August 30, 2021

एक लंबा इंतजार

कविता : 29-08-2021

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एक लंबा इंतजार बीत गया,

प्रतीक्षा भी एक पूरी हो गई! 

कल तक जो थे बहुत क़रीब, 

उनसे आज बहुत दूरी हो गई!

लोग आते हैं, और जाते रहते हैं,

हरेक शख्स का है क़िरदार अपना,

किसी से किसी का रिश्ता कहाँ,

न कोई पराया है, न कोई अपना।

बदल जाता है माहौल, मौसम,

बदल जाते हैं, दोस्त और दुश्मन, 

बदल जाता है यह शरीर, मन,

बदल जाता है पूरा ही जीवन! 

फिर कैसे पहचानें उसको, 

जिसका सब कुछ बदल गया, 

क्या वह खुद भी बदल चुका? 

कैसे जानेगा फिर खुद को?

मुश्किल है या, आसान है क्या?

है सवाल यह अजीब कितना!

कर पाओ अगर हल इसको,

मुझको भी तुम समझा देना!

***

अगर मैं सचमुच बदल गया, 

तो कैसे जान सकूँगा इसको!

अगर मैं सचमुच बदल गया,

कौन बतला पाएगा मुझको?

***






August 27, 2021

हम यहाँ फिर

कविता : 27-08-2021

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वर्ष 1978 में जब कविताएँ लिखना शुरू किया था तब एक छोटी सी कविता लिखी थी :

"हम यहाँ से लौट जाएँगे, 

किसी दिन, 

जिन्दगी के ये झमेले,

छूट जाएँगे किसी दिन! 

..."

आज अचानक याद आया तो उसी क्रम में लिखने का सोचा :

हम यहाँ पर लौट आएँगे किसी दिन, 

दोस्त, दुश्मन सब मिलेंगे फिर किसी दिन, 

क्या पता कोई हमें पहचानेगा या नहीं,

हम भी किसे पहचान लेंगे तब किसी दिन!

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आग और धुआँ

कविता : 27-08-2021

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काबुल 

आग भी कैसी अजीब सी आग है यह, 

ठीक से जलती भी नहीं, बुझती भी नहीं ,

बस धुआँ-धुआँ हो रही है, अधसुलगी सी, 

न फैलती है, न सिमटती है, न बिखरी है, 

घास भी तो है गीली, और जमीं भी नम है,

हवा बस ठहरी सी हुई है, उदास है मौसम।

साँस आती, जाती भी नहीं, रूह बेचैन, 

दिल है ग़मग़ीन, घुटता जा रहा है दम।

ये आग किसने लगाई है, किसकी लगाई है, 

न जल भी रही है शिद्दत से, न बुझ रही है। 

अनबुझे अधजली सीली हुई सिगरेट जैसी, 

काश बुझ ही जाती, या कि जल ही जाती अगर,

किसी तरह आ जाता, चैन रूह को किसी तरह।

पूरी दुनिया ही या सभी कुछ, इस आग में जल जाए, 

अच्छा होगा कि किसी भी तरह, सुकून अगर मिल जाए, 

जीते-जी ना भी मिल पा रहा हो चैन अगर, 

रूह को मर कर भी काश चैन आ जाए।

अभी अगर अंधेरा नहीं, तो रौशनी भी नहीं,

मौत भी नहीं अगर, और जिन्दगी भी नहीं, 

तो एक बेचैनी में है रूह यहाँ पर लेकिन, 

लगती निजात की, कहीं कोई उम्मीद नहीं! 

***



 





 

  

August 26, 2021

Sense and Sensibility.

तात्पर्य और तात्पर्यबोध 

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हिन्दी में शायद इसे 'अर्थ और अर्थबोध', या 'भाव और भावार्थ-बोध' भी कहा जा सकता है। 

मुझे नहीं पता कि किसी भाषा के साहित्य के मूल्यांकन के इस आधार पर हिन्दी भाषा के साहित्य में क्या कुछ लिखा गया है,  या इस बारे में अध्ययन और शोध किया गया है।

किन्तु यह अवश्य महसूस होता है कि हिन्दी (या किसी भी भाषा) के साहित्य के मूल्यांकन का यह एक महत्वपूर्ण आधार हो सकता है, क्योंकि इसी आधार पर आलोचना और समीक्षा के परिप्रेक्ष्य बदल जाते हैं।

यह कहना गलत नहीं होगा कि लेखक, कवि, आलोचक, पाठक या समीक्षक, प्रत्येक मनुष्य के भीतर अपनी भाषा की अपनी ही एक अलग समझ होती है, जिससे वह उस भाषा के साहित्य का तात्पर्य ग्रहण करता है । अंग्रेजी साहित्य में शायद इसे ही :

"Sense and Sensibility"

के अंतर्गत अभिव्यक्त किया जाता है। 

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चेहरा

कविता : 26-08-2021

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हर चेहरा यहाँ मोहरा है, 

हर मोहरा कलाकार,

अपने फ़न में तो है माहिर,

बाकी सब में बेकार! 

किया करता है वही काम, 

जो लगता है उसे अच्छा,

लेकिन नतीजा क्या होगा,

शायद ही हो सोचता!

नेता हो, या अभिनेता हो,

निर्देशक हो या निर्माता,

पेशेवर पैसेवाला जो पूँजी, 

लागत में लगाता। 

बस यूँ ही चला करता है,

बाजार का व्यवहार,

दर्शक ही ठगा जाता है,

इस खेल में हर बार! 

फिर भी है चला करता,

चलता ही रहेगा, 

जब तक है ये दुनिया, 

जब तक है ये संसार! 

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उत्सुकता

कविता : 26-08-2021

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संबंध नहीं है, बस स्मृति है, 

पुनरावृत्ति है, बस परिचय, 

पहचान नहीं, बस कल्पना, 

सब कुछ है केवल अभिनय।

प्रेम यही है,  स्नेह यही, 

सौहार्द यही है,  प्रीति यही, 

यही भूमिका है जीवन की,

जीवन की रंगभूमि यही।

सभी पात्र हैं अपनी अपनी, 

बस भूमिका निभाते हैं,

पर्दा गिरते ही, या उठते भी, 

आँखों से ओझल हो जाते हैं। 

फिर भी कोई अभिनेता,

धीरोदात्त कहलाता है, 

किन्तु दूसरा कोई और,

खलनायक हो जाता है,

जैसे शतरंज के मोहरे हों,

बिछते ही बिसात आते, 

उनमें से ही खेल खेल में,

जीवित या मृत हो जाते।

कोई प्यादा मरकर भी,

नया जन्म पा लेता है,

फ़र्जी, फी़ल, वजीर, घोड़ा, 

बनकर फ़र्ज निभाता है।

जब होता है खेल ख़त्म,

तो कोई हारा, कोई जीता, 

या होता समाप्त, अनिर्णीत,

हर मोहरा केवल अभिनेता। 

खेल शुरू होते ही सारे, 

जिस डिब्बे से आए होते हैं,

खेल ख़त्म होते ही सारे,

वापस वहीं लौट जाते हैं।

***

जब खेल शुरू होता है, 

हर मोहरा यही सोचता है, 

मैंने क्या पाया, क्या खोया,

क्या मिला, मुझे क्या करना है, 

नहीं जानता, है कठपुतली,

और किन्हीं हाथों में डोर, 

हैं अदृश्य वे हाथ मगर, 

उन हाथों का ही सारा जोर! 

प्रकृति के या परमात्मा के, 

या उन दोनों का विलास,

परस्पर यह, उनकी क्रीडा,

यही चरम जीवन-उल्लास।

शाश्वत काल, काल से परे,

सतत, निरंतर, किन्तु अबाध, 

मानव तो बस मोहरा है,

लीला अगम्य यह निर्विकार!

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August 21, 2021

शायद यह प्रेम है!

कविता : 21-08-2021

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कब तक घूमती रहेगी धरती, 

सूरज के इर्द-गिर्द!

कब तक घूमती रहेगी धरती,

अपनी धुरी के इर्द-गिर्द!

क्या उसे पता है कि, 

वह घूम रही है, 

सूरज के इर्द-गिर्द!

क्या उसे पता है कि, 

वह घूम रही है, 

अपनी धुरी के इर्द-गिर्द!

और यदि उसे पता न हो,

तो किसे पता है!

जिसे पता है,

क्या उसे पता है कि, 

समय क्या है!

क्या संबंध और परिचय ही, 

समय नहीं है! 

क्या समय ही नहीं है समस्या! 

यदि संबंध और परिचय नहीं है, 

तो कोई समस्या कहीं है क्या?

तो क्या समय, कहीं है क्या!

और, क्या प्रेम में समय होता है? 

फिर पता होना या,

पता न होना, कहीं है क्या!

क्या प्रेम में, 

पता होना, या पता न होना, होता है! 

फिर धरती कब तक घूमती रहेगी,

सूरज के इर्द-गिर्द, 

या, धरती कब तक घूमती रहेगी, 

अपनी धुरी के इर्द-गिर्द,

यह सवाल कहीं है क्या?

***



August 20, 2021

जो अब बीत गई!

कविता : 20-08-2021

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यह ऋतु तो अब बीत गई,

किन्तु पुनः फिर आएगी, 

किन्तु रहेंगे क्या हम तब भी, 

जब फिर से यह आएगी! 

वैसे तो कुछ विदित नहीं हैं, 

नियति और प्रकृति के कार्य,

किन्तु काल भी है वैसा ही, 

निपट अनिश्चित अपरिहार्य। 

नहीं किसी पर करुणा करता, 

नहीं किसी से भेदभाव,

जिसका जब होता है तत्क्षण,

उसके हर लेता है प्राण । 

निष्ठुर नहीं, कुशल होता है,

नित वह निज कर्तव्य में दक्ष,

जैसा भी होता है प्रस्तुत, 

जो भी अवसर उसके समक्ष।

मनुज नहीं कर सकता गर्व, 

मनुज नहीं कर सकता दर्प, 

चाहे करता रहे प्रमाद, 

काल सदा रखता है याद।

यह ऋतु जैसे उसके साथ,

सदा पकड़कर उसका हाथ,

आती जाती रहती है पर, 

नहीं बदलती उसके साथ।

यह ऋतु तो अब बीत गई! 

***

 





August 19, 2021

सुकून!

कविता : 19-08-2021

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आप बड़े सुकून से हैं,

शायद देहरादून से हैं! 

क्या आपको यूँ लगा?

कि जैसे हम मून से हैं!

अपना कहाँ नसीब ऐसा, 

चैन या सुकून कहीं,

बेवजह सब कहते हैं, 

हम बहुत ज़ुनून से हैं!

कुछ हैं ऐसे जो कि, 

बिक चुके हैं थोकबन्द, 

और कुछ बाकी हैं जो, 

बाजार में परचून से हैं! 

कुछ हैं आटा, दाल, चाँवल,

कुछ हैं सब्जी, तेल, घी, 

कुछ मसाले, मिर्च शक्कर,

कुछ यहाँ पर नून से हैं!

कुछ यहाँ हैं प्रखर वक्ता, 

कुछ यहाँ हैं धीर श्रोता, 

कुछ तो हैं अधीर आतुर,

क्या सभी सुकून से हैं!

कुछ लिफ़ाफे बेपते हैं,

पता कुछ पर गलत भी,

कुछ में तो ख़त ही नहीं,

कुछ तो बेमज़मून से हैं!

किसी का खून पानी है,

किसी का खून, खून है,

किसी को माफ़ खून सौ, 

क्योंकि वह तो मासूम है!

चाचा रहीम कह गए,

रहिमन पानी रखिए,

पानी गए न ऊबरे,

मोती, मानुष, चून है!

***

हिन्ट :

फेस्टून, फॉर्चून, अफ़लातून, कोकून, ट्यून, प्रसून, जून, जैतून, बैलून, जेजून, नाखून, ऊन ।

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August 17, 2021

गणानां त्वा गणपतिं

आभास

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ऋग्वेद, मंडल २ 

का यह सूक्त प्रसिद्ध है।

यह मुझे अत्यंत प्रिय है। 

इसका एक कारण यह भी है कि इसमें वर्णित 

विनयः भारद्वाजः, ऋग्वेद तथा मेरे जन्मगोत्र भारद्वाज, 

इन सभी में मुझे अपनी झलक दिखाई देती है। इस संदर्भ तथा  सूत्र, संयोग को केवल कल्पनाविलास भी कहा जा सकता है ।

ऐसा ही एक सूक्त पुपुल जयकर द्वारा लिखित श्री जे.कृष्णमूर्ति की जीवनी (Biography) में 30-35 साल पहले पढ़ा था :

Ideals are brutal things. 

उक्त पंक्ति उस पुस्तक के एक अध्याय का शीर्षक भी है। 

सवाल यह है कि हम जीवन में कोई आदर्श क्यों तय करते हैं? 

क्या इसीलिए नहीं, क्योंकि हमारे अपने जीवन में हमें नितांत अर्थहीनता और रिक्तता का बोध होने लगता है, और तब हम अपने(!) इस जीवन को किसी सार्थक दिशा की ओर मोड़ने की कोशिश करने लगते हैं? अहं-केन्द्रित अपने इस जीवन को, हम हमेशा सुरक्षित, समृद्ध, परिपूर्ण और सुखी बनाए रखना चाहते हैं, और यह आदर्श भी सदैव अपने आपकी हमारी जो प्रतिमा हमारे(!) मन में होती है, अपनी उस प्रतिमा को केन्द्र पर रखकर ही, उसी आधार से जुड़ा होता है। हम मन को मेरा मन कहते हैं। क्या यह मन ही नहीं है जो अपने आपको 'मेरा' कह रहा होता है! जैसे मेरा घर, मेरा समाज, मेरा परिवार, मेरा गाँव, मेरा देश आदि वस्तुएँ मुझे स्पष्ट हैं, क्या उसी तरह मेरा मन मुझसे जुड़ी किसी वस्तु की तरह मुझे स्पष्ट है? क्या 'मैं' और 'मेरा मन' केवल एक काल्पनिक विभाजन ही नहीं होता, और जिस 'मन' में यह व्यक्त और अव्यक्त, प्रकट और अप्रकट होता रहता है, ऐसी मुझसे भिन्न, 'मन' नामक कोई वस्तु भी होती है जिसे दूसरी सभी वस्तुओं की तरह छुआ, देखा, सुना, कहा जा सकता है, जिसमें कोई विशेष गंध होती हो, जो साकार या निराकार, सीमित या असीमित, टुकड़ा या समूचा होता हो?

कल्पना, भावना, भाव, स्मृति, आवेग, संवेग, उत्तेजना, विचार, भ्रम, संदेह, ज्ञान, अज्ञान, प्रतीति, और खुशी, दुःख, आशा और  निराशा, आशंका, भय, राहत, प्रयोजन, अतीत, वर्तमान, भविष्य, बीता कल, आज, अभी, आगामी कल, इरादा, संकल्प, उद्देश्य, ध्येय, लक्ष्य आदि को ही 'मन' नहीं कहा जाता? क्या इन सभी वस्तुओं को ही परस्पर किसी सूत्र में बाँधकर 'मैं' का नाम नहीं दिया जाता है? और, पुनः क्या इसी सूत्र को फिर केवल कल्पना और विचार की ही सहायता से 'मेरा' भी नहीं कहा जाता है? 

कोई भी प्रयोजन, इरादा, संकल्प, आदर्श, उद्देश्य, ध्येय, लक्ष्य, जानकारी, इसी रूप में हमारे समक्ष आता है, और तत्काल ही इस पर 'मेरा' की मुहर लग जाती है । यह सब पलक झपकते ही हो जाता है, और यह दिखलाई तक नहीं देता कि 'मैं' तथा 'मेरा' के बीच कोई वास्तविक भेद होता ही नहीं, उनके बीच की कोई दूरी या अंतर काल्पनिक ही होती है। और यह कल्पना भी उसी मन का एक और चेहरा है।

खैर, यह तो हुई सर्वथा वैयक्तिक चेतना की गतिविधि। 

किन्तु यदि मनुष्य की सामाजिक, सामूहिक, सार्वजनिक और सार्वत्रिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो मनुष्यों के भिन्न भिन्न समुदाय क्या किन्हीं विशिष्ट उद्देश्यों, आदर्शों, ध्येयों, लक्ष्यों और भयों, आशाओं, आशंकाओं, संकल्पों, उत्तेछनाओं, भावों, भावनाओं, और उन विचारों :

(idea / ideas and ideology / ideologies)

से ही प्रेरित और संचालित नहीं होते हैं, जो कि पुनः 'मन' की ही सत्ता का वैश्विक प्रकार है?

इसलिए,

"Ideals are brutal things"

ऐसा कठोर सत्य है जिसकी धार हमें दिखलाई ही नहीं देती!

जब तक हमें यह दिखाई नहीं देती तब तक हम सब सतत इसके नीचे कटते हुए लहूलुहान होते रहते हैं। 

***



August 16, 2021

"हम इतिहास में,

खत्म हो जाएँगे!"

--

कहती है, 

वह अफ़ग़ान लड़की!

दो तीन दिनों पहले लिखा,

याद आया,  

द्रौपदी का चीरहरण,

जारी है!

सदैव प्रताड़ित, अपमानित,

और पीड़ित नारी है! 

किसी को फ़ुरसत नहीं है, 

किसी को फ़िक्र नहीं!

रूसी भालू, चीनी अज़दहा और

पाकिस्तानी शुतुरमुर्ग़ भी,

"अफ़ग़ानिस्तान आजाद हो गया!"

कह रहे हैं,

और, तमाम (का)पुरुष, राजनेता,

और  तथाकथित धर्मगुरु भी!

***

ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है, 

ये दुनिया अगर मिट ही जाए, तो और भी अच्छा!

***

 



पंछी और मछलियाँ

कविता 16-08-2021

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अगर, सब खयाल पंछी होते हों,

और कुछ पंछी मछलियाँ,

अगर सब इच्छाएँ मछलियाँ होती हों,

और सब फूल तितलियाँ,

तो कुछ खयाल पंछी, 

और कुछ पंछी मछलियाँ, 

कुछ कलियाँ फूल, 

और कुछ, तितलियाँ,

तो इच्छाएँ क्या होंगीं?

कली, फूल, पंछी, मछलियाँ,

या फिर, तितलियाँ!

अगर ये हो सके,

तो जिन्दगी कितनी,

आसान हो जाए! 

***

August 15, 2021

विचार का संबंध

संबंध का विचार और विचार से संबंध

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जीवन, विशेषरूप से मनुष्य के जीवन में, तथा अपने आपको पढ़ा-लिखा समझनेवाले मनुष्य के जीवन में विचार का स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है, और प्रायः हर कोई ही किसी न किसी या अनेक विचारों को 'मेरा विचार' कहता है। निहितार्थ विहितार्थ यह कि प्रत्येक मनुष्य को सहज और अनायास ही यह बोध भी होता है कि वह स्वयं विचार न होकर एक ऐसी चेतनता है, जो विचार से विलक्षण कुछ और है। किन्तु उसका वह बोध विचारों की भीड़ में उन अनेक विचारों के तले ऐसा दब जाता है कि वह अपने आपको "मैं" कहते हुए अपनी कोई पहचान स्वीकार कर समय समय पर उस सतत बदलती पहचान को अपना अस्तित्व ही मान बैठता है । इस प्रकार अपना स्वयं का यह स्वाभाविक    भान, विचार न होकर विचारमात्र से भिन्न तत्व होता है, किन्तु अस्तित्व के इस भान को भी मनुष्य विचार तथा धारणा बना लेता है। यह धारणा समय के साथ दृढ़ होते हुए अपनी सत्यता का भ्रम बनकर मनुष्य पर ऐसी हावी हो जाती है कि उस भ्रम के आसपास पैदा हुआ स्मृति का मकड़जाल मनुष्य को बुरी तरह जकड़कर उसे स्वयं और स्वयं के संसार में विभाजित कर लेता है। यह विभाजन भी पुनः एक वैचारिक धारणा और विचार-विशेष होता है, न कि अपनी 'निजता' जो सदैव अखंडित यथार्थ है। यह 'निजता' मूलतः तो सदैव ही एक प्रकट, प्रत्यक्ष तथ्य है, जबकि उसका 'स्वयं तथा स्वयं का संसार' में विभाजन कर लेना दुर्भाग्यपूर्ण भूल ।

इस प्रकार, 'मेरा विचार' कहना भाषा और व्यावहारिक रूप से सुविधाजनक होते हुए भी वस्तुतः त्रुटिपूर्ण है। किन्तु प्रचलन में यह त्रुटि ऐसा रूढ रूप ले लेती है, कि इस पर किसी का ध्यान शायद ही जा पाता है।

संबंध और परिचय भी  इसी प्रकार केवल एक वैचारिक धारणा अर्थात् विचार ही होता है न कि कोई ऐसा तथ्य जिसका भौतिक सत्यापन किया जा सके!

चलते-चलते :

और, क्या 'भौतिक सत्यापन' भी विचार के ही अंतर्गत नहीं है! 

***

पहचान, संबंध और समझ

अजीब! Awkward!

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कुछ दिनों / महीनों / वर्ष भर पहले एक सज्जन से मुलाकात हुई। अभी तक प्रायः यही होता रहा कि मैं उन्हें समझने की ही कोशिश करता रहा। वे भी मुझसे मिलने सिर्फ एक बार आए थे। किन्तु फ़ोन पर एक-दो महीनों में एक-दो बार बात हो जाती है। 

वे बहुत हद तक विस्तारपूर्वक कुछ कहते हैं। अब मुझे स्पष्ट हुआ कि वे मुझसे बातें तभी करते हैं जब उनके पास कोई विषय या कोई छोटी मोटी समस्या होती है।  मैं उन्हें बस शान्तिपूर्वक सुनता हूँ । उस विषय या समस्या के बारे में कभी कभी अपनी समझ के अनुसार कोई सुझाव भी दे देता हूँ।

वे अभी भी प्रतीक्षारत हैं कि हमारे बीच की परस्पर अपरिचय की दीवार कब ढहे, और मैं यह समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि सचमुच क्या कभी किसी से किसी का परिचय होता भी है? क्या ऐसा होना संभव है भी!

फिर यह भी सच है कि जीवन में असंख्य लोग आते जाते रहते हैं, और सबकी कोई साधारण या विशेष भूमिका हर किसी के जीवन में होती भी है। क्या इससे यह तय करना ठीक होगा कि किसी का किसी से कोई परिचय या संबंध होता है?

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August 14, 2021

हिरण्यगर्भ / Cosmic Mind.

कविता : 14-08-2021

सूत्रधार 

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स्मृतिमंच पर नित हो रहे, नए नए नाटक घटित, 

स्मृतिमंच पर नित हो रहे, नए नए नाटक सतत, 

क्या कहीं है कोई भी, इस नाटक का सूत्रधार?

क्या कहीं है कोई भी, इस नाटक का सूत्रकार?

यंत्रवत निर्वाह करता है, हर एक इसका पात्र ही, 

जिसकी भी मिली है उसको, जो जो भूमिका वही,

स्वयं ही तो है दर्शक वह अपने ही अभिनय का,

और स्वयं ही अभिनेता वही है, अभिनय भी वही ।

क्या कहीं है इस नाटक का, दूसरा दर्शक कहीं?

किन्तु दर्शक भूल जाता है स्वयं को बार बार,

पूछता है पुनः पुनः, है कौन इसका सूत्रधार?

कभी कभी तो बीच में ही, पात्र सो भी जाता है,

और दर्शक मौन ही रह, उस पात्र में खो जाता है!

फिर भी कितने ही और हैं, जागते रहते हैं जो,

खेल, हँसकर या रोकर, खेलते रहते हैं जो ।

हर बार जब गिरता है पर्दा, और उठता है पुनः,

आते हैं नए पात्र, कथा नई, नाटक के दृश्य नए!

दर्शक फिर पूछता है, कौन सी है यह कथा?

दर्शक फिर पूछता है, है कौन इसका सूत्रधार!

क्या कहीं है कोई भी, इस नाटक का सूत्रधार?

क्या कहीं है कोई भी, इस नाटक का सूत्रकार?

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August 13, 2021

Phillip Agre

संचार-क्रान्ति का यह युग! 

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यह पोस्ट मेरे दूसरे 

vinayvaidya 

ब्लॉग में लिखी जानी थी, किन्तु भूल से इसे यहाँ लिख दिया।

इस पोस्ट का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद करना शायद कठिन नहीं होगा और इसका तात्पर्य भी सभी समझ सकते हैं मुझे ऐसी आशा है! 

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Read a post in Washington Post. 

It's about what Phillip Agre foresaw in 1994. His prediction about the (information)-technology spying over the individual at every place and at all times has just come true.

When I knew about bio-metric information and how Aadhar (UIDAI) collects the same, I grew suspicious about the same.

When I saw how mobiles tell us to lock the device by face-cognition and finger-mark, I again felt, this is a way of keeping a tab on everyone.

Helping through 'search', 'maps', 'location', they can always have a watch on you and all your activities. 

It is how there is nothing like privacy or secrecy and each and every individual is vulnerable. 

I was always cautious of this possibility. 

Even when they suggest voice recognition, speech recognition, fingerprint recognition, facial recognition, I at once suspect how a technogy-giant like the Google, facebook and other such IT ventures could stealthily save the details of each and everyone individual they pretend to serve.

That is how AI works and may help too them.

That is a 'key' to Zuckerberg's Metaverse, too. 

Just a few days ago I was talking to a friend about what is that Art of Cognition and what is the Science of the same.

It doesn't need an Einstein's wisdom to see that the machine-learning is also about the same. 

Then we discovered how recognition could be viewed in terms of integrated information or in terms of the analytical approach.

Still the AI and the machine learning could not help much. Because the intelligence inherent in man supersedes them both. 

Of course, the governments and the governance may try to exploit people, ultimately the people would without fail, recognize all this trap. They would just stop using these things like internet,  mobiles and other such machines that collect through recognition, their personal data. No monetary agencies could survive, for ultimately 'hackers' of all kinds would disrupt the whole monetary system.

One thing is sure if any, -an indication.

Phillip Agre himself disappeared from the public view and is still unavailable to comment upon this whole matter.

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संसद से सड़क तक

कविता : 13-08-2021

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गरिमा नारी की! 

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द्रौपदी का चीर-हरण आज तक जारी है, 

अबला और विवश ही सदैव कोई नारी है! 

कहने को रक्षक उसके, पाँच पुरुष अवश्य हैं,

उनमें से ही एक किन्तु पति और स्वामी है,

और यदि वह अर्जुन भी, असमर्थ है, अक्षम है, 

श्रीकृष्ण है अदृश्य, तो कौन और सक्षम है?

युधिष्ठिर को पता है कि, शकुनि ही गांधार है,

देखता रहता है मौन, हो रहा जो अनाचार है,

आचार्य और पितामह भी, सारे हैं चुप अवाक्,

क्षीणपौरुष, हतबल, देख रहे हैं दुर्दान्त पाप!

सतयुग से त्रेता तक, त्रेता से द्वापर तक,

द्वापर से कलियुग तक, यह नाटक जारी है,

संसद से सड़क तक, अपमानित नारी है!

संसद भी स्त्री है, सड़क भी तो है स्त्री ही,

प्रजा भी है औरत ही, प्रजातंत्र जैसे नपुंसक!

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August 12, 2021

आजकल सन्त कहाँ...

मिलते हैं?

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आजकल सन्त कहाँ मिलते हैं, 

मिल भी जाए तो पहचानेंगे कैसे?

आजकल गुरु कहाँ मिलते हैं? 

मिल भी जाए तो समझेंगे कैसे?

आजकल देवता कहाँ मिलते हैं?

मिल भी जाएँ तो पूजेंगे कैसे?

अनेक प्रश्न उठा करते हैं मन में, 

पर पता भी नहीं है कि पूछेंगे किससे!

बहुत किताबें हैं, बहुत से उपदेशक,

अनेक परंपराएँ हैं! तथा मार्गदर्शक!

पता ही नहीं है इनमें से कौन झूटा है,

पता ही नहीं है कि इनमें कौन सच्चा है, 

कितनी दुविधा से भरा हुआ है जीवन यह,

यहाँ बुरा है क्या, सही-गलत, क्या अच्छा है!

क्या इस का हल भी है किसी के भी पास? 

है भी अगर, तो कैसे करें उस पर विश्वास !

तो क्या भटकते ही रहें उम्र भर ही हम, 

इसी दुविधा में बीत जाए  क्या उम्र ही पूरी?

कोई तो राह हो जो कि दे सके हमको,

ऐसी मुश्किल में जो, क्या नहीं है जरूरी! 

खुद ही क्या खोज सकते नहीं हैं हम, 

हो अगर ऐसी तो कौन सी वो सकती है! 

और अगर नहीं है, तो और कोई राह नहीं,

यहाँ नहीं, वहाँ भी नहीं, कहीं भी नहीं! 

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सवाल यह भी तो है कि आखिर क्यों हमको,

तलाश है किसी सहारे या किसी मददगार की,

क्या इसीलिए नहीं कि तमाम दौलतें मिलें हमको,

हमें निजात मिले, मुसीबतों से, रोग,  बीमारी से, 

हमें हमेशा जीत ही मिले, उन तमाम दुश्मनों पर,

जो चाहते हैं कि हमें कहीं न चैन या सुकून मिले!

तो क्या आदमी हमेशा ही जीता रह सकता है? 

क्या हमेशा ही बना रहे जवान, ताकत से भरपूर,

न उसे मौत आए कभी और न हो बूढ़ा भी कभी,

क्या ये उम्मीद कुछ ज्यादा ही नहीं लगती है!

क्या कोई सन्त, भगवान, खुदा, देवता या फकीर,

तुमको ऐसा भी कोई तोहफ़ा कभी दे सकता है?

और अगर दे भी सकता हो तो तुम क्या दोगे?

इसकी कीमत कोई, क्या कभी भी दे सकते हो?

फिर क्यों इतना गुमान, इतना ग़रूर, इतनी अकड़, 

जबकि यह तय है कि एक दिन मौत का भी है तय,

और अगर इतना भी समझ लो तो वही काफी है, 

इस जहाँ में और बाद के जहाँ में भी जीने के लिए!

और तब क्या जरूरत होगी भगवान या सन्त की भी, 

जब तुम्हें दुनिया से रहेगी ही नहीं उम्मीद कोई,

तब रहेगा सुकूँ दिल में जब न होगी वहाँ चाहत कोई! 

उस घड़ी तक तो रहेगी ही दुनिया भी और दुविधा भी, 

रहेगा असमंजस, तकलीफ यह, परेशानी भी! 

***

हाँ,  अभी कुछ एडिटिंग करना बाकी है! 

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2010 में लिखी 'फ़िर एक बार' लेबल पर उपलब्ध कविता में भूल से नागों की माता का नाम 'विनता' लिख दिया है। 

पौराणिक आख्यान के अनुसार, 'विनता' तो, वैनतेय की माता का नाम है, जबकि 'कद्रु' नाम नागों की माता का है।

अभी अभी ही इस ओर मेरा ध्यान गया! 

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क्लेश

कविता : 12-08-2021

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संसार / दुनिया

यहाँ अव्यवस्था क्यों है, अराजकता, कलह, क्यों है, 

क्यों है संघर्ष-युद्ध, अशान्ति, वैमनस्य यहाँ क्यों है?

तुम मुझे बच्चा समझोगे अगर, तो भी कोई बात नहीं, 

तुम मुझे बेवकूफ़ समझोगे अगर, तो झगड़ा होगा!

तुम मुझे बेवकूफ़ समझोगे अगर, तो कोई बात नहीं,

तुम मुझे बेवकूफ़ बनाओगे अगर, तो झगड़ा होगा!

और अगर यह भी न समझोगे कि झगड़े क्यों होते हैं,

तो यह भी समझ लेना, बेवकूफ़ हो दरअसल तुम्हीं!

बस यही तो तरीका है दुनिया को बचाने के लिए,

ये बेवकूफ़ी ही तो है, जो है तबाही, दुनिया के लिए!!

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August 11, 2021

साधन, सिद्धान्त, साधक, सिद्धि

भाष्य और अर्थ

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वैसे तो इस पोस्ट को मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना अधिक उपयुक्त होता, किन्तु यहाँ लिखने पर इसे कुछ दूसरे ऐसे लोग शायद पढ़ना चाहेंगे जो मेरे उस ब्लॉग को कम पढ़ते हैं ।

सनातन धर्म के साथ एक बहुत बड़ी दुर्घटना यह हुई है, या कि  जान-बूझ कर इसे घटित किया गया है वह यह है कि संस्कृत के विभिन्न ग्रन्थों का अनुवाद अध्ययन के नाम पर अनेक विदेशी तथाकथित विद्वानों ने किया। अंग्रेजों के शासन के समय में उन्हें उस समय की विदेशी सरकार ने भी अपने कुत्सित और निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रायोजित किया । दिखाने के लिए ऐसे भी कई भारतीय विद्वज्जनों को ऐसे शोध और अध्ययन के कार्य में सम्मिलित किया जो अंग्रेजी सरकार के द्वारा सम्मानित किए जाने में गौरव का अनुभव करते थे। उन परंपरानिष्ठ विद्वानों की अवहेलना की गई जो वस्तुतः शास्त्रमर्मज्ञ होते हुए भी अंग्रेजी भाषा और जीवन-शैली से असहमति के कारण इस विषय में उस सरकार के उद्देश्यों के लिए सहायक होने की अपेक्षा, बाधक ही अधिक थे। 

संस्कृत, और विशेषरूप से सनातन धर्म के वैदिक, पौराणिक शब्दों के लिए अंग्रेजी और दूसरी विदेशी भाषाओं में भी चूँकि वैसी अवधारणाएँ तक नहीं थी, इसलिए उन्होंने जिस तरह भी संभव हो पाया, उनके अर्थ को व्यक्त करने के लिए लैटिन तथा ग्रीक भाषा को आधार की तरह प्रयुक्त कर नए-नए शब्द गढे़ ।

इन शब्दों से न केवल संस्कृत भाषा के मूल शब्दों के तात्पर्य को ही बदल दिया गया बल्कि बिलकुल ही नया परिप्रेक्ष्य प्रदान कर दिया गया। उदाहरण के लिए :

ब्रह्म, आत्मा, धर्म, सत्य, कर्म, यज्ञ, स्वर्ग, नर्क, देवता, ईश्वर, वेद,  योग, आधिदैविक, अधिभौतिक, आध्यात्मिक और ऐसे ही न जाने कितने ही अन्य शब्द। हमारे दुर्भाग्य, प्रमाद, आलस्य और अकर्मण्यता तथा संकीर्णता की भावना से भी हमने उन शब्दों को उसी प्रकार स्वीकार कर लिया। 

शास्त्रों के 'पाठ' तथा 'शास्त्रार्थ' की परंपरा ही पूर्णतः विलुप्त हो गई, और हम अपनी जड़ों से पूरी तरह से ही कट गए।

वेद व संबंधित ग्रन्थों की शुद्धता और प्रामाणिकता 'पाठ' पर ही आश्रित होने से परंपरा के अनुसार उन्हें यद्यपि प्रत्यक्ष वाणी के ही माध्यम से आचार्य से छात्र को प्रदान किया जाता था, किन्तु उन्हें स्मरण करने के लिए सहायक साधन के रूप में लिखने का भी प्रयोग अत्यंत प्रचलित था। 

इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि इस प्रकार शास्त्र की शुद्धता को सुरक्षित करने के लिए जहाँ वैदिक संस्कृत में नागरी लिपि के विकसित स्वरूप का प्रयोग किया जाता था, उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित वर्णों के लिए प्रावधान किया गया था, वहीं जिन लिपियों (जैसे द्राविडी), में एक ही वर्ण के अनेक भिन्न भिन्न उच्चारण किए जाते थे और इस प्रकार उनके ध्वन्यात्मक उच्चारण के शुद्ध प्रकार के बारे में संशय उत्पन्न हो सकता था, उन लिपियों के समानांतर 'ग्रन्थ' लिपि का प्रयोग किया जाने लगा।

'पाठ' की परंपरा से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वेद के मंत्रों की शुद्धता अक्षुण्ण रहे।

वेद तथा तत्संबंधित ग्रन्थों की विशेषता यही है कि प्रत्येक वर्ण का अपना महत्व है और वर्णों के समूह के रूप में उच्चारित हर शब्द का अपना प्रयोजन है,  - न कि अर्थ। 

'पाठ' की परंपरा की विलुप्ति के ही साथ यह तथ्य भी हमारी दृष्टि से ओझल हो गया कि मंत्रों के प्रयोग तथा देवताओं आदि के आवाहन में सबसे बड़ी भूमिका वर्णों के शुद्ध उच्चारण की है। इसलिए मंत्रों आदि का 'अर्थ' गौण है, जबकि 'प्रयोजन' ही अधिक महत्वपूर्ण है।

वेदमंत्रों का प्रयोग यज्ञ के ही साथ किया जाता है, क्योंकि यज्ञ के ही माध्यम से, मंत्रों की सहायता से वैदिक देवताओं, ऋषियों, पितरों आदि का आवाहन किया जाता है, और यही व्यावहारिक भी है ।

'देवता', प्राण तथा चेतना के संयोगविशेष से उत्पन्न आधिदैविक सत्ता है, न कि पारमार्थिक ईश्वर या परमात्मा । 

यदि रुद्र अथर्वशीर्ष या अन्य किसी भी अथर्वशीर्ष का अध्ययन करें तो अनायास ही स्पष्ट हो जाएगा कि सभी देवता औपाधिक स्वरूप की चेतन शक्ति के अलग अलग प्रकार हैं। इसलिए वेद के देवताओं और उनसे संबंधित वैदिक अनुष्ठानों का एकेश्वरवाद (monotheism) या अनेकेश्वरवाद (polytheism) से मूलतः कोई संबंध है ही नहीं।

वेदवर्णित सभी अनुष्ठान देवताओं की स्तुति करने के लिए, और उनसे संपर्क स्थापित कर उन्हें प्रसन्न करने के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए ही पूर्ण किए जाते हैं। 

इसलिए सभी वेदसूक्तों में इंद्र, अग्नि, सूर्य, वरुण, सोम, रुद्र, यम, आदि को संबोधित किया जाता है। 

यदि हम अथर्ववेद में देखें तो यही बात पृथिवी-सूक्त के उदाहरण से समझी जा सकती है। 

ऋग्वेद में उषःसूक्त, लक्ष्मीसूक्त या अन्य अनेक सूक्तों पर भी यही सिद्धांत प्रयुक्त होता है।

इन अनुष्ठानों का आविष्कार जिस ऋषि द्वारा किया जाता है उसे ही इस 'पाठ' का ऋषि कहा जाता है। इस 'पाठ' का 'देवता' वह चेतना होता है जिसका आवाहन किया जाता है। ये सभी देवता प्राण और चेतना की तरह मनुष्य के शरीर में ही विद्यमान होते हैं इसलिए करन्यास, अङ्गन्यास तथा हृदयादिन्यास से उन्हें जागृत किया जाता है। 

यह हुआ वैदिक तंत्र। 

यदि हमें यह स्पष्ट हो जाता है तो क्या वेद आदि ग्रन्थों का कोई अर्थ या अभिप्राय प्राप्त किया जाना संभव है?

हाँ,  उनका प्रयोजन तो अवश्य ही होता है।

यदि हम किसी वैदिक सूक्त का अर्थ करना भी चाहें, तो वह एक सरल अर्थ ही होगा, जिसे हम न्यूनतम बौद्धिक क्षमता से भी ग्रहण और अभिव्यक्त कर सकते हैं।

अब प्रश्न उठता है 'भाष्य' का।

भगवान् आदि शङ्कराचार्य ने गीता, उपनिषदों एवं ब्रह्मसूत्र पर 'भाष्य' लिखे हैं। इसका लक्ष्य है उन उन ग्रन्थों के अभिप्राय को विवेचना सहित स्पष्ट करना ।

इस प्रकार 'भाष्य'  commentary / interpretation है,

न कि 'अनुवाद' (translation)।

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वक्त का पहिया!

कविता : 11-08-2021

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घूमता ही रहता है वक्त का पहिया,

कभी तो धीरे धीरे, कभी तेज तेज, 

जिन्दगी होती है फूलों की, या फिर,

कभी कभी होती है काँटों की भी सेज!

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सवाल, कुछ लिखने का!

कविता 11-08-2021

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अब मुझे लगता है, कुछ और न लिखूँ, 

हाँ, मुझे लगता है, कुछ और न दिखूँ! 

हाँ जो दिखता है,  वही तो बिकता है, 

अब तक बिका, अब आगे, और न बिकूँ!

सोचता हूँ लिखने को कैसे रोक सकता हूँ, 

पर नहीं लिखना है, छपने के लिए, 

बाजार में हो, जिसकी माँग बन वो सनसनी,

ज़हरीली, भड़काऊ, बिकने-खपने के लिए!

लिखना तो वैसे खून में है, उसकी रवानी है, 

लिखूँगा जब तक न मेरा खून पानी है, 

वैसे हर अदीब की ही यह कहानी है, 

बस यही तो मेरी अपनी भी निशानी है!

अब न लिखना है मुझे रूमानी कुछ,

अब न लिखना है मुझे बेमानी कुछ,

अब न लिखना है मुझे ईनामी कुछ, 

अब तो लिखना है मुझे ईमान कुछ! 

अब न मैं कुछ कभी, बेईमानी लिखूँगा,

हाँ ये लगता है अब कुछ और न लिखूँगा!

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August 10, 2021

एक दिन यह भी

कविता : 10-08-2021

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आज ऐसा भी कुछ करो,

जब कोई फैसला कर लो!

पुरानी रस्मों को तोड़ देने का,

दिल में हौसला कर लो!

कहाँ तक और कब तक यूँ,

निभाते रहोगे तकल्लुफ, लिहाज,

आज वह सब छोड़ देने का,

दिल में हौसला कर लो!

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August 08, 2021

कभी-कभी

कविता / 08-08-2021

जब कुछ ऐसा होता है!

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जब कुछ करने का, 

मन नहीं होता, 

जब कुछ नहीं करने का,

मन होता है,

तो मन क्या होता है?

तो क्या मन होता है? 

तो मन क्या नहीं होता?

तो क्या मन नहीं होता?

क्या मन कभी-कभी होता है? 

और मन कभी-कभी नहीं होता?

तो जिसका मन है,

क्या वह कभी-कभी होता है,

और कभी-कभी नहीं होता?

तो जिसका मन है,

क्या वह मन होता है?

क्या वह मन का होता है?

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जिसका मन है,

वह मन नहीं, 

जो मन है, 

वह किसका है? 

फिर जो है भय, चिन्ता,

वह जिसके हैं,

वह मन ही नहीं?

फिर जो मन ही नहीं,

जिसका मन भी नहीं,

कैसे उसके हों भय, चिन्ता!

क्या उसको फिर भय,  चिन्ता! 

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सुविधाजनक

दर्शन, धर्म, सिद्धान्त, मत (वाद), और सिद्धान्तवाद 

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उस व्यक्ति का अनुभव यह था कि जीवन का एकमात्र सदैव सर्वाधिक आवश्यक प्रश्न है : 

"मैं कौन? / Who I am? "

यह उसका अपना अनुभव था जिससे उत्पन्न हुई उसकी दृष्टि से उसका पूरा जीवन प्रेरित था। कभी कोई जिज्ञासु उससे चर्चा करता तो वह समय और व्यक्ति की पात्रता और संवाद के संभव होने की स्थिति में उसकी योग्यता के अनुसार अपनी सम्मति भी प्रदान करता था किन्तु यह भी कहता था कि सभी व्यवस्थाओं की मर्यादा होती है और जीवन में सदैव सब कुछ अनुकूल होता रहे यह न तो संभव है न आवश्यक। आवश्यक यदि कुछ है तो वह है :

"अपने आपको जान लेना।"

यह उसका विचार, मत, सिद्धान्त, या सिद्धान्तवाद भी नहीं था,  और किसी के प्रति आग्रह या उपदेश भी नहीं था। 

ऐसा ही एक अन्य व्यक्ति था जो जागृति (awareness) तथा चेतना (consciousness) के ही सन्दर्भ में 

"आत्म-ज्ञान (self-knowledge) तथा आत्म-प्रत्यभिज्ञा (knowing the self)"

के भेद को स्पष्ट करते हुए, :

"स्व (self / what is) और सत्य (Reality)"

के बारे में अपना अनुभव उससे मिलने वाले मित्रों से 

"साझा (share)"

करता था। 

वह भी जिन शब्दों का प्रयोग करता था उन शब्दों के अर्थ के प्रति हमारी मान्यता के अनुसार वह 

"क्या / जो / (what)"

कहता था, उसे हम अपनी बुद्धि की सूक्ष्मता और मन की शुद्धता के आधार पर अपने अपने तरीके से ग्रहण कर सकते हैं। इसी प्रकार एक तीसरा व्यक्ति था जो केवल अपने इस अनुभव के विषय में कहता था कि केवल :

"अपना ध्यान स्व (self) पर लगाने से, स्व (self) में गहराई तक निमग्न हो जाने वह स्व (self) अपने उस यथार्थ (जैसा कि उसका वास्तविक अर्थ है) को प्रकट कर देता है जो अभी हमारे मन और मन की विभिन्न वृत्तियों और अपने सच्चे स्वरूप को न जानने रूपी अंधकार में ढँका होने से हमें दिखलाई नहीं देता।"

यह उनका दर्शन था जिसे उनकी सत्य की प्रत्यभिज्ञा कहा जा सकता है। 

इसे हम हमारे समय के तीन विशिष्ट व्यक्तियों से संबद्ध कर उनकी कोई पहचान तय कर सकते हैं किन्तु यह पहचान भी वैसी ही केवल एक वैचारिक गतिविधि होगा, जैसी गतिविधि हमारा मन 

"ज्ञात (known)" 

के अंतर्गत रहते हुए करता रहता है। 

शायद हम 

"मैं कौन? / (Who I am?)",

"ज्ञात से मुक्ति / (Freedom from the known)"

तथा  :

"अहं ब्रह्मास्मि / ( I AM THAT)"

शीर्षकों से उनके व्यक्तित्व और उन शिक्षकों की शिक्षाओं के बारे में कुछ अनुमान लगा सकते हैं, किन्तु वह भी हमारे मन और बुद्धि की ज्ञात की ही सीमा में, उसी के अन्तर्गत होनेवाली एक वैचारिक गतिविधि ही होगा।

इसलिए भी उनके नामों का यहाँ उल्लेख करना अनावश्यक प्रतीत होता है।

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August 07, 2021

लेकिन कौन?

कविता : 07-08-2021

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अपराध-बोध

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जीने में अपराध-बोध,

लेकिन किसको होता है? 

कौन जागता है सोयों में, 

और कौन यह सोता है? 

(य एषः सुप्तेषु जागर्ति... / य एष सुप्तेषु जागर्ति...) 

सुख में तो सब ही हँसते हैं,

मगर कौन रोता है? 

कौन सोचता है सुख-दुःख भी, 

आखिर किसको होता है! 

"मैं सोचूँगा", "मैंने सोचा",

हर कोई तो कहता है, 

"लेकिन मुझमें कौन सोचता",

ऐसा किसको लगता है? 

कौन सोचता है, जो कहता,

कौन मौन हो रहता है?

कौन जानता है पर उसको,

मन में मौन जो रहता है? 

मैं मन हूँ या मन है मैं, 

कैसा दोनों का नाता है? 

ऐसा भी ख्याल क्या लेकिन,

कभी किसी को आता है?

लेकिन जिसको भी आता हो, 

क्या वह कोई मन है या मैं, 

या वह बस देखा करता है,

जैसे हो साक्षी, पर ना मैं!

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August 05, 2021

चिरंतन, सनातन,

कविता : 05-08-2021

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पुरातन, अधुनातन

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एक कविता पुरातन सी, 

एक कविता चिरंतन सी, 

एक कविता निरंतर सी, 

एक कविता अद्यतन सी! 

भूख लगती है प्यास लगती है, 

ज़िन्दगी पर उदास लगती है, 

रोज ही भूख लगा करती है, 

रोज ही प्यास लगा करती है,

नींद खुलती है, रोज आती है,

जिन्दगी यूँ ही बीत जाती है,

अन्न ही प्राण है, जल भी प्राण है, 

चेतना ही है कि जिसमें भान है,

भान से प्राण, कि प्राण से भान है?

क्या या निपट निरा अनुमान है?

भूख क्यों रोज लगा करती है? 

प्यास क्यों रोज लगा करती है? 

नींद क्यों रोज आती जाती है?

जिन्दगी क्यों उदास लगती है? 

वो जो चेतना जो प्राण भी है,

वो जो प्राण जो है चेतना है,

वो जो चेतना है प्राण, भान,

क्यों सदैव जीना चाहती है?

जन्मते ही शिशु की तरह भी,

बाल या किशोर की तरह भी, 

युवा, फिर प्रौढ की तरह भी, 

क्यों सदा बने रहना चाहती है?

चाह से ही होता है बना रहना या,

या बने रहने से ही चाह होती है!

क्या इसीलिए भूख लगा करती है? 

क्या इसीलिए प्यास लगा करती है? 

क्या इसीलिए जागता है कोई,

क्या इसीलिए नींद आया करती है? 

और यह भी सभी को पता ही है, 

एक दिन सोना है, न उठने के लिए,

क्या इसीलिए फिर अपनी ही, 

प्रतिलिपि की भी तलाश होती है? 

क्या इसीलिए संतति की चाह, 

और क्या इसीलिए निरंतरता,

ताकि मैं निरंतर जीता ही रहूँ,

बेटियों, बेटों की आस होती है?

बेटियों, बेटों के जन्मने के बाद,

बहाने से, उनके ही, जीते रहना, 

क्या इसीलिए भूख लगा करती है?

क्या इसीलिए प्यास लगा करती है? 

क्या इसीलिए नींद आती है पर,

जिन्दगी फिर भी उदास लगती है?

कौन जीता है, देह या फिर मन,

चेतना जीती है, या कि फिर प्राण,

याद जीती है, या कि फिर पहचान,

ज्ञान जीता है, या कि जीता है भान?

क्या पता कब हल होंगे प्रश्न सारे, 

क्या पता कब होगा अंत इनका, 

कब तक भ्रमों की रहेगी ये भीड़,

किस समय होगा समाधान इनका! 

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(इस कविता की प्रारंभिक दो पंक्तियों :

"भूख लगती है,  प्यास लगती है, 

जिन्दगी पर उदास लगती है। "

को तीस से भी अधिक वर्षों पहले मैंने अपनी किसी कविता में प्रयुक्त किया था। उन्हीं पंक्तियों को प्रस्तुत कविता में विस्तार से नये सिरे से यहाँ व्यक्त किया है।) 

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August 02, 2021

आखिर को

कविता : 02-08-2021

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मोड़

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तुम आखिर को रुक जाओगे, 

चलते चलते थक जाओगे,

मंजिल शायद ही मिल पाए, 

कहीं ना कहीं बहक जाओगे!

रहता है ग़म साथ हमेशा, 

अपना ही ग़म भी काफी है,

और किसी का ग़म लेकर, 

खुद को ही और सताओगे! 

कोई कब तक साथ चलेगा,

सबकी अपनी अपनी मंजिल,

तुम भी कुछ आगे चलकर,

किसी मोड़ पर मुड़ जाओगे!

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रेगिस्तान

कविता : 02-08-2021

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है ये रेगिस्तान जिसमें,

ऊँट हैं, और ठूँठ हैं, 

और हरियाली, ये पानी, 

हैं जो, झूठ-मूठ हैं!

दूर तक है सिर्फ रेत,

जैसे कोई बंजर खेत,

पास हैं बबूल ताड़, 

जैसे काँटों की है बाड़! 

रेत के उस पार से, 

कौन आता जाता है, 

किसका रेगिस्तान से, 

रिश्ता या कोई नाता है!

एक खालीपन है बस, 

दूर तक फैला हुआ, 

और सन्नाटा है बस, 

हर तरफ चुभता हुआ! 

हाँ जरा सी देर को, 

मन ये जाता है बहल,

डूबता है याद में जब,

कोई करता है पहल!

गूँजता है सूनापन,

वरना तो सब व्यर्थ है,

यही है जीवन यहाँ,

बस यही तो अर्थ है! 

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August 01, 2021

तिलिस्म

कविता 01-08-2021

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अचरज / कौतूहल 

जिस्म में है दर्द लेकिन, वो जिस्म को होता नहीं, 

जिसको होता है वो लेकिन, -दर्द नहीं, जिस्म नहीं!

है ये आखिर एक यह, सवाल क्या, कितना अबूझ,

ये भी क्या तिलिस्म है, ऐसी तो कोई किस्म नहीं!

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उंगली

कविता : 01-08-2021

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याद की उंगली पकड़कर ही तो था चलता रहा, 

सुख-दुःख की गलियों में ही तो भटकता ही रहा! 

याद की उंगली भी वह जो, छूट गई पर आखिर,

पहचान सुख-दुःख की भी मेरी मिट गई आखिर,

मगर पहचान और फिर भी जो बाकी रही थी,

साथ ही अपनी वह पहचान मिट गई आखिर!

मुमकिन नहीं है पूछना भी अब किसी से,

मैं ही नहीं, दुनिया भी खो गई आखिर!

लेकिन कहाँ है अब परेशानी भी कोई,

हर परेशानी भी खो ही गई आखिर!

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