May 15, 2021

सपने : समीक्षा

सुबह यह कविता लिखी थी। 

वैसे तो इसमें बहुत कुछ, जैसे कि ग्लानि, लोभ,  क्रोध, जन्म,  मृत्यु, द्वन्द्व इत्यादि बढ़ाया जा सकता है, किन्तु उससे कविता अनावश्यक रूप से बड़ी हो जाती है। 

कविता में जो दो पंक्तियाँ ऐसी बन पड़ी हैं वे :

"खुदा भी एक सपना है, 

खुद भी एक सपना है",

मुझे सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती हैं।

खुद का तात्पर्य है "मैं", जो हर दूसरी बात को इस काल्पनिक सत्ता के संबंध से पुनः पुनः परिभाषित करते हुए, अपने स्वतंत्र प्रतीत होनेवाले व्यक्ति के रूप में एक पृथक् अस्तित्व होने के भ्रम को उत्पन्न कर देता है।

यह भ्रम स्वयं सपने जैसा ही है और यदि प्रश्न पूछा जाए कि यह भ्रम / सपना किसे है? तो ऐसा कोई नहीं पाया जाता। 

न तो यह आत्मा का स्वप्न है, न परमात्मा या ईश्वर का ।

क्योंकि ये दोनों परस्पर अभिन्न और अनन्य एकमेव चेतना या चैतन्य मात्र हैं। 

इसे स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना शायद बेहतर होता! 

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