कविता : 28-05-2021
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पलक झपकते सब कुछ होता,
पलक झपकते जाता बीत,
पलक झपकते वर्तमान का,
पल पल हो जाता अतीत!
कितनी जल्दी चिन्ता होती,
कितनी जल्दी उठता भय,
कितनी जल्दी मन घबराता,
कितनी जल्दी होता निर्भय!
कितनी जल्दी जगती पीड़ा,
कितनी जल्दी दुःख गहराता,
कितनी जल्दी थम भी जाता,
सुख में भी तत्क्षण रम जाता!
कितनी जल्दी होता व्याकुल,
बनते-ढहते आशा के पुल,
कितने जल्दी पथ मिल जाते,
कितने जल्दी खो भी जाते!
कितने छोटे, कितने लम्बे,
कितने अल्प, कितने सुदीर्घ,
पल पल, युग युग, कितनी देर,
ठहरते, रुकते, जाते बीत!
कितने जल्दी मिलकर मीत,
कितने शीघ्र बिछुड़ जाते,
जीवन की तो रीत यही है,
आते-जाते समझाते!
कितनी जल्दी ऋतुएँ आतीं,
पावस, शरद, शिशिर, हेमन्त,
वासंती-ऋतु के पीछे-पीछे,
कितने शीघ्र, ग्रीष्म-आतप!
कितनी गति से चक्र घूमता,
चिरस्थायी, फिर रुकता भी,
कभी पूर्ण उल्लास भरा,
लेकिन फिर पुनः रिक्तता भी!
कभी मधुर हवा के झोंके,
कभी ऊष्ण लू, झंझावात,
कभी रसीली पवन-गंध,
कटुता कभी, तिक्तता भी!
मन बहता, या स्थिर रहता है,
बार बार कहता रहता है,
पलक झपकते सब कुछ होता,
पलक झपकते जाता बीत,
पलक झपकते वर्तमान पल,
खोकर हो जाते अतीत!
लेकिन दृष्टि इस चंचल मन की,
वहाँ नहीं क्यों जाती है,
जहाँ स्रोत है जग, जीवन का,
सृष्टि जहाँ से आती है!
किंतु कभी वह जीवन-उत्स,
क्या पहचाना भी जाता है!
फिर कोई कैसे जाने,
उससे अपना क्या नाता है!
क्या उसकी पहचान है कोई,
क्या उसकी स्मृति या विस्मृति!
वह संस्कृति है या विकृति,
या शुद्ध नितांत, निपट प्रकृति!
पलक झपकते मन खो जाता,
जिसके आँचल में सो जाता,
फिर ना कभी लौटना जाने,
ना फिर कभी लौट पाता!
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