आभास
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ऋग्वेद, मंडल २
का यह सूक्त प्रसिद्ध है।
यह मुझे अत्यंत प्रिय है।
इसका एक कारण यह भी है कि इसमें वर्णित
विनयः भारद्वाजः, ऋग्वेद तथा मेरे जन्मगोत्र भारद्वाज,
इन सभी में मुझे अपनी झलक दिखाई देती है। इस संदर्भ तथा सूत्र, संयोग को केवल कल्पनाविलास भी कहा जा सकता है ।
ऐसा ही एक सूक्त पुपुल जयकर द्वारा लिखित श्री जे.कृष्णमूर्ति की जीवनी (Biography) में 30-35 साल पहले पढ़ा था :
Ideals are brutal things.
उक्त पंक्ति उस पुस्तक के एक अध्याय का शीर्षक भी है।
सवाल यह है कि हम जीवन में कोई आदर्श क्यों तय करते हैं?
क्या इसीलिए नहीं, क्योंकि हमारे अपने जीवन में हमें नितांत अर्थहीनता और रिक्तता का बोध होने लगता है, और तब हम अपने(!) इस जीवन को किसी सार्थक दिशा की ओर मोड़ने की कोशिश करने लगते हैं? अहं-केन्द्रित अपने इस जीवन को, हम हमेशा सुरक्षित, समृद्ध, परिपूर्ण और सुखी बनाए रखना चाहते हैं, और यह आदर्श भी सदैव अपने आपकी हमारी जो प्रतिमा हमारे(!) मन में होती है, अपनी उस प्रतिमा को केन्द्र पर रखकर ही, उसी आधार से जुड़ा होता है। हम मन को मेरा मन कहते हैं। क्या यह मन ही नहीं है जो अपने आपको 'मेरा' कह रहा होता है! जैसे मेरा घर, मेरा समाज, मेरा परिवार, मेरा गाँव, मेरा देश आदि वस्तुएँ मुझे स्पष्ट हैं, क्या उसी तरह मेरा मन मुझसे जुड़ी किसी वस्तु की तरह मुझे स्पष्ट है? क्या 'मैं' और 'मेरा मन' केवल एक काल्पनिक विभाजन ही नहीं होता, और जिस 'मन' में यह व्यक्त और अव्यक्त, प्रकट और अप्रकट होता रहता है, ऐसी मुझसे भिन्न, 'मन' नामक कोई वस्तु भी होती है जिसे दूसरी सभी वस्तुओं की तरह छुआ, देखा, सुना, कहा जा सकता है, जिसमें कोई विशेष गंध होती हो, जो साकार या निराकार, सीमित या असीमित, टुकड़ा या समूचा होता हो?
कल्पना, भावना, भाव, स्मृति, आवेग, संवेग, उत्तेजना, विचार, भ्रम, संदेह, ज्ञान, अज्ञान, प्रतीति, और खुशी, दुःख, आशा और निराशा, आशंका, भय, राहत, प्रयोजन, अतीत, वर्तमान, भविष्य, बीता कल, आज, अभी, आगामी कल, इरादा, संकल्प, उद्देश्य, ध्येय, लक्ष्य आदि को ही 'मन' नहीं कहा जाता? क्या इन सभी वस्तुओं को ही परस्पर किसी सूत्र में बाँधकर 'मैं' का नाम नहीं दिया जाता है? और, पुनः क्या इसी सूत्र को फिर केवल कल्पना और विचार की ही सहायता से 'मेरा' भी नहीं कहा जाता है?
कोई भी प्रयोजन, इरादा, संकल्प, आदर्श, उद्देश्य, ध्येय, लक्ष्य, जानकारी, इसी रूप में हमारे समक्ष आता है, और तत्काल ही इस पर 'मेरा' की मुहर लग जाती है । यह सब पलक झपकते ही हो जाता है, और यह दिखलाई तक नहीं देता कि 'मैं' तथा 'मेरा' के बीच कोई वास्तविक भेद होता ही नहीं, उनके बीच की कोई दूरी या अंतर काल्पनिक ही होती है। और यह कल्पना भी उसी मन का एक और चेहरा है।
खैर, यह तो हुई सर्वथा वैयक्तिक चेतना की गतिविधि।
किन्तु यदि मनुष्य की सामाजिक, सामूहिक, सार्वजनिक और सार्वत्रिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो मनुष्यों के भिन्न भिन्न समुदाय क्या किन्हीं विशिष्ट उद्देश्यों, आदर्शों, ध्येयों, लक्ष्यों और भयों, आशाओं, आशंकाओं, संकल्पों, उत्तेछनाओं, भावों, भावनाओं, और उन विचारों :
(idea / ideas and ideology / ideologies)
से ही प्रेरित और संचालित नहीं होते हैं, जो कि पुनः 'मन' की ही सत्ता का वैश्विक प्रकार है?
इसलिए,
"Ideals are brutal things"
ऐसा कठोर सत्य है जिसकी धार हमें दिखलाई ही नहीं देती!
जब तक हमें यह दिखाई नहीं देती तब तक हम सब सतत इसके नीचे कटते हुए लहूलुहान होते रहते हैं।
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