कविता : 13-08-2021
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गरिमा नारी की!
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द्रौपदी का चीर-हरण आज तक जारी है,
अबला और विवश ही सदैव कोई नारी है!
कहने को रक्षक उसके, पाँच पुरुष अवश्य हैं,
उनमें से ही एक किन्तु पति और स्वामी है,
और यदि वह अर्जुन भी, असमर्थ है, अक्षम है,
श्रीकृष्ण है अदृश्य, तो कौन और सक्षम है?
युधिष्ठिर को पता है कि, शकुनि ही गांधार है,
देखता रहता है मौन, हो रहा जो अनाचार है,
आचार्य और पितामह भी, सारे हैं चुप अवाक्,
क्षीणपौरुष, हतबल, देख रहे हैं दुर्दान्त पाप!
सतयुग से त्रेता तक, त्रेता से द्वापर तक,
द्वापर से कलियुग तक, यह नाटक जारी है,
संसद से सड़क तक, अपमानित नारी है!
संसद भी स्त्री है, सड़क भी तो है स्त्री ही,
प्रजा भी है औरत ही, प्रजातंत्र जैसे नपुंसक!
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