कविता : 27-08-2021
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काबुल
आग भी कैसी अजीब सी आग है यह,
ठीक से जलती भी नहीं, बुझती भी नहीं ,
बस धुआँ-धुआँ हो रही है, अधसुलगी सी,
न फैलती है, न सिमटती है, न बिखरी है,
घास भी तो है गीली, और जमीं भी नम है,
हवा बस ठहरी सी हुई है, उदास है मौसम।
साँस आती, जाती भी नहीं, रूह बेचैन,
दिल है ग़मग़ीन, घुटता जा रहा है दम।
ये आग किसने लगाई है, किसकी लगाई है,
न जल भी रही है शिद्दत से, न बुझ रही है।
अनबुझे अधजली सीली हुई सिगरेट जैसी,
काश बुझ ही जाती, या कि जल ही जाती अगर,
किसी तरह आ जाता, चैन रूह को किसी तरह।
पूरी दुनिया ही या सभी कुछ, इस आग में जल जाए,
अच्छा होगा कि किसी भी तरह, सुकून अगर मिल जाए,
जीते-जी ना भी मिल पा रहा हो चैन अगर,
रूह को मर कर भी काश चैन आ जाए।
अभी अगर अंधेरा नहीं, तो रौशनी भी नहीं,
मौत भी नहीं अगर, और जिन्दगी भी नहीं,
तो एक बेचैनी में है रूह यहाँ पर लेकिन,
लगती निजात की, कहीं कोई उम्मीद नहीं!
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