कविता 11-08-2021
---------------©--------------
अब मुझे लगता है, कुछ और न लिखूँ,
हाँ, मुझे लगता है, कुछ और न दिखूँ!
हाँ जो दिखता है, वही तो बिकता है,
अब तक बिका, अब आगे, और न बिकूँ!
सोचता हूँ लिखने को कैसे रोक सकता हूँ,
पर नहीं लिखना है, छपने के लिए,
बाजार में हो, जिसकी माँग बन वो सनसनी,
ज़हरीली, भड़काऊ, बिकने-खपने के लिए!
लिखना तो वैसे खून में है, उसकी रवानी है,
लिखूँगा जब तक न मेरा खून पानी है,
वैसे हर अदीब की ही यह कहानी है,
बस यही तो मेरी अपनी भी निशानी है!
अब न लिखना है मुझे रूमानी कुछ,
अब न लिखना है मुझे बेमानी कुछ,
अब न लिखना है मुझे ईनामी कुछ,
अब तो लिखना है मुझे ईमान कुछ!
अब न मैं कुछ कभी, बेईमानी लिखूँगा,
हाँ ये लगता है अब कुछ और न लिखूँगा!
***
No comments:
Post a Comment