संबंध का विचार और विचार से संबंध
-----------------------©-----------------------
जीवन, विशेषरूप से मनुष्य के जीवन में, तथा अपने आपको पढ़ा-लिखा समझनेवाले मनुष्य के जीवन में विचार का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है, और प्रायः हर कोई ही किसी न किसी या अनेक विचारों को 'मेरा विचार' कहता है। निहितार्थ विहितार्थ यह कि प्रत्येक मनुष्य को सहज और अनायास ही यह बोध भी होता है कि वह स्वयं विचार न होकर एक ऐसी चेतनता है, जो विचार से विलक्षण कुछ और है। किन्तु उसका वह बोध विचारों की भीड़ में उन अनेक विचारों के तले ऐसा दब जाता है कि वह अपने आपको "मैं" कहते हुए अपनी कोई पहचान स्वीकार कर समय समय पर उस सतत बदलती पहचान को अपना अस्तित्व ही मान बैठता है । इस प्रकार अपना स्वयं का यह स्वाभाविक भान, विचार न होकर विचारमात्र से भिन्न तत्व होता है, किन्तु अस्तित्व के इस भान को भी मनुष्य विचार तथा धारणा बना लेता है। यह धारणा समय के साथ दृढ़ होते हुए अपनी सत्यता का भ्रम बनकर मनुष्य पर ऐसी हावी हो जाती है कि उस भ्रम के आसपास पैदा हुआ स्मृति का मकड़जाल मनुष्य को बुरी तरह जकड़कर उसे स्वयं और स्वयं के संसार में विभाजित कर लेता है। यह विभाजन भी पुनः एक वैचारिक धारणा और विचार-विशेष होता है, न कि अपनी 'निजता' जो सदैव अखंडित यथार्थ है। यह 'निजता' मूलतः तो सदैव ही एक प्रकट, प्रत्यक्ष तथ्य है, जबकि उसका 'स्वयं तथा स्वयं का संसार' में विभाजन कर लेना दुर्भाग्यपूर्ण भूल ।
इस प्रकार, 'मेरा विचार' कहना भाषा और व्यावहारिक रूप से सुविधाजनक होते हुए भी वस्तुतः त्रुटिपूर्ण है। किन्तु प्रचलन में यह त्रुटि ऐसा रूढ रूप ले लेती है, कि इस पर किसी का ध्यान शायद ही जा पाता है।
संबंध और परिचय भी इसी प्रकार केवल एक वैचारिक धारणा अर्थात् विचार ही होता है न कि कोई ऐसा तथ्य जिसका भौतिक सत्यापन किया जा सके!
चलते-चलते :
और, क्या 'भौतिक सत्यापन' भी विचार के ही अंतर्गत नहीं है!
***
No comments:
Post a Comment