~~करुणावतारं~~
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एक समय भगवान् शिव अपने परिवार के बीच आसन पर विराजमान थे। माता पार्वती, श्रीगणेश, श्री कार्तिकेय, नन्दी, वृषभ, मूषक, मयूर, आदि के साथ उनके गण भी वहाँ थे, सर्प तो उनके आभूषणों की तरह उनके शरीर पर अलंकृत ही थे।
तब माता पार्वती ने उन्हें प्रसन्न जान उनसे एक प्रश्न किया : "भगवन्! मेरी एक जिज्ञासा है, कृपया समाधान करें!
आपकी शरण में आनेवाले सभी प्राणी पारस्परिक वैर भूलकर अत्यन्त शान्तिपूर्वक आनन्द में निमग्न हो जाते हैं। जैसे यहाँ सिंह और वृषभ, सर्प और मूषक, सर्प और मयूर, आदि। आपसे दूर होते ही वे अपने स्वभाव से बाध्य होकर पुनः परस्पर वैर करने लगते हैं। इनसे भिन्न प्रकार का जो एक प्राणी होता है वह है मनुष्य, जो कभी कभी तो आपके अस्तित्व पर ही संदेह करने लगता है । उसके मन में आपकी शरण में आने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है! मनुष्य के पास इतने शास्त्र होते हुए भी वह क्यों सदैव दुःखी होकर लोभ, भय, आशा, निराशा, चिन्ताऔर मोह से उत्पन्न राग तथा आसक्ति में डूबा रहकर मृत्युभय से काँपता रहता है? व्याधियों और भूख-प्यास, शीत-ताप, से आश्रयहीन होते हुए भी क्या अन्य प्राणी भी मनुष्य की तरह दुःखग्रस्त होते हैं?"
भगवान् शिव ने किंचित स्मितपूर्वक कहा :
"देवी! तुम जानती ही हो, कि यह तुम्हारी गुणमयी माया का ही विस्तार है, जिसके पार जाना बहुत बुद्धिमान के लिए भी दुष्कर होता है, तो साधारण मनुष्य का कहाँ ऐसा सामर्थ्य कि वह ऐसा कर सके। सारा संसार और संपूर्ण जगत ही इस माया के हाथों का खिलौना है । प्राणियों के समस्त दुःख, पीड़ा, शोक, क्लेश आदि स्वप्न की भाँति अनित्य हैं, किन्तु अपनी माया के ही द्वारा तुम उनकी निज-स्वरूपात्मक आनन्दमयी सत्यता पर आवरण, विक्षेप और अनुग्रह की शक्तियों का प्रयोग कर उन्हें इस लीला में सम्मिलित करती हो और वे इस लीला के प्रभाव से कभी हर्षित तो कभी शोकग्रस्त, कभी प्रसन्न तो कभी दुःखी होते रहते हैं।
फिर भी तुम्हारी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए मैं जो कह रहा हूँ, उस अत्यन्त गुह्य परम ज्ञान को धैर्य और ध्यानपूर्वक सुनो!
एकमात्र मनुष्य ही शास्त्रों की रचना करता है और उस शास्त्र-रूपी नौका पर चढ़कर इस विराट भवसागर को पार कर लेने का मिथ्या स्वप्न देखने लगता है। संसार में रहता हुआ वह निरंतर विविध भोगों और सुखों को प्राप्त करते रहना चाहता है। ये नौकाएँ जरा सी भी आँधी और वायुवेग से अस्थिर होकर डूब जाती हैं या नष्ट ही हो जाती हैं। फिर मनुष्य करे भी तो क्या!
मूढ मनुष्य यदि मेरे अस्तित्व पर ही शंका करता है तो भी मैं उस पर करुणा करते हुए, उसके अपने ही अन्तर्हृदय में उसके अपने स्वयं के ही अस्तित्व के असंदिग्ध और निश्चययुक्त सहज भान के रूप में नित्य प्रत्यक्ष ही प्रकट हूँ। किन्तु उस सहज, सरल, नित्य उपलब्ध तथ्य की अवहेलना कर अपने ज्ञान के मद में झूमता हुआ स्वयं अपना और अपने संसार का भी विनाश करता रहता है।
मद और संशय ही अपने इस निज स्वरूप की अवहेलना का परिणाम है, जो क्रमशः तुम्हारी ही आवरण और विक्षेप रूपी शक्तियों का विलास है। इससे ही उत्पन्न होनेवाले छः विकराल विकार मनुष्य के षड्रिपु हैं जो उसे सतत व्याकुल, उद्विग्न और क्लेशयुक्त बनाए रखते हैं। तुम्हारी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए और मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए, इस परम गुह्य ज्ञान को मैं करुणावश पुनः उद्घाटित और प्रकाशित कर रहा हूँ। इसीलिए ऋषिगण मुझे करुणावतार कहते हैं।
ज्ञातृत्व, भोक्तृत्व, कर्तृत्व, स्वामित्व, तथा मद एवं मोह, मनुष्य के यही छः शत्रु उसे निरंतर अपनी आत्मा के नित्यस्फूर्त सहज और स्वाभाविक आनन्द से दूर रखते हैं ।
अपने इस स्वरूप, 'निजता' का यह बोध अत्यन्त प्रकट संकेत है जो अपने अस्तित्व के भान की तरह अनायास ही प्राणिमात्र में विद्यमान होता है। दुर्भाग्य या दुर्बुद्धि के कारण यदि कोई इस पर शंका भी करे, तो उसका यह अस्तित्व स्वयं ही इस शंका को दूर कर देता है। इसलिए, तर्क की दृष्टि से भी मनुष्य मेरे अस्तित्व की उपेक्षा नहीं कर सकता।
किन्तु ज्ञातृत्व, भोक्तृत्व, कर्तृत्व और स्वामित्व, मद और मोह के जाल में फँसा वह मूढ, इसे समझने की चेष्टा तक नहीं करता और भ्रमित तथा आशंकित हुआ संसार से लुब्ध, मोहित होकर असंख्य कष्टों में पड़ा रहता है।
किसी भी प्रश्न के उत्पन्न होने के लिए ज्ञान ही एकमात्र आधार होता है। किसी भी वास्तविक या मिथ्या ज्ञान के बिना कोई प्रश्न उठ ही नहीं सकता। अपने अज्ञान का ज्ञान भी, एक प्रकार का ज्ञान ही तो होता है! इसलिए ज्ञातृत्व मूलतः तो मेरा / अपने निज स्वरूप का नित्य, सहज भानमात्र ही है, जो वैसे भी अविनाशी ही होता है। किन्तु यही भान, जब मद एवं मोह से दूषित बुद्धि से बँध जाता है, तो अस्मिता अर्थात् अहंबुद्धि, जीवभाव का रूप ग्रहण कर लेती है ।
बुद्धिरूपी नौका पर चढ़कर यही ज्ञातृत्व अर्थात् अस्मिता यदि विवेक और वैराग्य की पतवार से अभयरूपी निष्ठा को पाल की तरह तानकर इस भवसागर से पार होने, अर्थात् मुक्ति के लिए चेष्टा करता है, तो मेरी भक्तिरूपी नित्य विद्यमान और प्रवाहित वायु उसे तत्काल ही मेरी दिशा में अग्रसर कर देती है। किन्तु यदि वह शास्त्ररूपी टूटी, पुरानी और जर्जर नौका पर चढ़कर लोभ और भय की पतवार चलाता हुआ, इस सागर को पार करने की आशा करता है, तो यह उसकी निपट मूढता ही है। कामनारूपी वायु शीघ्र ही उसे विचलित कर उस भँवर में गिरा देती है, जहाँ जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म रूपी भूखे और भयंकर नक्र और ग्राह उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं।
हे सुमुखि! तुम्हारा आविर्भाव शैलजा (शैलपुत्री) के रूप में होने के बाद तुम्हीं दक्षकन्या, कात्यायनी, स्कन्दमाता आदि रूपों को धारण करती हो, और अन्ततः पुनः मुझमें ही लीन होकर मुझसे अनन्य और अभिन्न हो जाती हो । तुम ही कालरात्रि के रूप में अत्यन्त भयानक और अशुभ प्रतीत होते हुए भी परम मंगलमयी हो। जैसे कि मैं स्वयं भी मुण्डमाल धारण कर, व्याघ्रचर्म लपेट, सर्पों से आवेष्टित हुआ, हलाहल पान कर, भयानक और अमंगल स्वरूप में दिखाई देता हुआ, श्मशानों में भ्रमण करता रहता हूँ ।
स्वरूपतः तुम्हारी मेरी अनन्यता ही मनुष्य की निज आत्मा है।
दक्षिणामूर्ति के रूप में मैं ही अहंकार-रूपी मनुष्य-शिशु को पद-दलित कर, मौन संकेत से ही अपने तत्व का दर्शन ऋषियों को प्रदान करता हूँ।"
तब पार्वती ने पुनः प्रश्न किया :
"देव! भक्ति के तत्व के विषय में विस्तार से कहें।"
"देवी! भक्ति का तात्पर्य है भजन, अर्थात् परमेश्वर से अपनी अनन्यता को स्मरण रखना। जैसे तुम नित्य मुझसे अभिन्न और अनन्य हो, वैसे ही मैं भी सर्वभूतात्म-भूतात्मा, प्रिय और इष्ट, सब के अन्तर्हृदय में नित्य विद्यमान परमेश्वर हूँ। मेरी ही तरह मेरी भक्ति भी मुझ परमेश्वर से अविच्छिन्न है। अपने निज-भान से भी प्रत्येक ही जाने-अनजाने मुझे ही जानता है। यही है नित्य भक्ति। किन्तु जैसा मैंने पहले कहा, ज्ञातृत्व के आविर्भाव के बाद ही भोक्तृत्व, कर्तृत्व और स्वामित्व उत्पन्न होते हैं, और बुद्धि के मलिन और मंद होने से अस्मिता-रूपी तुम्हारा तत्व भी प्राणियों के लिए अनवरत क्लेशों का कारण हो जाता है।"
तब माता पार्वती ने कहा :
"प्रभो, प्राणिमात्र की निज-आत्मा होते हुए भी आप ही प्रत्येक में निज-चेतना के रूप में उनके जन्म-पुनर्जन्म का मूल कारण हैं और मैं विद्या-अविद्यारूपी शक्ति से उनके जगत का।
किन्तु, हे प्रभु! मैं आपका ही अंश हूँ और मेरे अभाव में आप अपूर्ण हैं।
जिस प्रकार आपने आज अपनी भूमिका के रूप में गुरुपद पर आसीन होकर मुझ पर कृपा की, और मुझे परम-ज्ञान का उपदेश दिया, वैसे ही सदैव अपनी सभी संतानों को भी यही उपदेश देकर उनका उद्धार करें।।
ॐ शिवार्पणमस्तु
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