मानव-चेतना में आमूल परिवर्तन
(Radical Transformation in human-consciousness)
शायद यह कहना बहुत सही होगा कि यह दशक (2009 से 2019) अब तक के पूरे मानव-इतिहास का सर्वाधिक विचित्र, परिवर्तनशील दशक रहा होगा। यद्यपि इसने मानव की संस्कृति को, नैतिक, राजनैतिक मूल्यों, आदर्शों, लक्ष्यों को बिलकुल नये सिरे से पुनः परिभाषित किया, और मनुष्यमात्र को झकझोर-कर रख दिया, लेकिन यह भी सत्य है कि हमारे आज के समय के तमाम चिन्तकों, बुद्धिजीवियों, दार्शनिकों, समाज-सुधारकों, तथाकथित संतों, स्वामियों, आदि के अत्यन्त प्रोत्साहनकारी उद्बोधनों के बावजूद मनुष्य अब भी अवसाद, व्याकुलता और हताशा से ग्रस्त है। विद्युत गति जैसी तीव्रगामी संप्रेषणीयता प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्य का मनुष्य से संवाद होता दिखलाई नहीं देता।
हर मनुष्य चाहे वह धरती के किसी भी स्थान पर रहता हो, चाहे उसका परिवार हो, न हो, छोटा या बड़ा हो, गरीब, अमीर, स्त्री या पुरुष हो, अपने आपको जीवन के उस चौराहे पर खड़ा पाता है जहाँ कौन सा रास्ता सुख और सुरक्षा की ओर जाता है, कुछ तय नहीं। व्यक्तिगत स्तर पर परिवार की तरह कुछ सुख शान्ति शायद मनुष्य को कभी कभी मिलती प्रतीत होती है, किन्तु परिवार, फिर ग्राम, बस्ती आदि तक समाज का फैलाव हो जाता है तो यह सहज सुख शान्ति क्रमशः अनिश्चितता और व्याकुलता का रूप ले लेती है।
समाज का अर्थ है द्वन्द्व । द्वन्द्व का परिणाम है संघर्ष, जीत-हार, सामन्जस्य और आधिपत्य।
प्रकृति से ही मनुष्य शेष सभी प्राणियों की तुलना में :
"बुद्धिर्यस्य बलं तस्य"
की दृष्टि से सर्वाधिक शक्तिशाली रहा है,
किन्तु उसकी बुद्धि :
"जिसकी लाठी उसकी भैंस"
की उक्ति से प्रेरित होकर बुद्धिरूपी इस बल से शासित रही है। फिर भी, प्रकृति-धर्म के अनुसार,
-यह जो है मनुष्य,
उसका 'धर्म' भिन्न भिन्न भौगोलिक, प्राकृतिक स्थितियों में भिन्न भिन्न रूपों में ढलता रहा ।
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वर्ष 2001 के सितंबर माह की 11 तारीख़ की शाम रोज की तरह भोजन के लिए थाली में सब्जी-रोटी रखकर बी. बी. सी. रेडियो लगाया, तो हेड-लाइंस सुनाते सुनाते अनाॅउन्सर ने कहा :
"अभी अभी ज्ञात-हुआ है कि एक विमान न्यूयॉर्क के ट्विन-टॉवर्स में से टकराया है।"
अनाॅउन्सर तब 'लाइव टीवी' देख रहा था।
अत्यन्त उत्तेजित होकर वह आगे तुरंत बोला :
"और जैसा कि मैं देख रहा हूँ एक और विमान उसी टावर से टकराया है। एकदम अविश्वसनीय! लगता नहीं, कि मैं लाइव न्यूज़ देख रहा हूँ या कि कोई हॉरर-फिल्म!
और एक और विमान पास के ही दूसरे टावर से जा टकराया है! ओह गॉड! आय जस्ट कान्ट बिलीव माय आइज़!"
सुबह जब मेरे मन में ख़याल आया कि इस पोस्ट में आगे क्या लिखा जाए, उसी समय मुझे 11 नवंबर 1963 का दिन याद आया जब प्रेसिडेन्ट जॉन एफ़ कैनेडी की हत्या हुई थी, और अमेरिका ने क्यूबा पर यह आरोप लगाया था कि इसमें उसका हाथ था। हम सब सोच रहे थे कि क्या अगले दिन क्यूबा के समय के अनुसार सुबह 8:00 बजे अमेरिका क्यूबा पर हमला कर देगा! उस समय मेरी आयु 10 वर्ष होने ही वाली थी ।
स्पष्ट है कि मेरी याददाश्त में यही सब है।
इसी प्रकार पं. जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु जिस दिन हुई थी वह दिन भी याद है। एक दो दिन बाद जब उनकी भस्म को हवाई जहाज से भारत-भूमि पर बिखराया जा रहा था, और हम लोग जब एक ऐसे जहाज को देख रहे थे, तो राख का कण पिताजी के चश्मे के शीशे पर भी गिरा था।
जब बरसों बाद 2011 में कभी यू-ट्यूब पर 'नौनिहाल' फिल्म का गाना देखा था तो पता चला था कि किस प्रकार
"मेरी आवाज सुनो..."
गीत के माध्यम से गीतकार और संगीतकार ने नेहरू की इमेज क्रिएट की थी।
इन सभी का सन्दर्भ इस तथ्य से है कि मीडिया सदा से कितना शक्तिशाली रहा है।
एक ओर मीडिया राजनीति के हाथों का औजार है, तो दूसरी ओर वह हमारे कलेक्टिव कॉन्शस / साइक / चेतना को भी प्रभावित करता है। यह कलेक्टिव साइक ही तो virtual / आभासी objective reality है!
मास स्केल पर जो कलेक्टिव कॉन्शस / साइक / चेतना / माइंड है, वही इन्डिविजुअल स्केल पर पर्सनल कॉन्शस / साइक / चेतना है, और इस प्रकार यह ओबजेक्टिव रियलिटी जिसे आज का वैज्ञानिक अस्तित्वमान ही नहीं मानता, हर किसी के लिए किसी भी दूसरे के संसार (ओबजेक्टिव रियलिटी) से नितान्त भिन्न होती है।
इसलिए तमाम आधुनिक से आधुनिक विज्ञान और गणित का भवन ताश के पत्तों की तरह बनते बनते ही भरभराकर ढहने लगता है।
न्यूटन से आइनस्टाइन तक, और आइनस्टाइन से लेकर स्टीफन हॉकिंग्स तक सभी इस भ्रम /संशय में पड़े हैं कि क्या यह जगत् अर्थात् एग्ज़िस्टेंस वस्तुतः कभी अस्तित्व में आया होगा, क्या यह वाकई 'फैल' रहा है?
इस प्रकार वे जाने-अनजाने उस 'काल' और 'स्थान' / दिक्काल को एक स्वतंत्र सत्ता मानकर उस पर आधारित अपने आकलनों से किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाह रहे हैं, जिसका कि अस्तित्व ही 'ओबजेक्टिव रियलिटी' होने से संदिग्ध है।
मुझे पुनः पुनः शिव-अथर्वशीर्ष का स्मरण होता है जहाँ यह कहा गया है :
"अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते।
व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो...
यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः... "
पता नहीं कोरोना के बाद जगत किसके लिए और किस रूप में होगा, किन्तु अभी तो आज के विज्ञान / गणित को इस प्रश्न को समझने के लिए बहुत मेहनत करना होगी!
और जब विज्ञान और गणित अभी इस स्थिति में हैं, तो ज्ञान के अन्य क्षेत्रों जैसे मेडिकल साइंस या मनोविज्ञान की क्या हैसियत है, इसका तो बस अनुमान लगाना ही काफी होगा।
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