? 

यह अपनी व्यक्तिगत समृद्धि, स्वतंत्रता का आदर्श (model), क्या अंततः सभी के लिए हानिप्रद और विनाशकारी ही नहीं सिद्ध होता है?

क्या इस आदर्श (model) के स्थान पर वैदिक सूक्ति :

"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।।"

को  आदर्श-वाक्य की तरह ग्रहण किया जाना ही सामयिक नहीं होगा? 

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