जुड़ाव
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जीवन रचनात्मकता (creativity) है ।
किसी भी परिस्थिति में, किसी भी तल पर, किसी भी रूप में। हर जीवित वस्तु में यह रचनात्मकता स्वयंस्फूर्त होती है, और वस्तु-विशेष की प्रकृति, आकृति तथा अनुकृति से सतत व्यक्त होती रहती है।
रचनात्मकता अर्थात् उपाय, रीति या युक्ति।
जैसे भगत और भगति भक्त तथा भक्ति के अपभ्रंश हैं, वैसे ही जुगत, युक्त और युक्ति का, जो लोकभाषा में ढलकर 'जुगाड़' हो गया !
इसी प्रकार 'बिगाड़' शब्द, विघटन का ही अपभ्रंश है। इसलिए रचनात्मकता / सृजनात्मकता या creativity एक स्वाभाविक प्राकृतिक गतिविधि है।
जब तक इस रचनात्मकता को अवसर, अनुकूल परिस्थितियाँ और प्रोत्साहन आदि प्राप्त होते रहते हैं, यह सतत समृद्ध होती रहती है। जब इसे ऐसे अवसर, एवं अनुकूल परिस्थितियाँ आदि नहीं मिलते, या इसका मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, केवल तभी यह विघटित होने लगती है अर्थात् विनाशशील, विनाशकारी होकर 'बिगाड़' का रूप ले लेती है।
जीवन ऊर्जा है और ऊर्जा सकारात्मक होती है या नकारात्मक। ऊर्जा शून्य नहीं होती। यह सृजनात्मक या ध्वंसात्मक ही होती है। पॉज़िटिव या निगेटिव होती है।
जीवन में जब किसी अवसर को चुनौती की तरह स्वीकार किया जाता है, तो जीवनरूपी यह ऊर्जा अपने चरम सामर्थ्य पर पहुँच जाती है।
किन्तु निराशा, भय, आलस्य, आत्मविश्वास की कमी, संशय आदि या अविवेकयुक्त लोभ के कारण यह नकारात्मक अथवा शून्य होने लगती है।
ऐसी स्थिति आ जाने पर उचित और अनुकूल समय आने की प्रतीक्षा कर सकने को भी एक चुनौती की तरह लिया जा सकता है, और इसका उपयुक्त तरीके से सामना करना भी युक्तिपूर्वक किया जानेवाला 'जुगाड़' हो जाता है। चुनौती को इस प्रकार से सम्यक् उत्तर दिया जाना ही प्रसन्नता में फलित हो जाता है।
किन्तु जब कोई, जीवन को उपयोग या अवसर की तरह देख पाने में अक्षम होता है, या समाज उसे ऐसा बना देता है, तो वह नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है। तब नकारात्मक उत्तेजना, छिछले कौतूहल, तात्कालिक सफलता और सक्रियता को ही जीवन की कसौटी मान बैठता है,और उसकी स्वाभाविक प्रतिभा (talent), सृजनात्मकता कुंठित होने लगती है। किसी आदर्श से प्रेरित, प्रभावित, अभिभूत (infatuated) होकर कोई हिंसा को भी परिवर्तन का माध्यम समझने लग सकता है। यह आदर्श और इससे जुड़ी उत्तेजना, सफलता, सक्रियता, पाखंड, दंभ में गौरव भी अनुभव किया जा सकता है, और उस आदर्श को इतना महिमामंडित भी किया जा सकता है, कि उसके लिए प्राणों का बलिदान देना भी पावन और परम कर्तव्य प्रतीत हो सकता है। किन्तु इस सबसे उत्पन्न विनाशकारी परिणाम से सारे विश्व को ही क्षति उठानी पड़ती है।
ऐसा ही एक उदाहरण है :
"राष्ट्रवाद"
यही "राष्ट्रवाद" मनुष्यमात्र में समानता, स्वतंत्रता की स्फूर्ति भी पैदा करता है, किन्तु जब किसी विशेष राजनीतिक विचार से नियंत्रित होकर किसी भाषा, वर्ग, समुदाय आदि से संबद्ध हो जाता है और उसी दायरे और संदर्भ में वर्तमान का अवलोकन करता है, तो मनुष्यों के बीच परस्पर घृणा, ईर्ष्या, प्रतिद्वन्द्विता, उग्रता तथा हिंसा का 'जुगाड़' हो जाता है। यही 'जुगाड़' तब जुड़ाव या सौहार्द की बजाय विनाशकारी बिखराव, 'बिगाड़' हो जाता है।
समुदाय भी पुनः युक्ति, उपाय के रूप में 'जुगाड़' होता है। वही, लोभ, आधिपत्य, ईर्ष्या, नासमझी के कारण दूसरे समुदायों के विरोध में खड़ा होकर हिंसा और उग्रता के आवेग से ग्रस्त होकर अपने ही द्वारा तय किए आदर्श को कट्टरता की अति तक ले जाने का कारण, अर्थात् 'बिगाड़' का प्रारंभ है। युक्ति ही सबके लिए कल्याणकारी आधारभूत तर्क हो सकता है। यह तर्क किसी आदर्श की अपेक्षा न करते हुए भी सर्वोत्तम सामञ्जस्य भी हो सकता है।
जीवन की विविध चुनौतियों का सामना वैयक्तिक या सामूहिक रूप से भी क्षण-प्रतिक्षण किया जाना होता है। शुरू में कोई विश्वास या आस्था, कामचलाऊ अवधारणा यद्यपि सहायक हो सकती है, किन्तु यही जब रूढ़ि, परिपाटी, परंपरा या रिवाज की तरह दुराग्रह बन जाती है तो अपने-आप, और दूसरों के भी लिए अहित का साधन, 'जुगाड़' हो सकती है।
भय, चिन्ता, सुरक्षा और असुरक्षा आदि की भावनाओं को भी सकारात्मक या नकारात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है। भय और चिन्ता सकारात्मक दृष्टि से सावधानी रखने के लिए संकेत समझे जा सकते हैं और धैर्य की परीक्षा लेते हैं, जबकि इनसे घबरा जाने पर वे ही नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
प्रेम अर्थात् संवेदनशीलता ही सकारात्मकता व नकारात्मकता की एकमात्र कसौटी है। प्रेम / संवेदनशीलता के अभाव में यही नकारात्मकता मनुष्यों और समुदायों के बीच परस्पर संघर्ष का कारण हो जाती है।
संवेदनशीलता भी प्रथमतः और मौलिक रूप से तो अपने आप से ही प्रेम का द्योतक लक्षण होता है, और जाने-अनजाने भी हर व्यक्ति और छोटे से छोटा या बड़े से बड़ा प्राणी भी अपने आप के ही प्रति वैसे भी सर्वाधिक संवेदनशील होता ही है, या अपने आप से ही सर्वाधिक प्रेम करता है । इसी प्रेम या संवेदनशीलता से प्रेरित होकर आत्म-रक्षा और आत्म-संतुष्टि, आत्म-तृप्ति और आत्म-पुष्टि में हर कोई अनायास ही प्रवृत्त भी होता है।
यह तो संवेदनशीलता अर्थात् प्रेम की संकीर्णता या विस्तार ही है जिसमें इस आत्म / स्व को केवल एक शरीर-विशेष तक बद्ध कर लिया जाता है, या इसमें संपूर्ण जड-चेतन, अस्तित्व को ही शामिल कर लिया जाता है ।
विघटन या 'बिगाड़' चूँकि नकारात्मक होता है, इसलिए सदैव अभावात्मक रिक्तता मात्र होता है। इसलिए इस नकारात्मकता से न तो युद्ध किया जा सकता है, न इसे मिटाया जा सकता है। अतः इससे संघर्ष का विचार ही निरर्थक है।
मनुष्य की सामूहिक और वैयक्तिक चेतना :
(personal and collective consciousness)
इसी सकारात्मकता और नकारात्मकता की क्रीडा है।
इसलिए समाज या पूरी मनुष्यता के लिए ऐसा कोई सुनिश्चित तरीका नहीं हो सकता, जिसे पूरे विश्व पर थोपा जा सके!
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