August 11, 2021

साधन, सिद्धान्त, साधक, सिद्धि

भाष्य और अर्थ

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वैसे तो इस पोस्ट को मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना अधिक उपयुक्त होता, किन्तु यहाँ लिखने पर इसे कुछ दूसरे ऐसे लोग शायद पढ़ना चाहेंगे जो मेरे उस ब्लॉग को कम पढ़ते हैं ।

सनातन धर्म के साथ एक बहुत बड़ी दुर्घटना यह हुई है, या कि  जान-बूझ कर इसे घटित किया गया है वह यह है कि संस्कृत के विभिन्न ग्रन्थों का अनुवाद अध्ययन के नाम पर अनेक विदेशी तथाकथित विद्वानों ने किया। अंग्रेजों के शासन के समय में उन्हें उस समय की विदेशी सरकार ने भी अपने कुत्सित और निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रायोजित किया । दिखाने के लिए ऐसे भी कई भारतीय विद्वज्जनों को ऐसे शोध और अध्ययन के कार्य में सम्मिलित किया जो अंग्रेजी सरकार के द्वारा सम्मानित किए जाने में गौरव का अनुभव करते थे। उन परंपरानिष्ठ विद्वानों की अवहेलना की गई जो वस्तुतः शास्त्रमर्मज्ञ होते हुए भी अंग्रेजी भाषा और जीवन-शैली से असहमति के कारण इस विषय में उस सरकार के उद्देश्यों के लिए सहायक होने की अपेक्षा, बाधक ही अधिक थे। 

संस्कृत, और विशेषरूप से सनातन धर्म के वैदिक, पौराणिक शब्दों के लिए अंग्रेजी और दूसरी विदेशी भाषाओं में भी चूँकि वैसी अवधारणाएँ तक नहीं थी, इसलिए उन्होंने जिस तरह भी संभव हो पाया, उनके अर्थ को व्यक्त करने के लिए लैटिन तथा ग्रीक भाषा को आधार की तरह प्रयुक्त कर नए-नए शब्द गढे़ ।

इन शब्दों से न केवल संस्कृत भाषा के मूल शब्दों के तात्पर्य को ही बदल दिया गया बल्कि बिलकुल ही नया परिप्रेक्ष्य प्रदान कर दिया गया। उदाहरण के लिए :

ब्रह्म, आत्मा, धर्म, सत्य, कर्म, यज्ञ, स्वर्ग, नर्क, देवता, ईश्वर, वेद,  योग, आधिदैविक, अधिभौतिक, आध्यात्मिक और ऐसे ही न जाने कितने ही अन्य शब्द। हमारे दुर्भाग्य, प्रमाद, आलस्य और अकर्मण्यता तथा संकीर्णता की भावना से भी हमने उन शब्दों को उसी प्रकार स्वीकार कर लिया। 

शास्त्रों के 'पाठ' तथा 'शास्त्रार्थ' की परंपरा ही पूर्णतः विलुप्त हो गई, और हम अपनी जड़ों से पूरी तरह से ही कट गए।

वेद व संबंधित ग्रन्थों की शुद्धता और प्रामाणिकता 'पाठ' पर ही आश्रित होने से परंपरा के अनुसार उन्हें यद्यपि प्रत्यक्ष वाणी के ही माध्यम से आचार्य से छात्र को प्रदान किया जाता था, किन्तु उन्हें स्मरण करने के लिए सहायक साधन के रूप में लिखने का भी प्रयोग अत्यंत प्रचलित था। 

इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि इस प्रकार शास्त्र की शुद्धता को सुरक्षित करने के लिए जहाँ वैदिक संस्कृत में नागरी लिपि के विकसित स्वरूप का प्रयोग किया जाता था, उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित वर्णों के लिए प्रावधान किया गया था, वहीं जिन लिपियों (जैसे द्राविडी), में एक ही वर्ण के अनेक भिन्न भिन्न उच्चारण किए जाते थे और इस प्रकार उनके ध्वन्यात्मक उच्चारण के शुद्ध प्रकार के बारे में संशय उत्पन्न हो सकता था, उन लिपियों के समानांतर 'ग्रन्थ' लिपि का प्रयोग किया जाने लगा।

'पाठ' की परंपरा से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वेद के मंत्रों की शुद्धता अक्षुण्ण रहे।

वेद तथा तत्संबंधित ग्रन्थों की विशेषता यही है कि प्रत्येक वर्ण का अपना महत्व है और वर्णों के समूह के रूप में उच्चारित हर शब्द का अपना प्रयोजन है,  - न कि अर्थ। 

'पाठ' की परंपरा की विलुप्ति के ही साथ यह तथ्य भी हमारी दृष्टि से ओझल हो गया कि मंत्रों के प्रयोग तथा देवताओं आदि के आवाहन में सबसे बड़ी भूमिका वर्णों के शुद्ध उच्चारण की है। इसलिए मंत्रों आदि का 'अर्थ' गौण है, जबकि 'प्रयोजन' ही अधिक महत्वपूर्ण है।

वेदमंत्रों का प्रयोग यज्ञ के ही साथ किया जाता है, क्योंकि यज्ञ के ही माध्यम से, मंत्रों की सहायता से वैदिक देवताओं, ऋषियों, पितरों आदि का आवाहन किया जाता है, और यही व्यावहारिक भी है ।

'देवता', प्राण तथा चेतना के संयोगविशेष से उत्पन्न आधिदैविक सत्ता है, न कि पारमार्थिक ईश्वर या परमात्मा । 

यदि रुद्र अथर्वशीर्ष या अन्य किसी भी अथर्वशीर्ष का अध्ययन करें तो अनायास ही स्पष्ट हो जाएगा कि सभी देवता औपाधिक स्वरूप की चेतन शक्ति के अलग अलग प्रकार हैं। इसलिए वेद के देवताओं और उनसे संबंधित वैदिक अनुष्ठानों का एकेश्वरवाद (monotheism) या अनेकेश्वरवाद (polytheism) से मूलतः कोई संबंध है ही नहीं।

वेदवर्णित सभी अनुष्ठान देवताओं की स्तुति करने के लिए, और उनसे संपर्क स्थापित कर उन्हें प्रसन्न करने के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए ही पूर्ण किए जाते हैं। 

इसलिए सभी वेदसूक्तों में इंद्र, अग्नि, सूर्य, वरुण, सोम, रुद्र, यम, आदि को संबोधित किया जाता है। 

यदि हम अथर्ववेद में देखें तो यही बात पृथिवी-सूक्त के उदाहरण से समझी जा सकती है। 

ऋग्वेद में उषःसूक्त, लक्ष्मीसूक्त या अन्य अनेक सूक्तों पर भी यही सिद्धांत प्रयुक्त होता है।

इन अनुष्ठानों का आविष्कार जिस ऋषि द्वारा किया जाता है उसे ही इस 'पाठ' का ऋषि कहा जाता है। इस 'पाठ' का 'देवता' वह चेतना होता है जिसका आवाहन किया जाता है। ये सभी देवता प्राण और चेतना की तरह मनुष्य के शरीर में ही विद्यमान होते हैं इसलिए करन्यास, अङ्गन्यास तथा हृदयादिन्यास से उन्हें जागृत किया जाता है। 

यह हुआ वैदिक तंत्र। 

यदि हमें यह स्पष्ट हो जाता है तो क्या वेद आदि ग्रन्थों का कोई अर्थ या अभिप्राय प्राप्त किया जाना संभव है?

हाँ,  उनका प्रयोजन तो अवश्य ही होता है।

यदि हम किसी वैदिक सूक्त का अर्थ करना भी चाहें, तो वह एक सरल अर्थ ही होगा, जिसे हम न्यूनतम बौद्धिक क्षमता से भी ग्रहण और अभिव्यक्त कर सकते हैं।

अब प्रश्न उठता है 'भाष्य' का।

भगवान् आदि शङ्कराचार्य ने गीता, उपनिषदों एवं ब्रह्मसूत्र पर 'भाष्य' लिखे हैं। इसका लक्ष्य है उन उन ग्रन्थों के अभिप्राय को विवेचना सहित स्पष्ट करना ।

इस प्रकार 'भाष्य'  commentary / interpretation है,

न कि 'अनुवाद' (translation)।

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