May 14, 2021

CHARLIE HEBDO

शॉर्ली हेब्दो 
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फ़्रान्स की इस कार्टून पत्रिका ने भारत के लोक-देवताओं का मजाक उड़ाते हुए पूछा है :
"कहाँ है वे 3.3 मिलियन देवी-देवता जिनकी पूजा भारतीय करते हैं?"
यह तो स्पष्ट है कि इन पत्रकारों, मीडिया, माध्यम या पैपराजी papperaji को न तो भारतीय परंपराओं, धर्म (मजहब या  religion नहीं,  tradition) के बारे में पता या समझ है, न उन आधिदैविक शक्तियों के बारे में, जिनकी पूजा, उपासना और आराधना भारत के लोग हजारों वर्षों से करते आ रहे हैं। 
स्कन्द-पुराण के अनुसार ये देवता, जो "अदिति" के पुत्र हैं, कुल 33 "कोटि" के होते हैं (33 करोड़ नहीं!) और इनका वर्गीकरण जिस प्रकार से किया जाता है उसे "वर्णों की मातृका" (matrix of letters) कहा जाता है।
यह देखना भी रोचक होगा कि इसी 'मातृका' शब्द का सजात,  सजाति, सज्ञात, (cognate) शब्द है 'matrix' भी!
'श्रीलिपि', जिसके आधार पर जिस व्यक्ति ने रूसी (Russian / ऋषि) लिपि का आरंभ किया, वास्तव में वही 'शारदा' अर्थात् सरस्वती ही है, जो पुनः पर्यायतः 'ब्राह्मी' ही है। ब्राह्मी का प्रयोजन लौकिक है जबकि देवनागरी या नागरी का प्रयोजन आधिदैविक है। इसलिए रूसी (जो वैसे भी 'ऋषि' का सजात / सजाति / cognate) है, बहुत संभव है कि इस लिपि को रूसी भाषा के लिए अपनानेवाले उस व्यक्ति (जिसे 'सेन्ट' की उपाधि से विभूषित किया गया था), का नाम 'श्रीलिपि' से, 'सिरिल' / 'Cyril' हुआ हो। 'सेन्ट' / saint  तो स्पष्ट ही संस्कृत संत का अपभ्रंश हे, क्योंकि संस्कृत शब्द की उत्पत्ति का आधार अत्यंत दृढ है, जो कि शब्द के अर्थ को भी स्पष्ट करता है ।
यह सब संयोग नहीं है।
इन 33 वर्णों की मातृका (माता या जननी) होने से ही अदिति को 12 आदित्यों या देवताओं की माता कहा गया। 
संस्कृत व्याकरण का ध्वनिशास्त्र ही सभी वैदिक या अन्य मंत्रों का शास्त्र है। 
वर्ण, जो वाणी का व्यक्त रूप है, मूलतः ध्वन्यात्मक / स्वनिम  (phonetic) होने से प्राण और रयि का संयोग है। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो किसी भी मानव या अन्य भी किसी प्राणी द्वारा उच्चारित शब्द में प्राण अर्थात् कंपन (vibration) और चेतना (consciousness) का संयोग (combination) होता है। इस पूरे दर्शन में किसी अवैज्ञानिक मान्यता के लिए कोई स्थान नहीं है। 
जैसे जैसे भारत का तथाकथित "वैज्ञानिक" विकास हुआ, वैसे वैसे जो भी "भारतीय" है, उसे बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट किया गया।
आयुर्वेद, संगीत, कला, संस्कृति, आदि सभी क्षेत्रों को इतना अधिक अपमानित और निन्दित किया गया और 'धर्म' कहकर पाश्चात्य परंपराओं को इतना महिमामंडित किया गया कि आज हम भारतीय भी उन अर्थहीन परंपराओं को गर्वपूर्वक अपनाने लगे हैं।
जहाँ तक देवताओं का मजाक उड़ाने का प्रश्न है, वैदिक और पौराणिक सभी देवता इससे यदि अपमानित अनुभव करते हों, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात होगी? 
देवमन्दिरों, देवमूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करना, वैश्विक स्तर पर पूरी धरती को प्रभावित करता है। 
पिछले 2000 वर्षों से संपूर्ण पाश्चात्य वैचारिकता ने यही किया है। न केवल हिन्दू, बल्कि जैन और बौद्ध मंदिरोंत को भी तोड़ा, लूटा, तथा जलाया जाता रहा है। 
सभी वायरस और बैक्टीरिया 'जीव' अर्थात् 'देवता-तत्व' हैं। 
(एक प्रमुख कारण / प्रमाण यह, कि वे अपने वंश का विस्तार करते हैं, जो जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है।)
विभिन्न रेडियो तरंगें उन्हें न केवल प्रभावित करती हैं बल्कि उनमें जैविकीय रूपन्तरण (mutation) भी घटित करती हैं।
वे चाहे G, 2G, 3G, 4G, या 5G ही क्यों न हो! 
यह आधिदैविक स्तर की गूढ गतिविधि है। 
कोरोना का वायरस इस दृष्टि से इसका अत्यन्त प्रामाणिक (prominent) और प्रत्यक्ष उदाहरण है। 
हम कितने भी प्रयास कर लें, इससे लड़ ही नहीं सकते, और विजयी तो कदापि नहीं हो सकते!
कोरोना से युद्ध करने का विचार ही भ्रमपूर्ण और त्रुटिपूर्ण है।
कोरोना तो एक वायरस है, ऐसे अनेक वायरस ओर बैक्टीरिया हैं, जो हमारी वैज्ञानिक हठधर्मिता और दंभ (hype) की पोल खोलते हैं।
'वायरस' और 'बैक्टिरिया भी मूलतः संस्कृत भाषा के शब्द, क्रमशः 'वीर्यस्' और 'वसतिः ईय' के व्युत्पन्न हैं। मैं यहाँ इसके अधिक विस्तार में नहीं जाऊँगा। 
यदि पूरी मनुष्य जाति भी कोरोना से समाप्त हो जाती है तो यह  दुःखद भले ही हो, इसमें आश्चर्यजनक तो कुछ नहीं  होगा।

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