August 05, 2021

चिरंतन, सनातन,

कविता : 05-08-2021

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पुरातन, अधुनातन

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एक कविता पुरातन सी, 

एक कविता चिरंतन सी, 

एक कविता निरंतर सी, 

एक कविता अद्यतन सी! 

भूख लगती है प्यास लगती है, 

ज़िन्दगी पर उदास लगती है, 

रोज ही भूख लगा करती है, 

रोज ही प्यास लगा करती है,

नींद खुलती है, रोज आती है,

जिन्दगी यूँ ही बीत जाती है,

अन्न ही प्राण है, जल भी प्राण है, 

चेतना ही है कि जिसमें भान है,

भान से प्राण, कि प्राण से भान है?

क्या या निपट निरा अनुमान है?

भूख क्यों रोज लगा करती है? 

प्यास क्यों रोज लगा करती है? 

नींद क्यों रोज आती जाती है?

जिन्दगी क्यों उदास लगती है? 

वो जो चेतना जो प्राण भी है,

वो जो प्राण जो है चेतना है,

वो जो चेतना है प्राण, भान,

क्यों सदैव जीना चाहती है?

जन्मते ही शिशु की तरह भी,

बाल या किशोर की तरह भी, 

युवा, फिर प्रौढ की तरह भी, 

क्यों सदा बने रहना चाहती है?

चाह से ही होता है बना रहना या,

या बने रहने से ही चाह होती है!

क्या इसीलिए भूख लगा करती है? 

क्या इसीलिए प्यास लगा करती है? 

क्या इसीलिए जागता है कोई,

क्या इसीलिए नींद आया करती है? 

और यह भी सभी को पता ही है, 

एक दिन सोना है, न उठने के लिए,

क्या इसीलिए फिर अपनी ही, 

प्रतिलिपि की भी तलाश होती है? 

क्या इसीलिए संतति की चाह, 

और क्या इसीलिए निरंतरता,

ताकि मैं निरंतर जीता ही रहूँ,

बेटियों, बेटों की आस होती है?

बेटियों, बेटों के जन्मने के बाद,

बहाने से, उनके ही, जीते रहना, 

क्या इसीलिए भूख लगा करती है?

क्या इसीलिए प्यास लगा करती है? 

क्या इसीलिए नींद आती है पर,

जिन्दगी फिर भी उदास लगती है?

कौन जीता है, देह या फिर मन,

चेतना जीती है, या कि फिर प्राण,

याद जीती है, या कि फिर पहचान,

ज्ञान जीता है, या कि जीता है भान?

क्या पता कब हल होंगे प्रश्न सारे, 

क्या पता कब होगा अंत इनका, 

कब तक भ्रमों की रहेगी ये भीड़,

किस समय होगा समाधान इनका! 

***

(इस कविता की प्रारंभिक दो पंक्तियों :

"भूख लगती है,  प्यास लगती है, 

जिन्दगी पर उदास लगती है। "

को तीस से भी अधिक वर्षों पहले मैंने अपनी किसी कविता में प्रयुक्त किया था। उन्हीं पंक्तियों को प्रस्तुत कविता में विस्तार से नये सिरे से यहाँ व्यक्त किया है।) 

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