कविता 13-05-2021
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यह नौका किस सागर में है,
यह सागर किस धरती पर है,
यह धरती किस दुनिया में है,
यह दुनिया किसके दिल में है?
यह दिल ही क्या वह नौका है,
जिसका नहीं कोई खेवनहार,
यह दिल ही क्या वह नौका है,
मुसाफिर जिसमें नही सवार,
यह दिल ही क्या वह नौका है,
नहीं है जिसमें कोई पतवार,
यह दिल ही क्या वह नौका है,
जिसे सब कहते हैं संसार?
इसको मगर बनाया किसने?
क्या वह दुनिया में रहता है,
क्या वह सागर में रहता है,
क्या वह धरती पर रहता है,
क्या वह हर दिल में रहता है!
दिल में रहता है तो वह क्या है,
क्या वह इंसाँ या कि फ़रिश्ता है!
क्या वह दर्द का रिश्ता है?
यह रिश्ता क्या कहलाता है,
जो बातों से बहलाता है,
जो कहीं न आता जाता है,
फिर भी नौका कहलाता है!
इस कोने से उस कोने तक,
धरती, चन्दा, सूरज होने तक,
तारों के उगने-सोने तक,
धरती पर हर दिन फैला रहता,
यह रस्ता जो आता जाता है!
क्या जीवन ही यह नौका है,
क्या नौका ही यह जीवन है!
कोई तो बतलाए यह राज,
कोई तो बतलाए यह आज!
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