कविता : 05-05-2021
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आग लगने पर चले हैं खोदने कुआँ हम,
नहीं है मालूम यह, पानी होगा कहाँ मगर!
आजकल बोरिंग करना भी बहुत आसान है,
हाँ समस्या यह है -भूजल उतरता जा रहा!
फिर भी जाहिर है, कुछ तो करना ही होगा,
हाथ पर धर हाथ यूँ, क्या बैठे रहना होगा!
है चुनौती कठिन, लेकिन यह समझना होगा,
हर क़दम संभल संभल, करके चलना होगा!
वक्त की साजिश को, पहचान लेते वक्त पर,
आज ना यह वक्त आता, लेने हमारा इम्तहाँ!
कुछ लोग हैं जिनके लिए, हर रोज जीना है यही,
रोज ही खोदो कुआँ और बुझाओ प्यास रोज !
पर मगर कुछ और हैं जिनकी आशा कुछ और है,
कल की चिन्ता, आज का भय, और स्वप्न भविष्य के!
देह की ज़रूरतें तो फिर भी हैं मर्यादित सीमित,
लालसाएँ, वासनाएँ, मन की असीमित अपरिमित!
और वह भविष्य भी कितना अनिश्चित अपरिचित,
भूमि जिसकी अनुर्वर, अस्थिर, अति-चंचल प्रकंपित!
मानव-मन फिर भी लेकिन, बोता है भविष्य के सपने,
काटता है वह सुख कभी, तरसता कभी दुर्भिक्ष से!
तन-मन का यह द्वन्द्व मगर आख़िर किसमें होता है,
कोई नहीं समझ पाता कि जागता है या सोता है!
एक उनींदी तन्द्रा में, जीवन सारा कट जाता है,
राज़ इसका कभी लेकिन, कोई, जान समझ जाता है।
अकसर तो हर मानव ही जीता रहता इस तन्द्रा में,
जैसे खोया सपनों में कोई मनुष्य ज्यों निद्रा में।
निद्रा ही उसका धर्म-अधर्म, निद्रा ही उसका कर्म,
निद्रा ही जीवन का चरम, निद्रा ही जीवन परम!
कैसे कोई जागे इस निद्रा से, और जगाए कौन उसे,
वह खुद भी आख़िर क्यों जागे, यह बतलाए कौन उसे!
निद्रा जो निशा, नशा है, निद्रा जो मोह-निशा है,
निद्रा जो सुख है नित्य सुखद, निद्रा जो चित्त-दशा है!
यह चित्त स्वयं ही दशा है, या फिर यह अनित्य दिशा है,
यह प्रश्न चित्त में उठे अगर, तो समझो ईश-कृपा है।
वह दर्पण जिसमें चित्त प्रकाशित, लेकिन जो चित्त नहीं है,
जो प्रकाश करता आलोकित, लेकिन जो चित्र नहीं है,
जो दर्शन, दृग, दृष्टा नहीं, फिर भी सभी वही है,
जो उसको जाने, वह उससे, लेकिन विभक्त नहीं है,
उसमें जो लेकिन नित्य बसे, जो उसमें लेकिन नित्य बसे,
वह नित्य जागनेवाला जो, क्या सोए वह क्या जागे!
य एष सुप्तेषु जागर्ति, य एषु सुप्तेषु जागर्ति च।
को विजानाति तं देवं यो विजानाति इति सर्वम्।।
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