तितीर्षु / तितीर्षा / तृषा
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यमराज मंगल कामना को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं :
यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।।
अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेत्ँशकेमहि।।२।।
यः सेतुः ईजानानां अक्षरं ब्रह्म यत् परम्। अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि।।
जो नाचिकेत / त्रिणाचिकेत / पञ्चाग्नि नामक अग्नि / विद्या है, जो कि अक्षर परम ब्रह्म है, उस विद्या रूपी सेतु से संसार से पार जाने के अभिलाषी हम उपासक, उस सेतु के माध्यम से अभय पद रूपी ब्रह्म को प्राप्त कर सकें।
इस अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए,
आत्मान्ँ रथिनं विद्धि शरीर्ँ रथमेव तु।।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।।३।।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथं एव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहं एव च।।
आत्मा अर्थात् स्वयं अपने-आप को रथ पर आरूढ के रूप में जानो, शरीर को उस रथ की तरह, जिस पर तुम आत्मा के रूप में आरूढ हो। बुद्धि को उस रथ को चलानेवाला सारथी समझो, और मन को उन अश्वों की वल्गा (लगाम / bridle) जो कि इस शरीर रूपी रथ में जुते हुए हैं।
कौन से अश्व?
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयान्ँस्तेषु गोचरान्।।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तूत्याहुर्मनीषिणः।।४।।
इन्द्रियाणि हयान् आहुः विषयान् तेषु गोचरान्। आत्मा-इन्द्रिय-मनः-युक्तं भोक्ता-इति-आहुः-मनीषिणः।।
इस शरीर रूपी रथ में इन्द्रियों को हय, अर्थात् अश्व कहा जाता है, विषयों को वह भूमि जिस पर वे अश्व चलते हैं, क्योंकि विषय ही वह क्षेत्र है, जिसमें मनुष्य की इन्द्रियाँ गतिशील होती हैं। इन्द्रियों और मन से युक्त होने पर आत्मा ही विविध भोगों का भोक्ता है, ऐसा मनीषी कहते हैं।।
अविवेकी पुरुष की गति
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यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।।
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः।।५।।
यः तु अविज्ञानवान् भवति अयुक्तेन मनसा सदा। तस्य इन्द्रियाणि अवश्यानि दुष्ट-अश्वाः इव सारथेः।।
जिस मनुष्य (अर्थात् आत्मा) का सारथी (बुद्धि) विवेक-हीन होता है, और इसी तरह जिसका मन भी अयुक्त, असामञ्जस्य अर्थात् विसंगति से युक्त होता है, उसकी इन्द्रियाँ भी उन अश्वों की ही तरह उसके वश से बाहर होती हैं, जैसे किसी रथ में जोते हुए वे अश्व जिन पर सारथी का नियंत्रण नहीं होता।
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विवेकशील पुरुष की गति
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यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा।।
तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः।।६।।
यः तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा। तस्य इन्द्रियाणि वश्यानि सद् अश्वा इव सारथेः।।
अविवेकी पुरुष की तुलना में, जिस पुरुष (आत्मा) की बुद्धि / सारथी, विवेक से युक्त, और जिसका मन सामञ्जस्यपूर्ण होता है, उसकी इन्द्रियाँ भी उस रथ में जुते अश्वों की ही तरह उसके अनुशासन और नियंत्रण में होती हैं जिसका सारथी अपने रथ का संचालन कुशलता से करता हो।
अविवेकी और विवेकी पुरुष की गति क्रमशः कैसी होती है, अब इसका वर्णन किया जाता है :
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाशुचिः।।
न स तत्पदमाप्नोति स्ँसारं चाधिगच्छति।।७।।
यः तु अविज्ञानवान् भवति अमनस्कः सदा अशुचि। न सः तत् पदं आप्नोति संसारं च अधिगच्छति।।
जो मनुष्य अविवेकसे युक्त बुद्धि का आश्रय लेता है, जिसका मन विशृङ्खल और अस्त-व्यस्त होता है, जो सदा अशुद्ध होता है, वह उस परमात्मा, परम पद को तो प्राप्त नहीं करता, किन्तु संसार में ही रहता है (और इस दुःखालय रूपी) संसार में सदैव शोक से ग्रस्त होता है।
इसकी तुलना में :
यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः।।
स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते।।८।।
यः तु विज्ञानवान् भवति स-मनस्कः सदा शुचिः। सः तु तत् पदं आप्नोति यस्मात् भूयः न जायते।।
किन्तु जो विवेकशील बुद्धि और श्रेष्ठ मनवाला, सदैव शुद्ध होता है, वह उस परमात्मा को, उस परम पद को प्राप्त कर लेता है, जिसे प्राप्त करने के बाद पुनः जन्म नहीं होता।
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