शायद 2009 में नया एसेम्बल्ड डेस्कटॉप कंप्यूटर लिया था।
मेरे बचपन से ही मेरे जीवन के बहुत कठिन, आसान या विचित्र मोड़ अनपेक्षित ढंग से अकस्मात् सामने आते रहे हैं, और मैं कभी सोच-समझकर, तो कभी अपनी आँखें बंद रखकर, सब कुछ होनी पर छोड़, उन मोड़ों से गुजरता रहा हूँ ।
मैं समझता हूँ कि अनेक बार मैंने किसी अज्ञात प्रेरणा से भी ऐसा किया है। कभी कभी जिद से, तो कभी कभी कौतूहल या खेल भावना से भी।
यह बिल्कुल और बहुत संभव भी था कि ऐसे ही किसी मोड़ पर मेरी मृत्यु भी हो सकती थी। कहना न होगा कि किसी अज्ञात शक्ति ने ही मुझे अब तक मरने नहीं दिया।
(यह तर्क इसलिए शायद गलत है कि हमें यह भी नहीं पता कि वस्तुतः मृत्यु 'किसकी' होती है! ईश्वर की ही तरह, मृत्यु को भी हम केवल मान्यता की ही तरह तो जानते हैं! अपनी मृत्यु को न तो कोई अनुभव कर सकता है, न कोई उसे बतला सकता है कि उसकी मृत्यु हो चुकी है, न ही इसकी कोई संभावना है कि वह किसी से ऐसा कह सकता है! हाँ, दूसरे किसी की मृत्यु के बारे में ऐसा अनुमान लगभग हर कोई लगाता है, किन्तु यह तो स्पष्ट है कि यह मृत्यु आभासी प्रकार की है, क्योंकि हमें नहीं पता कि जिसे हम मृत कहते हैं, उसका स्वयं का अनुभव क्या रहा होगा। इसलिए औपचारिक तौर पर शरीर के नष्ट हो जाने को ही मृत्यु मान लिया जाता है!)
सच्चाई जो भी हो, आभासी रूप से (मैं) अभी जी रहा हूँ, और (मेरी) स्मृति के आधार पर जीवन के 67 वर्ष व्यतीत कर चुका हूँ। पर सवाल यह भी है कि वर्ष का और समय का अस्तित्व भी, क्या केवल विचार पर ही अवलंबित नहीं होता?
इस प्रकार क्या दशक भी स्मृति और विचार पर ही अवलंबित एक मान्यता मात्र नहीं है? परंतु हमारा पूरा जीवन ही स्मृतिगत और स्मृतिजनित मान्यताओं का ताना-बाना है! हमारी खुशियाँ, उम्मीदें, डर, आकाँक्षाएँ, कल्पनाएँ, सपने, यहाँ तक कि अपनी 'निजता' जिसे 'मैं' कहा जाता है, उस 'मैं' की पहचान भी क्या स्मृति ही नहीं होती? स्पष्ट है कि स्मृति है तो ही पहचान है, और पहचान है, तो ही स्मृति है! फिर भी बुद्धि की त्रुटि से उन दोनों को भिन्न भिन्न मान लिया जाता है। फिर भी यह कितना रोचक, आश्चर्यजनक और आवश्यक सत्य प्रतीत होता है!
स्मृति अर्थात् पहचान ही 'निजता' को, अर्थात् 'मैं' को बार बार परिभाषित, प्रायोजित, प्रक्षेपित और पुष्ट करती है, और यही पुनः उसे सातत्य / निरंतरता देती है!
मस्तिष्क इसी निरंतर परिवर्तनशील कल्पित स्मृति का आधार लेकर 'स्व' (अस्मि / हूँ) की तरह एक आभासी स्वतंत्र जीवन / अस्तित्व ग्रहण कर लेता है।
जिस दशक के बारे में यहाँ कहा जा रहा है, उस दशक में ही मेरा(?) विचारक्रम कुछ इसी प्रकार से गतिशील रहा।
इसी काल में, जैसा कि पहले उल्लेख किया, न जाने कौन सी शक्ति या विधि ने, किसने, या कौन से विधाता ने मेरे(?) जीवन को दिशा दी! अतः मन में प्रश्न उठा कि क्या वास्तव में जीवन किसी 'मैं' का स्वतंत्र अस्तित्व है, या केवल एकमात्र समष्टि अस्तित्व, indivisible one whole REALITY है?
प्रश्न यह भी है कि यदि जीवन से पृथक् और अन्य कुछ / कोई दूसरा है ही नहीं, तो जीवन को एकमेव अथवा एकमात्र भी कैसे कहा जा सकता है!
इसे देख लेने पर यदि कोई यह दावा करे कि मुझे जीवन क्या है, यह बोध प्राप्त हो गया है, तो क्या यह हास्यास्पद नहीं होगा!
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