कविता : 26-08-2021
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संबंध नहीं है, बस स्मृति है,
पुनरावृत्ति है, बस परिचय,
पहचान नहीं, बस कल्पना,
सब कुछ है केवल अभिनय।
प्रेम यही है, स्नेह यही,
सौहार्द यही है, प्रीति यही,
यही भूमिका है जीवन की,
जीवन की रंगभूमि यही।
सभी पात्र हैं अपनी अपनी,
बस भूमिका निभाते हैं,
पर्दा गिरते ही, या उठते भी,
आँखों से ओझल हो जाते हैं।
फिर भी कोई अभिनेता,
धीरोदात्त कहलाता है,
किन्तु दूसरा कोई और,
खलनायक हो जाता है,
जैसे शतरंज के मोहरे हों,
बिछते ही बिसात आते,
उनमें से ही खेल खेल में,
जीवित या मृत हो जाते।
कोई प्यादा मरकर भी,
नया जन्म पा लेता है,
फ़र्जी, फी़ल, वजीर, घोड़ा,
बनकर फ़र्ज निभाता है।
जब होता है खेल ख़त्म,
तो कोई हारा, कोई जीता,
या होता समाप्त, अनिर्णीत,
हर मोहरा केवल अभिनेता।
खेल शुरू होते ही सारे,
जिस डिब्बे से आए होते हैं,
खेल ख़त्म होते ही सारे,
वापस वहीं लौट जाते हैं।
***
जब खेल शुरू होता है,
हर मोहरा यही सोचता है,
मैंने क्या पाया, क्या खोया,
क्या मिला, मुझे क्या करना है,
नहीं जानता, है कठपुतली,
और किन्हीं हाथों में डोर,
हैं अदृश्य वे हाथ मगर,
उन हाथों का ही सारा जोर!
प्रकृति के या परमात्मा के,
या उन दोनों का विलास,
परस्पर यह, उनकी क्रीडा,
यही चरम जीवन-उल्लास।
शाश्वत काल, काल से परे,
सतत, निरंतर, किन्तु अबाध,
मानव तो बस मोहरा है,
लीला अगम्य यह निर्विकार!
***
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