May 31, 2021

जुगाड़ और बिगाड़

जुड़ाव

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जीवन रचनात्मकता (creativity) है ।

किसी भी परिस्थिति में,  किसी भी तल पर,  किसी भी रूप में। हर जीवित वस्तु में यह रचनात्मकता स्वयंस्फूर्त होती है, और वस्तु-विशेष की प्रकृति, आकृति तथा अनुकृति से सतत व्यक्त होती रहती है। 

रचनात्मकता अर्थात् उपाय, रीति या युक्ति। 

जैसे भगत और भगति भक्त तथा भक्ति के अपभ्रंश हैं,  वैसे ही जुगत, युक्त और युक्ति का, जो लोकभाषा में ढलकर 'जुगाड़' हो गया !

इसी प्रकार  'बिगाड़' शब्द, विघटन का ही अपभ्रंश है। इसलिए रचनात्मकता / सृजनात्मकता या creativity एक स्वाभाविक प्राकृतिक गतिविधि है। 

जब तक इस रचनात्मकता को अवसर, अनुकूल परिस्थितियाँ और प्रोत्साहन आदि प्राप्त होते रहते हैं,  यह सतत समृद्ध होती रहती है। जब इसे ऐसे अवसर, एवं अनुकूल परिस्थितियाँ आदि नहीं मिलते, या इसका मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, केवल तभी यह विघटित होने लगती है अर्थात् विनाशशील, विनाशकारी होकर 'बिगाड़' का रूप ले लेती है।

जीवन ऊर्जा है और ऊर्जा सकारात्मक होती है या नकारात्मक। ऊर्जा शून्य नहीं होती। यह सृजनात्मक या ध्वंसात्मक ही होती है। पॉज़िटिव या निगेटिव होती है। 

जीवन में जब किसी अवसर को चुनौती की तरह स्वीकार किया जाता है, तो जीवनरूपी यह ऊर्जा अपने चरम सामर्थ्य पर पहुँच जाती है। 

किन्तु निराशा, भय, आलस्य, आत्मविश्वास की कमी, संशय आदि या अविवेकयुक्त लोभ के कारण यह नकारात्मक अथवा  शून्य होने लगती है। 

ऐसी स्थिति आ जाने पर उचित और अनुकूल समय आने की प्रतीक्षा कर सकने को भी एक चुनौती की तरह लिया जा सकता है, और इसका उपयुक्त तरीके से सामना करना भी युक्तिपूर्वक किया जानेवाला 'जुगाड़' हो जाता है। चुनौती को इस प्रकार से सम्यक् उत्तर दिया जाना ही प्रसन्नता में फलित हो जाता है।

किन्तु जब कोई, जीवन को उपयोग या अवसर की तरह देख पाने में अक्षम होता है, या समाज उसे ऐसा बना देता है, तो वह नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है। तब नकारात्मक उत्तेजना, छिछले कौतूहल, तात्कालिक सफलता और सक्रियता को ही जीवन की कसौटी मान बैठता है,और उसकी स्वाभाविक प्रतिभा (talent), सृजनात्मकता कुंठित होने लगती है। किसी आदर्श से प्रेरित, प्रभावित, अभिभूत (infatuated) होकर कोई हिंसा को भी परिवर्तन का माध्यम समझने लग सकता है। यह आदर्श और इससे जुड़ी उत्तेजना, सफलता, सक्रियता, पाखंड, दंभ में गौरव भी अनुभव किया जा सकता है, और उस आदर्श को इतना महिमामंडित भी किया जा सकता है, कि उसके लिए प्राणों का बलिदान देना भी पावन और परम कर्तव्य प्रतीत हो सकता है। किन्तु इस सबसे उत्पन्न विनाशकारी परिणाम से सारे विश्व को ही क्षति उठानी पड़ती है।

ऐसा ही एक उदाहरण है :

"राष्ट्रवाद" 

यही "राष्ट्रवाद" मनुष्यमात्र में समानता, स्वतंत्रता की स्फूर्ति भी पैदा करता है, किन्तु जब किसी विशेष राजनीतिक विचार से नियंत्रित होकर किसी भाषा, वर्ग, समुदाय आदि से संबद्ध हो जाता है और उसी दायरे और संदर्भ में वर्तमान का अवलोकन करता है, तो मनुष्यों के बीच परस्पर घृणा, ईर्ष्या, प्रतिद्वन्द्विता, उग्रता तथा हिंसा का 'जुगाड़' हो जाता है। यही 'जुगाड़' तब जुड़ाव या सौहार्द की बजाय विनाशकारी बिखराव, 'बिगाड़' हो जाता है। 

समुदाय भी पुनः युक्ति, उपाय के रूप में 'जुगाड़' होता है। वही,  लोभ, आधिपत्य, ईर्ष्या, नासमझी के कारण दूसरे समुदायों के विरोध में खड़ा होकर हिंसा और उग्रता के आवेग से ग्रस्त होकर अपने ही द्वारा तय किए आदर्श को कट्टरता की अति तक ले जाने का कारण, अर्थात् 'बिगाड़' का प्रारंभ है। युक्ति ही सबके लिए कल्याणकारी आधारभूत तर्क हो सकता है। यह तर्क किसी आदर्श की अपेक्षा न करते हुए भी सर्वोत्तम सामञ्जस्य भी हो सकता है। 

जीवन की विविध चुनौतियों का सामना वैयक्तिक या सामूहिक रूप से भी क्षण-प्रतिक्षण किया जाना होता है। शुरू में कोई विश्वास या आस्था, कामचलाऊ अवधारणा यद्यपि सहायक हो सकती है, किन्तु यही जब रूढ़ि, परिपाटी, परंपरा या रिवाज की तरह दुराग्रह बन जाती है तो अपने-आप, और दूसरों के भी लिए अहित का साधन, 'जुगाड़' हो सकती है। 

भय, चिन्ता, सुरक्षा और असुरक्षा आदि की भावनाओं को भी सकारात्मक या नकारात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है। भय और चिन्ता सकारात्मक दृष्टि से सावधानी रखने के लिए संकेत समझे जा सकते हैं और धैर्य की परीक्षा लेते हैं, जबकि इनसे घबरा जाने पर वे ही नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

प्रेम अर्थात् संवेदनशीलता ही सकारात्मकता व नकारात्मकता की एकमात्र कसौटी है। प्रेम / संवेदनशीलता के अभाव में यही नकारात्मकता मनुष्यों और समुदायों के बीच परस्पर संघर्ष का कारण हो जाती है। 

संवेदनशीलता भी प्रथमतः और मौलिक रूप से तो अपने आप से ही प्रेम का द्योतक लक्षण होता है, और जाने-अनजाने भी हर व्यक्ति और छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा प्राणी भी अपने आप के ही प्रति वैसे भी सर्वाधिक संवेदनशील होता ही है, या अपने आप से ही सर्वाधिक प्रेम करता है । इसी प्रेम या संवेदनशीलता से प्रेरित होकर आत्म-रक्षा और आत्म-संतुष्टि, आत्म-तृप्ति और आत्म-पुष्टि में हर कोई अनायास ही प्रवृत्त भी होता है। 

यह तो संवेदनशीलता अर्थात् प्रेम की संकीर्णता या विस्तार ही है जिसमें इस आत्म / स्व को केवल एक शरीर-विशेष तक बद्ध कर लिया जाता है, या इसमें संपूर्ण जड-चेतन, अस्तित्व को ही शामिल कर लिया जाता है ।

विघटन या 'बिगाड़' चूँकि नकारात्मक होता है, इसलिए सदैव अभावात्मक रिक्तता मात्र होता है। इसलिए इस नकारात्मकता  से न तो युद्ध किया जा सकता है, न इसे मिटाया जा सकता है। अतः इससे संघर्ष का विचार ही निरर्थक  है। 

मनुष्य की सामूहिक और वैयक्तिक चेतना :

(personal and collective consciousness)

इसी सकारात्मकता और नकारात्मकता की क्रीडा है।

इसलिए समाज या पूरी मनुष्यता के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित तरीका नहीं हो सकता, जिसे पूरे विश्व पर थोपा जा सके!

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कीड़ा

कविता : 31-05-2021
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जब मैं फेसबुक पर हुआ करता था, एक मित्र ने एक सुन्दर कीड़े का चित्र पोस्ट किया था। तब किसी ने कहा था, सुन्दर है पर कीड़ा है! 
तब मैंने लिखा था :

हाँ कीड़ा है, पर सुन्दर है, 
हाँ सुन्दर है, पर कीड़ा है!
उसके कीड़ा हो जाने से, 
तुमको हमको क्यों पीड़ा है!!
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छाँह

 कविता : 31-05-2021

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चाह ही 'मैं' है, 

मृत्यु की चाह भी! 

राह ही मंजिल है, 

सत्य की राह भी! 

आह ही आशा है, 

वियोग की आह भी! 

छाँह ही मुक्ति है, 

प्रेम की छाँह भी!! 

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May 29, 2021

चेतना-जल!

कविता : 29-05-2021

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।। बोध-द्वादशी।। 

इस नदी के दो किनारे,

एक मैं, संसार एक,

इस नदी में जल भी है,

चेतना, वह भी है एक! १

किस काल में इस चेतना से, 

संसार का सृजन हुआ,

प्रश्न कितना विसंगत है, 

काल है आयाम एक! २

हर किसी के लिए अपना, 

बिंदु वर्तमान एक, 

विस्तार जिसका मनोकल्पित, 

अतीत एक, भविष्य एक! ३

फिर वही मन खोजता है,

जगत्-उद्गम काल में,

पड़ा रहता है विमोहित,

विचारभ्रम के जाल में! ४

काल का उद्भव अगर है,

और है, अवसान अगर, 

तो काल से पहले का क्या,

यह प्रश्न ही अतः वृथा! ५

पहले तथा फिर बाद में, 

काल के हैं रूप कल्पित!

काल तो केवल बिंदु है, 

शाश्वत, चिरंतन, है अभी! ६

चेतना से काल है,

काल से ही, स्थान भी,

काल-स्थान हैं कहाँ, 

यदि नहीं हो चेतना ही! ७

और फिर यह चेतना,

भी नहीं बस कल्पना! 

कल्पना का अधिष्ठान,

स्वयंस्फूर्त, स्वयंप्रमाण! ८

यद्यपि यह मन नहीं, 

नहीं बुद्धि, भाव, विचार,

न अस्मिता, विचारकर्ता,

पर सभी का है आधार! ९

सब से परे, सबसे पृथक्,

अनछुई, यह अस्पर्शित,

नित्य है यह बोध-मात्र, 

अप्रकट, पर प्रकट नित्य! १०

चेतना के दो किनारे,

एक मैं, संसार एक,

दो नहीं, जब जल नहीं,

इसलिए मैं भी, नहीं एक! ११

आभास दो का एक से,

न हों दो तो, कहाँ एक!

इसलिए कहते हैं उसको,

एकमेवाद्वितीय-अभेद! १२

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May 28, 2021

पल पल की है बात!

कविता : 28-05-2021

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पलक झपकते सब कुछ होता, 

पलक झपकते जाता बीत, 

पलक झपकते वर्तमान का, 

पल पल हो जाता अतीत! 

कितनी जल्दी चिन्ता होती, 

कितनी जल्दी उठता भय,  

कितनी जल्दी मन घबराता,

कितनी जल्दी होता निर्भय!

कितनी जल्दी जगती पीड़ा, 

कितनी जल्दी दुःख गहराता, 

कितनी जल्दी थम भी जाता,

सुख में भी तत्क्षण रम जाता! 

कितनी जल्दी होता व्याकुल, 

बनते-ढहते आशा के पुल,

कितने जल्दी पथ मिल जाते, 

कितने जल्दी खो भी जाते!

कितने छोटे,  कितने लम्बे,

कितने अल्प, कितने सुदीर्घ,

पल पल, युग युग, कितनी देर, 

ठहरते, रुकते, जाते बीत!

कितने जल्दी मिलकर मीत,

कितने शीघ्र बिछुड़ जाते, 

जीवन की तो रीत यही है,

आते-जाते समझाते! 

कितनी जल्दी ऋतुएँ आतीं,

पावस, शरद, शिशिर, हेमन्त,

वासंती-ऋतु के पीछे-पीछे, 

कितने शीघ्र,  ग्रीष्म-आतप!

कितनी गति से चक्र घूमता,

चिरस्थायी, फिर रुकता भी,

कभी पूर्ण उल्लास भरा,

लेकिन फिर पुनः रिक्तता भी!

कभी मधुर हवा के झोंके, 

कभी ऊष्ण लू, झंझावात,

कभी रसीली पवन-गंध,

कटुता कभी, तिक्तता भी!

मन बहता, या स्थिर रहता है,

बार बार कहता रहता है,

पलक झपकते सब कुछ होता, 

पलक झपकते जाता बीत, 

पलक झपकते वर्तमान पल,

खोकर हो जाते अतीत! 

लेकिन दृष्टि इस चंचल मन की, 

वहाँ नहीं क्यों जाती है, 

जहाँ स्रोत है जग, जीवन का,

सृष्टि जहाँ से आती है!

किंतु कभी वह जीवन-उत्स,

क्या पहचाना भी जाता है!

फिर कोई कैसे जाने, 

उससे अपना क्या नाता है! 

क्या उसकी पहचान है कोई, 

क्या उसकी स्मृति या विस्मृति! 

वह संस्कृति है या विकृति,

या शुद्ध नितांत, निपट प्रकृति!

पलक झपकते मन खो जाता, 

जिसके आँचल में सो जाता, 

फिर ना कभी लौटना जाने,

ना फिर कभी लौट पाता! 

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May 27, 2021

क्या कहूँ!

कविता : 27-05-2021

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मेरी ही क्या सत्यता, 

संसार की क्या कहूँ,

मेरी ही क्या सुरक्षा, 

संसार की क्या कहूँ! 

मैं हर पल बनता-मिटता,

संसार भी तो, मुझ जैसा ही,

फिर भी दोनों नित्य लगें,

इससे ज्यादा क्या मैं कहूँ! 

मुझसे ही संसार है मेरा, 

संसार ही से तो मैं भी हूँ, 

एक हैं दोनों, या हैं दोनों,

अलग अलग वे, मैं क्या कहूँ!

जब मैं न था, संसार न था, 

संसार न था तब, था क्या मैं! 

अब लगता है, वे दोनों हैं,

इससे ज्यादा, क्या मैं कहूँ!

लेकिन फिर यह भी लगता है, 

इक दिन दोनों नहीं रहेंगे,

क्या ऐसा भी हो सकता है, 

आकर किससे लोग कहेंगे!

उस दिन होने-ना-होने की, 

उलझन शायद मिट जाएगी,

लेकिन किसको चैन आएगा,

मौत मुझे क्या बतलाएगी!!

जिसमें संसार है बनता-मिटता,

जिसमें मैं भी हूँ बनता-मिटता,

जो बनता है, ना मिटता है,

उसके बारे में, मैं क्या कहूँ! 

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मेरा जीवन-दर्शन

जीवन के सप्तसूत्र

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मेरी समझ में जीवन के जो सात आयाम सदैव होते हैं, जीवन को जिनसे अभिन्न और अनन्य कहा जा सकता है उन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है :

1. जरूरत, संबंध और प्रेम, 

2. अर्थ, प्रयोजन, समाधान और संतुष्टि। 

अस्तित्वमान होने का तात्पर्य है, -जरूरतें होना। 

जरूरतें पुनः दो प्रकार की, शारीरिक या मानसिक हो सकती हैं। इन जरूरतों की पूर्ति होना और निरंतर होते रहना ही जीवन या जीने को संभव बनाता है।

इन जरूरतों की पूर्ति जिन माध्यमों से होती है, उनसे ही संबंध हो सकता है। ये माध्यम भी पुनः व्यक्ति, वस्तुएँ एवं परिस्थिति होते हैं। 

इसका विस्तार समूह या समुदाय तक किया जा सकता है, और जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ परिभाषित की जा सकती हैं। जिन माध्यमों से ये आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, उनसे संबंधित होने पर जीवन सुचारु और सरल रूप से व्यतीत होता है। 

जरूरतों तथा आवश्यकताओं, इन दोनों आयामों के बाद का जो महत्वपूर्ण तीसरा आयाम है वह है प्रेम, जिसे वैसे तो ठीक-ठीक परिभाषित करना न तो संभव है न आवश्यक ही है, फिर भी यह कहना पर्याप्त है कि प्राणिमात्र को जीवन से, और विशेष रूप से अपने जीवन से तो प्रेम होता ही है।

प्रश्न यह भी है कि प्रेम का पर्यायार्थी, निकटतम शब्द क्या हो सकता है, जिससे इस अमूर्त तत्व / आयाम को अधिक स्पष्टता से कहा-समझा जा सके? 

मुझे लगता है कि प्रेम और संवेदनशीलता एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त दो भिन्न शब्द हैं। प्रेम हो तो संवेदनशीलता होती है, और संवेदनशीलता होती है तो प्रेम भी!  

इस प्रकार प्रेम कोई भावना-विशेष नहीं, बल्कि जीवनमात्र के प्रति सहज संवेदनशीलता का ही एक रूप है। 

यह संवेदनशीलता ही किसी भावना का रूप ले लेती है, किंतु उसमें भी अपने-आपसे प्रेम अर्थात् स्वयं के जीवन के प्रति होने वाला संवेदन ही उसका प्रमुख आधार होता है। 

इसी "स्व" या स्वयं को हर कोई अनायास ही सदैव जानता भी है, यद्यपि इस "जानने" में, जाननेवाला स्वयं को स्वयं से भिन्न उस तरह से नहीं जानता जैसे कि वह (सापेक्षतः) किसी अन्य विषय, वस्तु या व्यक्ति को जाना करता है।

इस प्रकार, आत्मप्रेम ही अपने और अपने से भिन्न के प्रति होने वाली सहज स्वाभाविक संवेदनशीलता है।

इसी आत्मप्रेम को स्वार्थ के रूप में भी देखा जाता है, जहाँ यह बहुत संकीर्ण हो जाता है। 

शारीरिक जरूरतों में प्रमुख हैं भूख, प्यास, निद्रा और सुरक्षा । किंतु एक विशिष्ट प्रवृत्ति जो इतनी ही शक्तिशाली, स्वाभाविक और अदम्य होती है, वह है अपनी संतान को उत्पन्न करने की तीव्र लालसा। इसकी अभिव्यक्ति स्त्री और पुरुष में भिन्न भिन्न प्रकार से होती है, जिसे समाज और सामाजिक नैतिकता और भी अधिक जटिल तथा कठिन बना देते हैं। 

समाज का तात्पर्य है : व्यक्तियों के बीच समन्वय, तालमेल और सामञ्जस्य, जो प्रायः संघर्ष ही बन जाता है। विभिन्न समुदायों के अपने-अपने रीति रिवाज, रूढ़ियाँ और आग्रह इसे और भी पेंचीदा बना देते हैं। 

यहाँ से हमारे चिंतन की दिशा सनातन / वैदिक परंपरा अर्थात् 'धर्म' को आधार की तरह ग्रहण कर स्थापित की गई 'विवाह' नामक संस्था की उपादेयता की ओर भी जा सकती है, वर्णाश्रम धर्म को महत्व देने की दृष्टि से उसकी आवश्यकता भी समझी जा सकती है।

श्रीमदभगवद्गीता अध्याय 7 में कहा गया है :

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। 

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। ११

उल्लेखनीय है कि यहाँ अर्जुन से कहते हुए श्रीकृष्ण उसे "भरतर्षभ" का संबोधन देते हैं ।

ऋषभ का एक अर्थ है श्रेष्ठ। 

ऋषभ शब्द का प्रयोग उस नर गौवंश के लिए भी किया जाता है जिसे गौवंश की संतति की वृद्धि के लिए गायों के साथ, उनके बीच छोड़ा जाता है। इसे ही 'वृषोत्सर्ग' कहा जाता है। 

चूँकि कृषि पर आधारित समाज में गो-पालन तथा नर गोवत्स को बधिया कर कृषि तथा अन्य कार्यों को किया जाता है, अतः ऋषभ का तात्पर्य है "श्रेष्ठ" ।

इस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ के अर्थ में अर्जुन को भरतर्षभ कहा गया। गौवंश में पशुओं के लिए बल ही श्रेष्ठता का पैमाना होता है और इसी प्रकार प्रकृति भी श्रेष्ठतर की जीवितता (survival of the fittest) के सिद्धांत से श्रेष्ठता तय करती है, इसलिए इस श्लोक में "काम" अर्थात् संतान उत्पन्न करने की प्रवृत्ति के  भेद को क्रमशः पशुओं और मनुष्यों की स्थिति में स्पष्ट किया गया है। 

इस प्रकार यह निर्देश दिया गया कि मनुष्यों के लिए "काम" उपभोग न होकर कर्तव्य है, जिससे वर्ण-व्यवस्था सुचारु रूप से संरक्षित रहे। (वैसे भी "काम", धर्म, अर्थ, तथा मोक्ष की ही तरह एक पुरुषार्थ की तरह भी जाना जाता है। यहाँ "काम" का अर्थ काम-वासना न होकर कामनाएँ, इच्छाएँ, ऐषणाएँ आदि हैं :

जैसा कि वित्तैषणा, पुत्रैषणा या कीर्तिप्राप्ति की अभिलाषा होने के अर्थ में समझा जाता है।) 

किंतु विवाह की अवधारणा का यह आधार ही आज के समाज में खो चुका है। 

फिर भी, परिवार नामक संस्था को सुचारु रूप से बनाए रखने के लिए कोई न कोई आधार तो आवश्यक है ही।

स्वार्थ अर्थात् स्व के संकीर्ण अर्थ तक सीमित 'प्रेम' क्या ऐसा आधार हो सकता है?

क्या इस प्रकार से सुनिश्चित और परिभाषित विवाह में कोई ऐसा घटक हो सकता है जो परिवार और समाज को शक्तिशाली बना सके? 

जीवन का चौथा आयाम है मनुष्य और मनुष्यों के समुदाय की सामूहिक इच्छाएँ, परंपराएँ, रूढियाँ आदि। 

यह मनुष्य की मानसिक स्थितियों के बारे में है। 

संवेदनशीलता के अभाव में ऐसी तमाम इच्छाएँ, परंपराएँ आदि शायद ही समाज को सुखी और संतुष्ट कर सकें। 

अगला पाँचवाँ आयाम है : 

अर्थ यानी सार्थकता / उपयोगिता।

इसी अर्थ को समग्रता से प्राप्त करना "प्रयोजन" नामक आयाम है। 

एक व्यक्ति के सुख प्राप्त कर लेने से क्या मनुष्यमात्र सुखी हो सकता है? क्या सभी के सुख परस्पर टकराते नहीं? 

यह अपनी व्यक्तिगत समृद्धि, स्वतंत्रता का आदर्श (model), क्या अंततः सभी के लिए हानिप्रद और विनाशकारी ही नहीं सिद्ध होता है?

क्या इस आदर्श (model) के स्थान पर वैदिक सूक्ति :

"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।।"

को  आदर्श-वाक्य की तरह ग्रहण किया जाना ही सामयिक नहीं होगा? 

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May 25, 2021

जिज्ञासा!

कविता : 25-05-2021

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देह प्रकृति की अभिव्यक्ति,

मन प्रकृति की अनुकृति, 

देह का परिणाम मन,

या देह का परिमाण मन!

भाव,  बुद्धि,  चित्त,  विचार, 

सब कुछ मन का ही विस्तार!

स्मृति या स्मृति की कल्पना, 

जिससे अपनी प्रतीति, 

मन का ही गुण-दोष वह,

काल,  स्थान,  भवभूति! 

यह प्रतीति क्या प्रकृति है, 

या प्रकृति का परिणाम? 

क्या यह नित्य-अनित्य है!

या है कोरा अनुमान? 

नित्य अनित्य, काल पर निर्भर,

इन्द्रिय,  विषय,  अनुमान,

बुद्धि, विचार, स्मृति, कल्पना,

स्मृति की ही सब पहचान!

इस पूरे प्रपञ्च का, 

फिर है कर्ता कौन? 

मैं तो हूँ कदापि नहीं, 

प्रकृति भी है मौन! 

कर्ता वैसी ही कल्पना,

जैसे कर्म प्रतीति, 

सुख-दुःख फिर क्या वस्तु है,

है किसकी अनुभूति? 

जिसकी भी अनुभूति है, 

क्या वह भी कोई स्वतंत्र?

या वह भी है कल्पना, 

प्रकृति की ही तरंग! 

यह सब बिलकुल स्पष्ट है, 

फिर क्यों है अभिमान? 

क्या यह भी नहीं कल्पना? 

प्रमाद या अनवधान!

अनवधानता ही जगत है, 

अनवधानता ही है संसार,

अविवेक ही सुख-दुःख है, 

सुषुप्ति है अहंकार! 

अनवधानता है अभाव, 

कल्पित जैसे अंधकार,

उसको दूर करेगा कौन, 

यह तो है मिथ्या विचार!

देह तो है मात्र प्रकृति,

जन्म-मृत्यु देह का धर्म, 

देह का परिणाम ही मन,

न कोई कर्ता, न कोई कर्म!

देह तो है मात्र प्रवृत्ति,

प्रकृति का निश्छल विलास, 

बनते-मिटते चित्र नित्य,

नियति-नटी का है उल्लास!

फिर क्या मेरा, हुआ जन्म! 

तो क्या मृत्यु होगी, मेरी? 

प्रश्न असंगत, कोरा भ्रम,

मैं जीवन! जीवन की रीत!

***

 

 








अनंत जीवन!

कविता : 25-05-2021

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मन भटकता जा रहा था, 

चंचल निराकृति प्राण सा, 

आसरा फिर उसने पाया, 

शरीर मूर्तिमान का! १

देह मन ऐसे मिले, 

इक दूसरे में खो गए,

कौन था पहचान किसकी,

ऐसे अबूझ हो गए! २

नित्य साथी सुख-दुःख के, 

एक बिन दूजा नहीं, 

दोनों के ही साथ साथ,

बसा सकल संसार यहीं! ३

किंतु फिर भी धीरे धीरे, 

पल पल, दिन दिन, बीते युग,

देह हो गई जीर्ण-जर्जरित, 

प्राण भी हो गए थकित!  ४

और फिर जब अंततः, 

प्राणों ने तजी देह, 

देह ने भी तजा मन को, 

विलीन वह हुआ गेह!  ५

किंतु नहीं हुआ विलीन,

देह मन का नेह वह, 

प्राणों में रहा रमता, 

अजर अमर विदेह वह!  ६

फिर से नवीन देह हुई, 

फिर आकर्षित हुआ मन, 

फिर प्राण चंचल आ बसे, 

फिर हुआ पुलकित जीवन! ७

***

 




May 24, 2021

मैं और मेरा सुरक्षा-कवच

कविता : 24:05:2021

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मैं और मेरा सुरक्षा-चक्र, 

अकसर ही बातें करते हैं, 

कौन है किसके सहारे,

कौन है किसका सहारा! 

क्या प्रयोजन है मेरा, 

और क्या है, कवच का!

कौन है, जो सोचता है,

कौन किसकी करे रक्षा!

हर घड़ी भयभीत, चिन्तित,

हर घड़ी संत्रस्त, व्याकुल,

जागता रहता निरंतर, 

अंततः सो जाता थककर!

नींद लेकिन टूटते ही, 

फिर वही चिन्ता प्रलाप, 

फिर वही उल्लास पल भर,

फिर वही आशा-विश्वास! 

मैं वही जो नींद में था, 

मैं वही जो जागता है! 

जागने पर फिर ये कैसा, 

द्वन्द्व मुझको भासता है?

मैं और मेरा सुरक्षा-चक्र,

रोज प्रकट-अप्रकट हो,

रोज रोज होते हैं व्यक्त,

रोज ही करते हैं प्रश्न,

अंततः हो अनभिव्यक्त! 

क्या कोई उनमें अकेला,

दूसरे बिन रह पाता!

क्या है फिर दोनों का, 

परस्पर अबूझ नाता!

क्या है फिर दोनों का, 

परस्पर अटूट नाता! 

***






इस दशक के बाद

मानव-चेतना में आमूल परिवर्तन 

(Radical Transformation in human-consciousness)

शायद यह कहना बहुत सही होगा कि यह दशक (2009 से 2019) अब तक के पूरे मानव-इतिहास का सर्वाधिक विचित्र,  परिवर्तनशील दशक रहा होगा। यद्यपि इसने मानव की संस्कृति को, नैतिक, राजनैतिक मूल्यों, आदर्शों, लक्ष्यों को बिलकुल नये सिरे से पुनः परिभाषित किया, और मनुष्यमात्र को झकझोर-कर रख दिया, लेकिन यह भी सत्य है कि हमारे आज के समय के तमाम चिन्तकों, बुद्धिजीवियों, दार्शनिकों, समाज-सुधारकों, तथाकथित संतों, स्वामियों, आदि के अत्यन्त प्रोत्साहनकारी उद्बोधनों के बावजूद मनुष्य अब भी अवसाद, व्याकुलता और हताशा से ग्रस्त है। विद्युत गति जैसी तीव्रगामी संप्रेषणीयता प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्य का मनुष्य से संवाद होता दिखलाई नहीं देता।

हर मनुष्य चाहे वह धरती के किसी भी स्थान पर रहता हो, चाहे उसका परिवार हो, न हो, छोटा या बड़ा हो, गरीब, अमीर, स्त्री या पुरुष हो, अपने आपको जीवन के उस चौराहे पर खड़ा पाता है जहाँ कौन सा रास्ता सुख और सुरक्षा की ओर जाता है, कुछ तय नहीं। व्यक्तिगत स्तर पर परिवार की तरह कुछ सुख शान्ति शायद मनुष्य को कभी कभी मिलती प्रतीत होती है, किन्तु परिवार, फिर ग्राम, बस्ती आदि तक समाज का फैलाव हो जाता है तो यह सहज सुख शान्ति क्रमशः अनिश्चितता और व्याकुलता का रूप ले लेती है। 

समाज का अर्थ है द्वन्द्व । द्वन्द्व का परिणाम है संघर्ष, जीत-हार,  सामन्जस्य और आधिपत्य। 

प्रकृति से ही मनुष्य शेष सभी प्राणियों की तुलना में : 

"बुद्धिर्यस्य बलं तस्य"

की दृष्टि से सर्वाधिक शक्तिशाली रहा है, 

किन्तु उसकी बुद्धि :

"जिसकी लाठी उसकी भैंस"

की उक्ति से प्रेरित होकर बुद्धिरूपी इस बल से शासित रही है। फिर भी, प्रकृति-धर्म के अनुसार, 

-यह जो है मनुष्य, 

उसका 'धर्म' भिन्न भिन्न भौगोलिक, प्राकृतिक स्थितियों में भिन्न भिन्न रूपों में ढलता रहा ।

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वर्ष 2001 के सितंबर माह की 11 तारीख़ की शाम रोज की तरह भोजन के लिए थाली में सब्जी-रोटी रखकर बी. बी. सी.  रेडियो लगाया, तो हेड-लाइंस सुनाते सुनाते अनाॅउन्सर ने कहा :

"अभी अभी ज्ञात-हुआ है कि एक विमान न्यूयॉर्क के ट्विन-टॉवर्स में से टकराया है।"

अनाॅउन्सर तब 'लाइव टीवी' देख रहा था। 

अत्यन्त उत्तेजित होकर वह आगे तुरंत बोला :

"और जैसा कि मैं देख रहा हूँ एक और विमान उसी टावर से टकराया है। एकदम अविश्वसनीय! लगता नहीं, कि मैं लाइव न्यूज़ देख रहा हूँ या कि कोई हॉरर-फिल्म!

और एक और विमान पास के ही दूसरे टावर से जा टकराया है! ओह गॉड!  आय जस्ट कान्ट बिलीव माय आइज़!"

सुबह जब मेरे मन में ख़याल आया कि इस पोस्ट में आगे क्या लिखा जाए, उसी समय मुझे 11 नवंबर 1963 का दिन याद आया जब प्रेसिडेन्ट जॉन एफ़ कैनेडी की हत्या हुई थी, और अमेरिका ने क्यूबा पर यह आरोप लगाया था कि इसमें उसका हाथ था। हम सब सोच रहे थे कि क्या अगले दिन क्यूबा के समय के अनुसार सुबह 8:00 बजे अमेरिका क्यूबा पर हमला कर देगा! उस समय मेरी आयु 10 वर्ष होने ही वाली थी ।

स्पष्ट है कि मेरी याददाश्त में यही सब है। 

इसी प्रकार पं. जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु जिस दिन हुई थी वह दिन भी याद है। एक दो दिन बाद जब उनकी भस्म को हवाई जहाज से भारत-भूमि पर बिखराया जा रहा था, और हम लोग जब एक ऐसे जहाज को देख रहे थे, तो राख का कण पिताजी के चश्मे के शीशे पर भी गिरा था। 

जब बरसों बाद 2011 में कभी यू-ट्यूब पर 'नौनिहाल' फिल्म  का गाना देखा था तो पता चला था कि किस प्रकार 

"मेरी आवाज सुनो..."

गीत के माध्यम से गीतकार और संगीतकार ने नेहरू की इमेज क्रिएट की थी। 

इन सभी का सन्दर्भ इस तथ्य से है कि मीडिया सदा से कितना शक्तिशाली रहा है। 

एक ओर मीडिया राजनीति के हाथों का औजार है,  तो दूसरी ओर वह हमारे कलेक्टिव कॉन्शस / साइक / चेतना को भी प्रभावित करता है। यह कलेक्टिव साइक ही तो virtual / आभासी objective reality है! 

मास स्केल पर जो कलेक्टिव कॉन्शस / साइक / चेतना / माइंड है, वही इन्डिविजुअल स्केल पर पर्सनल कॉन्शस / साइक / चेतना है, और इस प्रकार यह ओबजेक्टिव रियलिटी जिसे आज का वैज्ञानिक अस्तित्वमान ही नहीं मानता, हर किसी के लिए किसी भी दूसरे के संसार (ओबजेक्टिव रियलिटी) से नितान्त भिन्न होती है। 

इसलिए तमाम आधुनिक से आधुनिक विज्ञान और गणित का भवन ताश के पत्तों की तरह बनते बनते ही भरभराकर ढहने लगता है।

न्यूटन से आइनस्टाइन तक, और आइनस्टाइन से लेकर स्टीफन हॉकिंग्स तक सभी इस भ्रम /संशय में पड़े हैं कि क्या यह जगत् अर्थात् एग्ज़िस्टेंस वस्तुतः कभी अस्तित्व में आया होगा,  क्या यह वाकई 'फैल' रहा है? 

इस प्रकार वे जाने-अनजाने उस 'काल' और 'स्थान' / दिक्काल को एक स्वतंत्र सत्ता मानकर उस पर आधारित अपने आकलनों से किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाह रहे हैं, जिसका कि अस्तित्व ही 'ओबजेक्टिव रियलिटी' होने से संदिग्ध है।

मुझे पुनः पुनः शिव-अथर्वशीर्ष का स्मरण होता है जहाँ यह कहा गया है :

"अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते। 

व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो...

यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः... "

पता नहीं कोरोना के बाद जगत किसके लिए और किस रूप में होगा, किन्तु अभी तो आज के विज्ञान / गणित को इस प्रश्न को समझने के लिए बहुत मेहनत करना होगी! 

और जब विज्ञान और गणित अभी इस स्थिति में हैं, तो ज्ञान के अन्य क्षेत्रों जैसे मेडिकल साइंस या मनोविज्ञान की क्या हैसियत है, इसका तो बस अनुमान लगाना ही काफी होगा।

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May 23, 2021

दृग-दृश्य अधिष्ठान

कविता : 23-05-2021

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स्वप्न की क्या योजना, 

योजना का स्वप्न क्या! 

प्रवाह है जीवन सहज, 

अतीत क्या भविष्य क्या! १

जो हो चुका, अतीत था, 

भावी ही तो भविष्य है,

नित्य, शाश्वत, चिर, वर्तमान,

इसके लिए प्रयास क्या! २

स्मृति से उठता स्वप्न है,

स्वप्न से उठती स्मृति है, 

स्वप्न-स्मृति के खेल में, 

हार भी क्या, जीत क्या! ३

पल पल बदलते दृश्य की, 

परिवर्तन ही तो धुरी है,

समय की यह जो धुरी,

क्षणिक क्या या दीर्घ क्या! ४

दृग-दृश्य का जो भेद कल्पित,

दृग-दृश्य से स्वतंत्र क्या! 

दृग-दृश्य से स्वतंत्र किंतु, 

चेतना है दृश्य क्या! ५

प्रपञ्च का जो बीज है,

प्रपञ्च का विस्तार भी, 

जगत में भी, जगत् से परे, 

बीज क्या, विस्तार क्या! ६

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May 22, 2021

कौन सी चीज़!

कविता : 22-05-2021

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कौन सी चीज़ तुम्हें जोड़ती है ख़ुद से,

कौन सी चीज़ तुम्हें तोड़ती है ख़ुद से!

कौन सी चीज़ तुम्हें जोड़ती है ख़ुदा से,

कौन सी चीज़ करती है जुदा, ख़ुदा से तुम्हें! 

ख़ुद से शायद ही कभी पूछा होगा तुमने! 

पूछकर जुदा किया होगा, ख़ुद से ही ख़ुद को!

पूछ पाना ख़ुद से, कभी ख़ुद ही, मुमकिन है क्या!

क्या ख़ुद, ख़ुद से है कोई दूसरा, पूछो जिससे! 

क्या कभी भी ख़ुद से ख़ुद होता है अलग!

क्या कभी भी ख़ुद से ख़ुदा होता है जुदा!

फिर ये कैसा सवाल, ख़ुद से ख़ुद के जुड़ने का!

फिर ये कैसा सवाल, ख़ुद से टूटने का ख़ुद का!

क्या ये सवाल, ख़याल नहीं, फ़ज़ूल ख्वामख्वाह!

क्या ये सवाल बेमतलब ही नहीं, और बस बेवजह !

फिर क्या होता है, ये ख़ुद से टूटना या जुड़ना!

फिर होता है क्या, ख़ुदा से, जुदा होना, जुड़ना!

ख़याल जब तक है, तब तक ही है सवाल भी यह!

ख़याल ही है ख़ुद बेमतलब की उलझन बेवजह! 

बेख़याली में, हाँ ख़याल ख़ुद का भूल जाता है!

बेख़याली में, हाँ ख़याल ख़ुद को भूल जाता है!

बेख़याली भी इसलिए, पहचान नहीं है ख़ुद की!

डूबे रहना ख़यालों में भी नहीं मिसाल है इसकी!

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May 20, 2021

TOOL-KIT / टूलकिट!

सामयिक, 

कविता : 20-05-2021

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जानता हूँ, तूल-कीट !

तूलिका! या तू लिखित!

तू बता, क्यों है पुलकित!

तन्तुकीट, जन्तुकीट! 

उद्दण्ड, निर्लज्ज ढीठ! 

नष्ट कर तू जगत को, 

सच्चरित्रता को पीट! 

तूलिका तू रच रही, 

रंग-रूप, शुभ-अशुभ!

आकृतियाँ, संस्कृतियाँ,

यंत्रवत, विकृतियाँ भी!

करती रह मनचली!

जैसी भी चाहे अनुकृति!

तूल दे चिंगारी को,

भड़का दे अग्नि तू! 

प्रलयंकर!  फिर भी तू! 

अवश्य होगी पराजित!

ध्वंस के इस काल में, 

महामारी के व्याल में, 

अनहित में, अहित में भी, 

यद्यपि है तू सुपरहिट!

कर ले उत्पात तू! 

उपद्रव, विनाश तू!

किन्तु यह न भूलना! 

विषैले घुमन्तु कीट! 

अपने ही तन्तुओं में, 

हो जाता है बन्द,

जब आता है अन्त,

रेशमी, हे तन्तुकीट!

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May 19, 2021

एक दशक

शायद 2009 में नया एसेम्बल्ड डेस्कटॉप कंप्यूटर लिया था। 

मेरे बचपन से ही मेरे जीवन के बहुत कठिन, आसान या विचित्र मोड़ अनपेक्षित ढंग से अकस्मात् सामने आते रहे हैं, और मैं कभी सोच-समझकर, तो कभी अपनी आँखें बंद रखकर, सब कुछ होनी पर छोड़, उन मोड़ों से गुजरता रहा हूँ ।

मैं समझता हूँ कि अनेक बार मैंने किसी अज्ञात प्रेरणा से भी ऐसा किया है। कभी कभी जिद से, तो कभी कभी कौतूहल या खेल भावना से भी। 

यह बिल्कुल और बहुत संभव भी था कि ऐसे ही किसी मोड़ पर मेरी मृत्यु भी हो सकती थी। कहना न होगा कि किसी अज्ञात शक्ति ने ही मुझे अब तक मरने नहीं दिया। 

(यह तर्क इसलिए शायद गलत है कि हमें यह भी नहीं पता कि वस्तुतः मृत्यु 'किसकी' होती है! ईश्वर की ही तरह, मृत्यु को भी हम केवल मान्यता की ही तरह तो जानते हैं! अपनी मृत्यु को न तो कोई अनुभव कर सकता है, न कोई उसे बतला सकता है कि उसकी मृत्यु हो चुकी है, न ही इसकी कोई संभावना है कि वह किसी से ऐसा कह सकता है! हाँ, दूसरे किसी की मृत्यु के बारे में ऐसा अनुमान लगभग हर कोई लगाता है, किन्तु यह तो स्पष्ट है कि यह मृत्यु आभासी प्रकार की है, क्योंकि हमें नहीं पता कि जिसे हम मृत कहते हैं, उसका स्वयं का अनुभव क्या रहा होगा। इसलिए औपचारिक तौर पर शरीर के नष्ट हो जाने को ही मृत्यु मान लिया जाता है!)

सच्चाई जो भी हो, आभासी रूप से (मैं) अभी जी रहा हूँ, और (मेरी) स्मृति के आधार पर जीवन के 67 वर्ष व्यतीत कर चुका हूँ। पर सवाल यह भी है कि वर्ष का और समय का अस्तित्व भी, क्या केवल विचार पर ही अवलंबित नहीं होता? 

इस प्रकार क्या दशक भी स्मृति और विचार पर ही अवलंबित एक मान्यता मात्र नहीं है? परंतु हमारा पूरा जीवन ही स्मृतिगत  और स्मृतिजनित मान्यताओं का ताना-बाना है! हमारी खुशियाँ, उम्मीदें, डर, आकाँक्षाएँ, कल्पनाएँ, सपने, यहाँ तक कि अपनी 'निजता' जिसे 'मैं' कहा जाता है, उस 'मैं' की पहचान भी क्या स्मृति ही नहीं होती? स्पष्ट है कि स्मृति है तो ही पहचान है, और पहचान है, तो ही स्मृति है! फिर भी बुद्धि की त्रुटि से उन दोनों को भिन्न भिन्न मान लिया जाता है।  फिर भी यह कितना रोचक, आश्चर्यजनक और आवश्यक सत्य प्रतीत होता है!

स्मृति अर्थात् पहचान ही 'निजता' को, अर्थात् 'मैं' को बार बार परिभाषित, प्रायोजित, प्रक्षेपित और पुष्ट करती है, और यही पुनः उसे सातत्य / निरंतरता देती है! 

मस्तिष्क इसी निरंतर परिवर्तनशील कल्पित स्मृति का आधार लेकर 'स्व' (अस्मि / हूँ) की तरह एक आभासी स्वतंत्र जीवन /  अस्तित्व ग्रहण कर लेता है।

जिस दशक के बारे में यहाँ कहा जा रहा है, उस दशक में ही मेरा(?) विचारक्रम कुछ इसी प्रकार से गतिशील रहा।

इसी काल में, जैसा कि पहले उल्लेख किया, न जाने कौन सी शक्ति या विधि ने, किसने, या कौन से विधाता ने मेरे(?) जीवन को दिशा दी! अतः मन में प्रश्न उठा कि क्या वास्तव में जीवन किसी 'मैं' का स्वतंत्र अस्तित्व है, या केवल एकमात्र समष्टि अस्तित्व, indivisible one whole REALITY है?

प्रश्न यह भी है कि यदि जीवन से पृथक् और अन्य कुछ / कोई दूसरा है ही नहीं, तो जीवन को एकमेव अथवा एकमात्र भी कैसे कहा जा सकता है!

इसे देख लेने पर यदि कोई यह दावा करे कि मुझे जीवन क्या है, यह बोध प्राप्त हो गया है, तो क्या यह हास्यास्पद नहीं होगा!

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May 16, 2021

टकराहट!

वर्षों पहले जब बैंक में कार्य करता था तो मल्टी-टास्किंग शब्द का पता न होते हुए भी करता था। मल्टी-टास्किंग करना वैसे तो हमेशा से कमोबेश अलग अलग समय और स्थान पर हरेक की मज़बूरी होती है, लेकिन कुछ लोग इसे सफलता से कर पाने पर एक ओर तो सहकर्मियों के लिए ईर्ष्या करने का कारण बन बैठते हैं तो कुछ लोग एक सफल जोकर भी सिद्ध होते हैं! 

इसे दुर्भाग्य या सौभाग्य या विडम्बना, क्या कहें!

कभी कभी इसमें सफल होने का फल होता है स्प्लिट माउंड या खंडित मन, तो कभी कभी उससे बढ़कर यह सिज़ोफ़्रेनिया तक हो जाता है।

खंडित मन वस्तुतः मल्टी-टास्किंग की कला में निष्णात भी हो सकता है, किन्तु मनोविखण्डित (schizophrenia) मल्टी-टास्किंग कर सके कह नहीं सकते। शायद अलज़ाइमर इसकी ही अगली स्थिति होता होगा! 

एक वायलिन-वादक मल्टी-टास्किंग करता है, वैसे ही हर व्यक्ति प्रायः अनायास ही इस कार्य में दक्ष हो जाता है। 

यहाँ यह कहना प्रासंगिक होगा कि एक ओर तो इस प्रकार कोई अपने कार्य को अच्छी तरह पूरा  करता है तो दूसरी ओर आवश्यकताओं, रुचियों और बाध्यताओं की टकराहट उसे इस कार्य को एकाग्रता से कर पाने में बाधक हो जाती हैं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति से फोन पर बात करते समय किसी दूसरे व्यक्ति का अनपेक्षित आगमन,  जिससे ध्यान विचलित हो सकता है। कुछ कार्यकुशल (जैसे कि टेलिफोन-आपरेटर या कॉलसेन्टर पर कार्य करनेवाला) यद्यपि धैर्य से ऐसी परिस्थिति का सामना सफलतापूर्वक कर लेते हैं किन्तु इसकी कितनी बड़ी कीमत उन्हें चुकानी होती है यह तो बरसों बाद जब वे बूढ़े होने लगते हैं तब पता चलता होगा। 

इसलिए ऐसी स्थितियों को आवश्यकताओं की टकराहट, रुचियों की टकराहट या बाध्यताओं की टकराहट कहा जा सकता है। 

अंग्रेजी में :

Clash of necessities, 

Clash of interests, 

Clash of compulsions. 

दो दिन पूर्व शाम को खुली हवा में चहलकदमी करते हुए ऐसा ही कुछ महसूस हुआ ।

ठंडी हवा में चलते रहना बहुत अच्छा लग रहा था, मन हो रहा था कि घूमता ही रहूँ, भूख भी ऐसी तेज लग रही थी कि घूमना नहीं हो पा रहा था, और नींद भी ऐसी ही बहुत तेज आ रही थी। 

याद आए बैंक में कार्य करने के वे दिन जब सामने बैंक का कोई पेंडिंग कार्य होता था, चाहे वह कंप्यूटर का हो या दूसरा, नींद व  थकान भी आ रही होती, भूख भी लगी होती और अपने से बड़े अधिकारी सामने सिगरेट के क़श खींचते हुए काम कब पूरा होता है इसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करते होते।  क्योंकि हम सब साथ ही बैंक का काम पूरा होने पर घर जाते थे। 

मैं न तो सिगरेट पीता था,  न पाउच का सेवन करता था और थरमस में रखी चाय को पिए हुए भी दो घंटे हो चुके होते थे।  घड़ी का काँटा दस को पार कर चुका होता था। 

इसका एक बड़ा कारण यह था कि तब हमारे उस बैंक में 1988 के प्रारंभ में कंप्यूटर लगे ही थे, इसलिए एक ओर तो लेजर में एन्ट्री मैन्युअल भी होती थी और कंप्यूटर पर डिजिटली भी। 

स्पष्ट है कि कार्य का दोहराव  हो रहा था लेकिन कंप्यूटर कब ब्रेक डाउन हो जाए पक्का नहीं था। यह मल्टी-टास्किंग ही नहीं बल्कि कंपाउन्डेड मल्टी-टास्किंग ही था। 

पता नहीं इसे क्या कहा जाए! 

फिर भी उन दिनों जॉब सिक्योरिटी तो थी!

यह अलग बात है कि मुझे इस सब में कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती थी। मेरे अधिकारी और दूसरे कलीग सभी शादीशुदा थे,  और मुझे तो विवाह की व्यवस्था से ही चिढ़ थी। 

इसे कहते हैं आवश्यकताओंं की, रुचियों की, परिस्थितियों की, मज़बूरियों (बाध्यताओं) की टकराहट।

टकराहट ख़त्म होने पर राहत तो होती ही है,  वरना ज़िन्दगी सतत आहत और हताहत होती रहती है!

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मछलियाँ और मछुआरे!

कविता 15-05-2021

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मज़हब तो चारा है,

सियासत है बंसी,

जनता तो मछली है, 

तिजारत है काँटा!

ताजि़रात तो तरीका है,

मार्शीयत है मशीन, 

मरकरी से मार्स तक,

मार्केट से मार्शल तक,

आदमी दर आदमी, 

मारने का औजा़र!

किन्तु अब बदल गए,

शिकार के तरीके, 

अब बिछाते हैं जाल,

एक हिस्से को घेरकर, 

घेरते हैं बाक़ी हिस्से, 

और घिर जाती हैं,

जब मछलियाँ,

समेटते हैं जाल,

हर तरफ से!

***

शब्द-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र, युद्ध-शास्त्र, ज्योतिष-शास्त्र,

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May 15, 2021

सपने : समीक्षा

सुबह यह कविता लिखी थी। 

वैसे तो इसमें बहुत कुछ, जैसे कि ग्लानि, लोभ,  क्रोध, जन्म,  मृत्यु, द्वन्द्व इत्यादि बढ़ाया जा सकता है, किन्तु उससे कविता अनावश्यक रूप से बड़ी हो जाती है। 

कविता में जो दो पंक्तियाँ ऐसी बन पड़ी हैं वे :

"खुदा भी एक सपना है, 

खुद भी एक सपना है",

मुझे सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती हैं।

खुद का तात्पर्य है "मैं", जो हर दूसरी बात को इस काल्पनिक सत्ता के संबंध से पुनः पुनः परिभाषित करते हुए, अपने स्वतंत्र प्रतीत होनेवाले व्यक्ति के रूप में एक पृथक् अस्तित्व होने के भ्रम को उत्पन्न कर देता है।

यह भ्रम स्वयं सपने जैसा ही है और यदि प्रश्न पूछा जाए कि यह भ्रम / सपना किसे है? तो ऐसा कोई नहीं पाया जाता। 

न तो यह आत्मा का स्वप्न है, न परमात्मा या ईश्वर का ।

क्योंकि ये दोनों परस्पर अभिन्न और अनन्य एकमेव चेतना या चैतन्य मात्र हैं। 

इसे स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना शायद बेहतर होता! 

***


सपने!

कविता 15-05-2021

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पूरे कभी हों कि न हों सपने, 

तो कोई बात नहीं, 

सपने मगर फिर भी, 

हमेशा देखते रहिए ज़रूर !

ये भी क्या कम है, 

कि इसी बहाने से,

जिन्दगी तो गुजर जाएगी, 

शायद बेहतर, कुछ बेहतर!

डर भी एक सपना है,

उम्मीद भी एक सपना है,

कल भी एक सपना था, 

कल भी एक सपना है,

वहम भी एक सपना है, 

शक भी एक सपना है,

खुद भी एक सपना है,

खुदा भी एक सपना है, 

जन्नतो जहन्नुम, या कि फिर,  

पाप, पुण्य भी एक सपना है! 

सपने तो सभी पराए ही हैं,

इनमें से कौन सा अपना है! 

चले आते हैं नींद में सारे-सब, 

कहाँ से आते हैं, जाते हैं कब, 

उनींदा देख भी नहीं पाता है,

आके चले जाते हैं कैसे कब! 

जब तक कि सोया है कोई, 

नींद में, या कि नशे में कोई, 

सपने सभी बदस्तूर आते हैं,

डराने डरावने भी कभी कभी !

और तब नींद उचट जाती है,

करवटें बदलते बदलते ही, 

रात मुश्किल से बीत पाती है!

फिर भी आते हैं, कभी-कभी,

मदिर, रसीले या मधुर सपने,

इसलिए जागो मत सोनेवालों!

देखते रहो हमेशा सपने!!

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May 14, 2021

CHARLIE HEBDO

शॉर्ली हेब्दो 
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फ़्रान्स की इस कार्टून पत्रिका ने भारत के लोक-देवताओं का मजाक उड़ाते हुए पूछा है :
"कहाँ है वे 3.3 मिलियन देवी-देवता जिनकी पूजा भारतीय करते हैं?"
यह तो स्पष्ट है कि इन पत्रकारों, मीडिया, माध्यम या पैपराजी papperaji को न तो भारतीय परंपराओं, धर्म (मजहब या  religion नहीं,  tradition) के बारे में पता या समझ है, न उन आधिदैविक शक्तियों के बारे में, जिनकी पूजा, उपासना और आराधना भारत के लोग हजारों वर्षों से करते आ रहे हैं। 
स्कन्द-पुराण के अनुसार ये देवता, जो "अदिति" के पुत्र हैं, कुल 33 "कोटि" के होते हैं (33 करोड़ नहीं!) और इनका वर्गीकरण जिस प्रकार से किया जाता है उसे "वर्णों की मातृका" (matrix of letters) कहा जाता है।
यह देखना भी रोचक होगा कि इसी 'मातृका' शब्द का सजात,  सजाति, सज्ञात, (cognate) शब्द है 'matrix' भी!
'श्रीलिपि', जिसके आधार पर जिस व्यक्ति ने रूसी (Russian / ऋषि) लिपि का आरंभ किया, वास्तव में वही 'शारदा' अर्थात् सरस्वती ही है, जो पुनः पर्यायतः 'ब्राह्मी' ही है। ब्राह्मी का प्रयोजन लौकिक है जबकि देवनागरी या नागरी का प्रयोजन आधिदैविक है। इसलिए रूसी (जो वैसे भी 'ऋषि' का सजात / सजाति / cognate) है, बहुत संभव है कि इस लिपि को रूसी भाषा के लिए अपनानेवाले उस व्यक्ति (जिसे 'सेन्ट' की उपाधि से विभूषित किया गया था), का नाम 'श्रीलिपि' से, 'सिरिल' / 'Cyril' हुआ हो। 'सेन्ट' / saint  तो स्पष्ट ही संस्कृत संत का अपभ्रंश हे, क्योंकि संस्कृत शब्द की उत्पत्ति का आधार अत्यंत दृढ है, जो कि शब्द के अर्थ को भी स्पष्ट करता है ।
यह सब संयोग नहीं है।
इन 33 वर्णों की मातृका (माता या जननी) होने से ही अदिति को 12 आदित्यों या देवताओं की माता कहा गया। 
संस्कृत व्याकरण का ध्वनिशास्त्र ही सभी वैदिक या अन्य मंत्रों का शास्त्र है। 
वर्ण, जो वाणी का व्यक्त रूप है, मूलतः ध्वन्यात्मक / स्वनिम  (phonetic) होने से प्राण और रयि का संयोग है। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो किसी भी मानव या अन्य भी किसी प्राणी द्वारा उच्चारित शब्द में प्राण अर्थात् कंपन (vibration) और चेतना (consciousness) का संयोग (combination) होता है। इस पूरे दर्शन में किसी अवैज्ञानिक मान्यता के लिए कोई स्थान नहीं है। 
जैसे जैसे भारत का तथाकथित "वैज्ञानिक" विकास हुआ, वैसे वैसे जो भी "भारतीय" है, उसे बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट किया गया।
आयुर्वेद, संगीत, कला, संस्कृति, आदि सभी क्षेत्रों को इतना अधिक अपमानित और निन्दित किया गया और 'धर्म' कहकर पाश्चात्य परंपराओं को इतना महिमामंडित किया गया कि आज हम भारतीय भी उन अर्थहीन परंपराओं को गर्वपूर्वक अपनाने लगे हैं।
जहाँ तक देवताओं का मजाक उड़ाने का प्रश्न है, वैदिक और पौराणिक सभी देवता इससे यदि अपमानित अनुभव करते हों, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात होगी? 
देवमन्दिरों, देवमूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करना, वैश्विक स्तर पर पूरी धरती को प्रभावित करता है। 
पिछले 2000 वर्षों से संपूर्ण पाश्चात्य वैचारिकता ने यही किया है। न केवल हिन्दू, बल्कि जैन और बौद्ध मंदिरोंत को भी तोड़ा, लूटा, तथा जलाया जाता रहा है। 
सभी वायरस और बैक्टीरिया 'जीव' अर्थात् 'देवता-तत्व' हैं। 
(एक प्रमुख कारण / प्रमाण यह, कि वे अपने वंश का विस्तार करते हैं, जो जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है।)
विभिन्न रेडियो तरंगें उन्हें न केवल प्रभावित करती हैं बल्कि उनमें जैविकीय रूपन्तरण (mutation) भी घटित करती हैं।
वे चाहे G, 2G, 3G, 4G, या 5G ही क्यों न हो! 
यह आधिदैविक स्तर की गूढ गतिविधि है। 
कोरोना का वायरस इस दृष्टि से इसका अत्यन्त प्रामाणिक (prominent) और प्रत्यक्ष उदाहरण है। 
हम कितने भी प्रयास कर लें, इससे लड़ ही नहीं सकते, और विजयी तो कदापि नहीं हो सकते!
कोरोना से युद्ध करने का विचार ही भ्रमपूर्ण और त्रुटिपूर्ण है।
कोरोना तो एक वायरस है, ऐसे अनेक वायरस ओर बैक्टीरिया हैं, जो हमारी वैज्ञानिक हठधर्मिता और दंभ (hype) की पोल खोलते हैं।
'वायरस' और 'बैक्टिरिया भी मूलतः संस्कृत भाषा के शब्द, क्रमशः 'वीर्यस्' और 'वसतिः ईय' के व्युत्पन्न हैं। मैं यहाँ इसके अधिक विस्तार में नहीं जाऊँगा। 
यदि पूरी मनुष्य जाति भी कोरोना से समाप्त हो जाती है तो यह  दुःखद भले ही हो, इसमें आश्चर्यजनक तो कुछ नहीं  होगा।

***

May 13, 2021

यह नौका!



कविता 13-05-2021

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यह नौका किस सागर में है, 

यह सागर किस धरती पर है, 

यह धरती किस दुनिया में है, 

यह दुनिया किसके दिल में है?

यह दिल ही क्या वह नौका है, 

जिसका नहीं कोई खेवनहार,

यह दिल ही क्या वह नौका है, 

मुसाफिर जिसमें नही सवार,

यह दिल ही क्या वह नौका है,

नहीं है जिसमें कोई पतवार,

यह दिल ही क्या वह नौका है,

जिसे सब कहते हैं संसार?

इसको मगर बनाया किसने?

क्या वह दुनिया में रहता है, 

क्या वह सागर में रहता है,

क्या वह धरती पर रहता है,

क्या वह हर दिल में रहता है! 

दिल में रहता है तो वह क्या है, 

क्या वह इंसाँ या कि फ़रिश्ता है!

क्या वह दर्द का रिश्ता है?

यह रिश्ता क्या कहलाता है, 

जो बातों से बहलाता है, 

जो कहीं न आता जाता है,

फिर भी नौका कहलाता है! 

इस कोने से उस कोने तक, 

धरती, चन्दा, सूरज होने तक,

तारों के उगने-सोने तक,

धरती पर हर दिन फैला रहता, 

यह रस्ता जो आता जाता है!

क्या जीवन ही यह नौका है, 

क्या नौका ही यह जीवन है! 

कोई तो बतलाए यह राज, 

कोई तो बतलाए यह आज! 

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अहंकार

संवेदनशीलता 

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(feature@jagran.com) 

पर, आज के नई दुनिया (इन्दौर) में पढा़ :

"अपनी राय से हमें अवश्य अवगत करायें।"

अनायास मन हुआ, तो यह लिखा :

अहंकार को बनाए रखकर संसार की सेवा करना अर्थात् कोई मिशन आदि लेकर कार्य करना, और कंदराओं में जाकर सत्य या भगवान की खोज करना, समान है। 

अनायास प्राप्त हुए आवश्यक कर्तव्य-कर्म को निष्काम भाव से करते रहना ही सदैव रहनेवाली मानसिक शान्ति का एकमात्र मार्ग है। 

तो प्रश्न यह नहीं है कि अहंकार को कैसे दूर अथवा कम किया जा सकता है, या कैसे मिटाया जा सकता है! मजेदार बात यह है कि ऐसा प्रयास भी स्वयं इस अहंकार की ही गतिविधि होता है, और इस प्रकार से अहंकार छिपा रहकर भी लगातार अस्तित्व-मान रहता है। 

असंवेदनशीलता ही अहंकार है। 

संवेदनशीलता होना ही अहंकार का निवारण है। संवेदनशीलता अभ्यास से नहीं, जागरूकता से अस्तित्व में आती है।

यदि संवेदनशीलता है, तो जीवन जैसा भी हमारे समक्ष है, उसे अनायास ही यथोचित प्रत्युत्तर दिया जाता है। 

***

धरती पर!

अलकेमी 

कविता 13-05-2021

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बिखेर देता था बीजों को,

नम, सूखी, गीली, धरती पर,

बंजर, कंकरीली, पथरीली, 

रेतीली, बर्फीली, परती पर,

बीजों को यूँ ही बिखेरता,

धरती के ही आँचल में,

थककर एक दिन सो गया,

अम्बर की चादर ओढ़े,

इस मिट्टी में ही खो गया!

पता नहीं युग युग कितने

सोता ही रहा बीज बनकर,

इक दिन फिर बरसे बादल,

जागा, चौंका वह क्षण भर! 

सोंधी सोंधी सी महक उठी,

धरती को चीन्ह नहीं पाया,

चारों ओर घना जंगल था, 

हरियाली का फैला साया! 

उसने सोचा, मरकर भी,

आखिर को उसने क्या खोया?

हाँ नए सिरे से फिर जीवन को, 

जीने का अवसर ही पाया! 

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May 12, 2021

मन जाने या ना जाने!

कविता -- रिश्ता यही है सच्चा!

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मुर्गी़ का जो चूजे़ से रिश्ता, 

चूजे़ से जो मुर्गी़ का रिश्ता,

वही है मन से मन का रिश्ता, 

मन जाने या ना जाने!

एक है चूजा़, मुर्गी है एक, 

मुर्गी है एक, एक है चूज़ा,

मन को भी, जो मन जाने,

क्या एक ऐसा, मन कोई दूजा!

कौन है चूज़ा, मुर्गी है कौन, 

मुर्गी है कौन, चूज़ा है कौन! 

दूजा है कौन, पहला है कौन!

पहला है कौन, है दूजा कौन! 

अण्डा था पहले या मुर्गी? 

मुर्गी़ थी पहले, या अण्डा! 

चूज़ा था पहले, या थी मुर्गी़! 

मुर्गी़ थी पहले,  या था चूज़ा! 

चूज़ा भी पहले, था मुर्गी,

मुर्ग़ी भी पहले, थी चूज़ा! 

जो भी था पहले, अब भी वही है,

एक वही जो था, मुर्ग़ी या चूज़ा! 

सवाल में है, क्या कोई ख़ामी?

या फिर है क्या, कोई ग़लतफ़हमी?

तमाम आलिम फ़ाजि़ ल उलझे, 

फिल्मी, चिल्मी या हों इल्मी!

सवाल कोई भी हो उसका, 

हो सकता है जवाब तभी, 

सवाल ग़लत भी ना हो पर,

साथ ही हो वो सवाल सही!

सवाल कोई करने के लिए, 

ज़रूरी है होना, अक्ल जितना!

दुरुस्त होना भी अक्ल का,

ज़रूरी ही है लेकिन उतना! 

फिर क्यों भटकता है इंसाँ,

हज़ारों ग़लत सवालों में! 

क्यों ढूँढता है कोई जवाब, 

किताबों और हवालों में! 

खुद से ही क्यों नहीं पूछ लेता,

कि सवाल कितना मुनासिब है? 

यह पूछनेवाली अक्ल है क्या, 

और मन भी कितना वाजिब है!

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May 10, 2021

किसी दिन!

कविता 10-05-2021

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हम तुम्हें भूल जाएँगे, किसी दिन, 

ये न हमने सोचा था, किसी दिन! 

आज तुमने याद जो, हमको दिलाया,

हाँ हमें यूँ याद आया था, किसी दिन!

याद क्या है, क्या नहीं, क्यूँ याद करना, 

वक्त को क्यूँ इस तरह बरबाद करना,

क्यूँ भला करते रहें हम ज़िन्दगी भर,

क्यूँ परेशां ही रहें हम ज़िन्दगी भर,

यादें जब सारी हम अपनी भूल जाएँगे,

चैन तब पाएँगे शायद, हम किसी दिन!

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हादसा नया

कविता 10-05-2021

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हर दिन ही होता है, कोई हादसा नया,

नहीं है मुमकिन, पहले से करना बयाँ!

लोग तो अब यह भी हैं कहने लगे,

दुःख का ही है कारण, करना दया!

अब नहीं किसी को है शर्म या लिहाज,

न तो रह गई मुरव्वत और न रही हया!

मौत तो अब तक, हमेशा ही रही,

आजकल है, ज़िन्दगी भी बेहया!

लोग आते और जाते भी रहे,

अब मगर इंसान का जमीर भी गया! 

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May 08, 2021

जीवन एक रहस्य

कविता 08-05-2021

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वे पूछते हैं,

जीवन कहाँ से आया? 

इस धरती पर जीवन का उद्भव, 

कैसे हुआ? 

क्या किसी सुदूर की मंदाकिनी से, 

किसी नीहारिका में स्थित,

किसी पिण्ड से? 

वे यह नहीं पूछते कि, 

उस सुदूर नक्षत्र या ग्रह पर,

जीवन कहाँ से आया?

कैसे उद्भव हुआ होगा, 

वहाँ पर जीवन का? 

वे यह भी नहीं पूछते कि,

क्या उद्भव से पहले, 

जीवन नहीं था?

क्या जीवन का उद्भव हुआ, 

या जीवन की अभिव्यक्ति हुई! 

जो जीवन बीज था, 

वही अंकुरित हुआ, 

जो अंकुरित हुआ, 

वही पल्लवित पुष्पित हुआ, 

जो पल्लवित पुष्पित हुआ, 

वही फलित हुआ, 

जो फलित हुआ, 

वही बीज का अधिष्ठान था! 

जो अधिष्ठान था, 

वही बीज में सुषुप्त हुआ, 

जो सुषुप्त हुआ, 

वही पुनः जागृत हुआ। 

वही पुनः अंकुरित हुआ! 

और वही पुनः, 

अभिव्यक्त हुआ! 

क्या उसकी ही क्रीडा,

काल और स्थान, 

दिक्काल नहीं है? 

क्या कोई ऐसा समय था, 

जब काल नहीं था? 

नहीं है और नहीं होगा? 

क्या कोई ऐसा स्थान है, 

जहाँ काल नहीं है! 

क्या कोई ऐसा काल है, 

जहाँ स्थान नहीं है! 

फिर जीवन क्या है? 

क्या वह सर्वत्र और सदैव नहीं है!

जो काल और स्थान से स्वतंत्र है!

क्या फिर उसका आगमन,

कहीं और से हुआ होगा!

क्या फिर उसका उद्भव, 

किसी स्थान पर हुआ होगा! 

क्या फिर उसका अस्तित्व, 

किसी काल से पहले नहीं था! 

तब जो नहीं था,

क्या वह काल और स्थान की,

परस्पर प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ! 

क्या काल और स्थान,

जो नहीं है, 

उसे अस्तित्व में ला सकते हैं! 

या, इसके विपरीत क्रम में,

वही, जो सदा और सर्वत्र और,

सचेतन और प्राणमय है,

काल और स्थान, 

द्रव्य और ऊर्जा का, 

एकमात्र कारण और जनक नहीं है! 

फिर जीवन का उद्भव, 

किसी कल और स्थान पर हुआ, 

ऐसा कहना ही, 

मूलतः त्रुटिपूर्ण नहीं है! 

फिर,  क्या कोई जब पिण्ड,

मशीन, रोबोट या कंप्यूटर,

ऐसा कहता या पूछता है! 

कैसे जानोगे या पता लगाओगे उसका! 

क्या जाननेवाला, या पता लगानेवाला,

स्वयं ही जीवन नहीं है! 

***

इसलिए जीवन एक रहस्य है!

जो सदा रहस्य ही रहता है!

एक रहस्य अद्भुत्, अवर्णनीय, अनिर्वचनीय!

ज्ञात-अज्ञात से अछूता और परे,

बोध-मात्र! 

मधुर, मदिर, चिरन्तन, नित-नूतन, सद्यसनातन!

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May 05, 2021

काल करे सो आज कर!

कविता : 05-05-2021

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आग लगने पर चले हैं खोदने कुआँ हम, 

नहीं है मालूम यह, पानी होगा कहाँ मगर!

आजकल बोरिंग करना भी बहुत आसान है,

हाँ समस्या यह है  -भूजल उतरता जा रहा!

फिर भी जाहिर है, कुछ तो करना ही होगा,

हाथ पर धर हाथ यूँ, क्या बैठे रहना होगा!

है चुनौती कठिन, लेकिन यह समझना होगा,

हर क़दम संभल संभल, करके चलना होगा!

वक्त की साजिश को, पहचान लेते वक्त पर,

आज ना यह वक्त आता, लेने हमारा इम्तहाँ!

कुछ लोग हैं जिनके लिए, हर रोज जीना है यही,

रोज ही खोदो कुआँ और बुझाओ प्यास रोज !

पर मगर कुछ और हैं जिनकी आशा कुछ और है,

कल की चिन्ता, आज का भय, और स्वप्न भविष्य के!

देह की ज़रूरतें तो फिर भी हैं मर्यादित सीमित,

लालसाएँ, वासनाएँ, मन की असीमित अपरिमित!

और वह भविष्य भी कितना अनिश्चित अपरिचित,

भूमि जिसकी अनुर्वर, अस्थिर, अति-चंचल प्रकंपित! 

मानव-मन फिर भी लेकिन, बोता है भविष्य के सपने, 

काटता है वह सुख कभी, तरसता कभी दुर्भिक्ष से!

तन-मन का यह द्वन्द्व मगर आख़िर किसमें होता है, 

कोई नहीं समझ पाता कि जागता है या सोता है! 

एक उनींदी तन्द्रा में, जीवन सारा कट जाता है,

राज़ इसका कभी लेकिन, कोई, जान समझ जाता है।

अकसर तो हर मानव ही जीता रहता इस तन्द्रा में,

जैसे खोया सपनों में कोई मनुष्य ज्यों निद्रा में। 

निद्रा ही उसका धर्म-अधर्म, निद्रा ही उसका कर्म, 

निद्रा ही जीवन का चरम, निद्रा ही जीवन परम! 

कैसे कोई जागे इस निद्रा से, और जगाए कौन उसे,

वह खुद भी आख़िर क्यों जागे, यह बतलाए कौन उसे!

निद्रा जो निशा, नशा है, निद्रा जो मोह-निशा है,

निद्रा जो सुख है नित्य सुखद, निद्रा जो चित्त-दशा है! 

यह चित्त स्वयं ही दशा है, या फिर यह अनित्य दिशा है,

यह प्रश्न चित्त में उठे अगर, तो समझो ईश-कृपा है।

वह दर्पण जिसमें चित्त प्रकाशित, लेकिन जो चित्त नहीं है,

जो प्रकाश करता आलोकित, लेकिन जो चित्र नहीं है,

जो दर्शन, दृग, दृष्टा नहीं,  फिर भी सभी वही है,

जो उसको जाने, वह उससे, लेकिन विभक्त नहीं है,

उसमें जो लेकिन नित्य बसे, जो उसमें लेकिन नित्य बसे,

वह नित्य जागनेवाला जो,  क्या सोए वह क्या जागे! 

य एष सुप्तेषु जागर्ति,  य एषु सुप्तेषु जागर्ति च। 

को विजानाति तं देवं यो विजानाति इति सर्वम्।। 

***


 






 







तसवीर : यह पहलू!

कविता 05-05-2021

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न चौखट बदल रही है,

न तसवीर बदल रही है,

जिन्दगी आजकल कुछ,

यूँ ही गुजर रही है!

तसवीर पर हर रोज़ ही,

नजरें भी पड़ रही हैं,

कोई नहीं बदलता,

बस धूल चढ़ रही है!

कुछ लोग हैं ऐसे भी,

हर रोज़ बदलते हैं, 

हर रोज़ बनाते हैं, 

तसवीर नई कोई! 

हर रोज़ सजाते हैं, 

फ्रेम नई कोई!

जीवन के वे चितेरे,

वे खुद ही तो हैं जीवन,

जो पूजा कर रहा वह,

क्या जानेगा पुजारी!

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(स्व. प्रभु जोशी की स्मृति में, और उन्हें ही समर्पित) 

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May 04, 2021

अंत और प्रारंभ

कविता  :

04-05-2021

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धीरे धीरे खोएगा वक्त,

या फिर पलक झपकते! 

धीरे धीरे आएगा अंत,

या फिर फ़लक टपकते!

धीरे धीरे गिर जाएगा, 

या फिर लेकर वक्त !

कैसा कितना होगा वह,

कोमल होगा या सख्त! 

आसमान गिर जाए तो,

क्या धरती फिर टूटेगी! 

धरती अगर टूट भी जाए,

फिर टूटेगा आसमान भी!

क्या तब जहाँ रहेगा, 

जब भी ऐसा होगा,

इंतजार मुझको है,

जब भी ऐसा होगा!

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संबंध और संपर्क

RELATION AND RELATIONSHIP. 

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संबंध का अर्थ है सातत्य, निरंतरता ।

संबंध मूलतः दो प्रकार का होता है :

लक्ष्यकेन्द्रित (Target oriented) और प्रक्रियाकेन्द्रित (function-oriented).

संबंध इस दृष्टि से पुनः तीन प्रकारों से बाँटा जा सकता है :

व्यापारिक (commercial), व्यावसायिक (professional) और व्यावहारिक (behavioral) 

संबंध किसी आवश्यकता के साथ और उसकी पूर्ति के लिए पैदा होता है या किसी प्रक्रिया का एक अंग होता है।

लक्ष्यकेन्द्रित संबंध सदैव अपने प्रयोजन तक सीमित होता है और प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर समाप्त हो जाता है। मूलतः तो  इसमें भावना या भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं होता, किन्तु भावना या भावुकता के आवरण में संशय, अनिश्चय और संदेह ही संबंध को परिभाषित, विघटित और दूषित करते रहते हैं। 

व्यापारिक,  व्यावसायिक और व्यावहारिक तीनों ही प्रकार के संबंध वैसे तो तात्कालिक होते हैं, किन्तु समय अर्थात् भविष्य की आशा तथा आशंका, या अतीत के अनुभव(रूपी) ज्ञान के संदर्भ में वर्तमान को परिभाषित करते रहना तीनों प्रकार के संबंधों को पुनरावृत्ति-परक बना देता है इसलिए सभी संबंध समय के साथ दुहराव-युक्त आवश्यकता होकर या तो यंत्रवत जड, नीरस और उबाऊ हो जाते हैं, या किसी बाध्यता के कारण उन्हें ढोया जाता है। इसे शायद आदर्श, कर्तव्य या नैतिकता या धर्म भी कहकर यद्यपि सतत ढोया जाता है, और ऐसा न कर पाने पर प्रायः ग्लानि, अपमान या अपराध-बोध भी पैदा हो सकता है। स्पष्ट है कि ऐसी ग्लानि, अपमान, या अपराध-बोध भावनात्मक प्रतिक्रिया, डर, निराशा आदि पर ही निर्भर होता है। इस प्रकार जीवन असंतोष की एक अंतहीन श्रृंखला बन जाता है, जिसमें नये संबंधों की ताज़ा हवा आते रहने से उसी मात्रा में ताज़गी और चैतन्य, प्राण और उत्साह भी जागृत होते रहते हैं, किन्तु अतीत के संबंध और उनके दोहराव की समाप्ति होने तक जीवन में असंतुष्टि पीछा नहीं छोड़ती। 

किसी तरह के नशे में डूबे रहकर मनुष्य अपने जीवन में क्षणिक रूप से आभासी सुख की अनुभूति भी कर लेता है, उसका आदी (addict) भी हो जाता है, जो उसका भ्रम ही होता है। यह नशा सफलता, आदर्श या कर्तव्य जैसा प्रशंसनीय, या शराब, धन, यश और कीर्ति जैसा शुद्धतः भौतिक भी हो सकता है।

लेकिन यह समस्या मनुष्य को ही अधिक पीड़ित करती है।

दूसरे 'अविकसित' बुद्धियुक्त पशु, पक्षी आदि जीव 'समय' को उस तरह से काल्पनिक अतीत और अनुमानित भविष्य के रूप में इतनी दूर तक देख पाने में शायद ही सक्षम होते हों, जैसा कि प्रत्येक 'विकसित' बुद्धिवाला मनुष्य हुआ करता है!

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May 02, 2021

अपनी जगह!

दोस्ती अपनी जगह, 

दुश्मनी अपनी जगह! 

बेचैनियाँ अपनी जगह,

चैनो-सुकूँ अपनी जगह! 

रूहो-जहाँ अपनी जगह,

दिल जिगर, अपनी जगह! 

क़ोशिशें अपनी जगह,

नाक़ामियाँ अपनी जगह!

हर एक शै अपनी जगह,

ज़िन्दगी अपनी जगह!

सज़दे, खुदा अपनी जगह,

बन्दगी अपनी जगह!

हर शख्स ढूँढता है यहाँ,  

है कौन सी मेरी जगह!

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सब खो जाए!

कविता 02-05-2021

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अच्छा है सब खो जाए, 

आखिर तो खोना ही है, 

अच्छा है वह सब हो जाए, 

जो तय है, जो होना है,

क्या जग मैंने पाया था, 

या जग ने पाया मुझको, 

अच्छा है जग मिट जाए,

आख़िर तो मिट ही जाना है!

जो मिटता है, बनता है,

जो बनता है, मिटता है,

मिटने-बनने वाला जग,

मेरा क्या होनेवाला है!

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May 01, 2021

वह अतीत,

कविता / 01-05-2021

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हाँ,  बीत गया,  वह अतीत, 

जो स्वप्न था अभी तक, 

जो होता था सत्य प्रतीत!

स्वप्न भी, स्मृति ही तो था,

स्मृति भी, स्वप्न ही तो है,

और निर्मित हुई थी, 

'पहचान' जिससे! 

'पहचान' भी, स्वप्न ही तो थी, 

'पहचान' भी, स्मृति ही तो थी,

'पहचान' भी, अतीत ही तो था,

अतीत भी, स्मृति ही तो थी!

अतीत भी, स्वप्न ही तो था! 

स्वप्न भी, अतीत ही तो था!

अतीत भी, अनुभव ही था,

अनुभव भी, स्वप्न ही तो था,

स्वप्न भी, अनुभूति ही, 

अनुभव भी,  प्रतीति ही! 

एक ही प्रतीति, -छवियाँ अनेक! 

बीत गई वह प्रतीति भी! 

पर नहीं बीता 'मैं'! 

मैं अब भी वही हूँ, 

मैं अब भी वहीं हूँ, 

'पहचान' से, स्मृति से, प्रतीति से,

स्वप्न से, अनुभव से, अतीत से!

अनुभूति से परे! 

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