December 29, 2017

गुलज़ार, मन्ना-डे, आशीर्वाद,

जीवन से लंबे हैं बन्धु, ये जीवन के रस्ते
ये जीवन के रस्ते !
इक पल रोना होगा बन्धु,
इक पल चलना हँस के,
ये जीवन के रस्ते !
राही से राहों का रिश्ता कितने जनम पुराना,
एक को आगे जाना होगा,
एक को पीछे आना,
मोड़ पे रुक मत जाना बन्धु,
दोराहों में फँस के !
ये जीवन के रस्ते !
दिन और रात के हाथों नापी,
नापी एक उमरिया,
साँस की डोरी छोटी पड़ गई,
लंबी आस डगरिया,
भोर के मंज़िलवाले उठकर,
भोर से पहले चलते,
ये जीवन के रस्ते !
--
आत्मा को जानने का मार्ग जीवन से भी अधिक लंबा है, जीवन तो केवल उसका एक पड़ाव है । इस पड़व पर कभी रोना तो कभी हँसना होता रहेगा ।
इस राह (आत्मा तथा उसे जानने का मार्ग) से राही का रिश्ता इसी नहीं अनेकों जन्म पुराना है, यह नित्य-राह निरंतर अतीत से वर्तमान तक आती हुई भविष्य को जाती है । मनुष्य को चाहिए कि दोराहों पर भ्रमित होकर रुक न जाए, इस राह को ध्यान में रखे, इसे छोड़ न दे !
दिन और रात के क्रम से जीवन की यह उम्र, साँस की डोरी से, नापी गई, तो साँस की यह डोरी नाप न सकी, और छोटी पड़ गई, जबकि आशा की डगर (आत्मा से भिन्न दिशा में ले जानेवाली राहें) हर मोड़, हर दोराहे पर मिलती रहीं । जिन्हें भोर (आत्म-ज्ञान) की मंज़िल पर पहुँचना होता है वे राही (पथिक) भोर होने से पहले ही अंधकारमय संसार से उठकर अपने पथ पर चल पडते हैं !
ऐसे हैं ये जीवन से लंबे, ये जीवन के रस्ते !
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December 27, 2017

कविता : समय की सरिता का जल,

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कुछ भी !
समय की सरिता का जल,
सरिता के आँसुओं में;
समय काजल,
घुलमिलकर हो रहे हैं एक,
बिक रहा है आज ’समय’ भी
बोतलबंद पानी की तरह !
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December 17, 2017

मन नहीं मेरा बस / किस्सी

कुछ भी!
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’मन नहीं मेरा बस’,
योगिता ने कहा था सुबह ऑफ़िस जाने से पहले
’बस?
बस??’
पूछा अवनि ने ।
’पापा!
आप मदद करेंगे?’
’बोलो बेटे ?’
’सेनापति स्त्रीलिंग है पुल्लिंग?’
’पुल्लिंग!’
’हा-हा.., लॉक कर दिया जाए?’
’हाँ...!’
’प्रारब्ध और नियति में अंतर स्पष्ट करो।’
’जो हो रहा है वह प्रारब्ध है,
जो हो चुका, या हो चुकेगा वह नियति’
’हा-हा.., लॉक कर दिया जाए?’
’नीम का पेड़’ का लेखक कौन है?
’राही मासूम रज़ा ...’
’हा-हा.., लॉक कर दिया जाए?’
’शनिवार शुक्रवार से पहले और रविवार के बाद भी आता है !’
’यह कुछ अजीब नहीं है पापा?’
’हाँ, विचित्र किंतु सत्य’
’हाऊ स्वीट पापा!,
वह मेरे गाल पर किस्सी देती है,
’बाय ममा!
आपको ऑफ़िस के लिए देर न हो जाए!
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December 16, 2017

आज की कविता / बोझ

आज की कविता
बोझ
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जीवन नहीं,
उम्र बोझिल होती है,
नहीं-नहीं,
उम्र नहीं,
अतीत बोझिल होता है,
नहीं-नहीं,
अतीत नहीं,
समय बोझिल होता है,
नहीं-नहीं,
समय नहीं,
याददाश्त
बोझिल होती है ।
और जब,
याददाश्त मिट जाती है,
उम्र भी मिट जती है,
उतर जाता है,
सारा बोझ सिर से,
पलक झपकते!
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December 07, 2017

बदलाव

एक सरासर गलत ख़याल
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मैं बदलना चाहता हूँ,
लेकिन बदलना नहीं चाहता,
पर बदलना अगर बदा है,
तो बदल ही जाऊँगा!
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रहस्य : अगर आप बदल रहे हैं तो आपको यह कैसे पता चल पाएगा कि आप बदल गए? क्या यह एक विरोधाभास नहीं हुआ? वस्तुतः आप कभी बदल ही नहीं सकते यह अकाट्य सत्य है, अगर कुछ बदलता है तो वह है आपकी खुद के बारे में राय, और यह तो यूँ भी बदलती रहती है इसके बदलने से आप कहाँ प्रभावित हो सकते हैं । क्योंकि प्रभावित होने का मतलब हुआ बदलना ...!
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वास्तव में इस वक्तव्य को कई दृष्टियों से समझा जा सकता है । व्यवहार की भाषा में ’मैं’ शब्द का जो अर्थ ग्रहण किया जाता है उसका अपना प्रयोजन और उपयोग है लेकिन जब अध्यात्म की सर्वोच्च सीढ़ी पर इस शब्द का उपयोग किया जाता है तो इसके लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ के सन्दर्भ में इस अर्थ की विवेचना की जाती है ।
इस एक शब्द ’मैं’ जिसके लिए संस्कृत में अहं तथा अहंकार दोनों रूपों में प्रयोग किया जाता है में से प्रथम अर्थ अधिष्ठान अर्थात् परम सत्य की ओर संकेत के लिए किया जाता है और जो व्यक्ति-विशेष नहीं होता, जबकि दूसरा व्यक्ति-विशेष के अर्थ में किया जाता है । सामान्यतः न तो किसी का ध्यान इस अंतर की ओर जाता है, न किसी की स्वाभाविक उत्सुकता इसे जानने में होती है जब तक कि मनुष्य में विवेक और वैराग्य से इतनी परिपक्वता न आ जाए जब इसे जानना उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न ही न बन जाए । संसार में रहते हुए यह हो पाना कठिन अवश्य है लेकिन असंभव नहीं । और जब कोई प्रश्न जीवन-मरण का हो जाता है तो कठिन है या आसान यह कम महत्व का और उस प्रश्न का समाधान अधिक महत्व का हो जाता है । कोई व्यक्ति कुएँ में गिर जाए तो वहाँ से बाहर निकल पाना कठिन है या सरल है इसका महत्व उतना अधिक नहीं रह जाता जितना इसका कि वह कैसे वहाँ से बाहर आ सके ।
इसलिए यह वक्तव्य एक प्रकार से आत्म-अनुसंधान का प्रवेश-द्वार ही है ।
अधिकांश प्रकरण-ग्रंथों जैसे गीता-उपनिषद आदि में इस प्रश्न का सिद्धान्त भर बतलाया जाता है जबकि विवेक-चूडामणि, पञ्चदशी, अपरोक्षानुभूति आदि में तथा श्री रमण महर्षि, श्री निसर्गदत्त महाराज तथा श्री जे.कृष्णमूर्ति के साहित्य में इसे कैसे हल किया जाता है उसकी विधि विस्तार से स्पष्ट की जाती है । पात्र के लिए वह वहुत उपयोगी सिद्ध होती है जबकि केवल बौद्धिक रीति से उसे पढ़ना उस दिशा में रुचि भले ही पैदा कर दे, प्रायः सतह पर ही रह जाता है ।
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एक सवाल : "स्वेच्छया कोई नहीं बदलता ।
सम्यक् रूप से कोई नहीं बदलता लेकिन क्षणिक प्रलय रोज ही बदल देती है सबको थोड़ा-थोड़ा ..."
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यहाँ बौद्धिक चर्चा न करते हुए ऐसा कह सकते हैं कि बदलाव का अभिप्रेत किसी ’कोई’ के सन्दर्भ में नहीं, अपने स्वयं के ’मैं’ के बदलने के सन्दर्भ में है । जब मुझे लगता है कि मैं बदल गया, बदलना चाहता हूँ, नहीं बदलना चाहता... आदि तो मेरे सन्दर्भ में इसका मतलब यह हुआ कि ’मैं’ ऐसी वस्तु है जो अपने बदलाव होने के तथ्य को जान और प्रमाणित कर सकती है । अनुभव या तर्क से भी यह मतलब मूलतः त्रुटिपूर्ण और असंगत है । ’मैं अपने को नहीं जानता’ या ’मैं अपने को जानता हूँ’ यह विचार भी उतना ही त्रुटिपूर्ण और असंगत है । व्यवहार ’जानना’ शब्द का प्रयोग हमेशा इस धारणा पर आधारित होता है कि ’जाननेवाला’ और ’जिसे जाना जाता है’ वे दो पृथक् वस्तुएँ हैं और ’जानकारी’ / ’ज्ञान’ उन्हें जोड़ता है, उन्हें संबंधित करता है । अपने-आपको जानना या न जानना इस दृष्टि से असंभव है । फिर अपने-आपको बदलना तो नितांत असंभव है । इसलिए जिस ’बदलाव’ की बात यहाँ कही जा रही है वह दुनिया या किसी दूसरे के बदलाव के बारे में नहीं बल्कि अपने-आपके संभावित बदलाव के बारे में है ।
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December 06, 2017

भोग, कर्म, बोध, मैत्री और सहजता

भोग, कर्म, बोध, मैत्री और सहजता
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संसार में किसी से भी संबंध / लगाव / जुड़ाव उपरोक्त बहानों या कारणों से होता है ।
इसे कहते हैं ’पात्रे समिता’, जैसे कौए और कुत्ते, गौएँ और भेड़-बकरियाँ, और समूह में रहनेवाले जीव-विशेष, जो समय के साथ एक-दूसरे के मित्र या प्रतिद्वन्द्वी भी हो जाते हैं । राजनीति इसका सबसे बड़ा प्रत्यक्ष उदाहरण है । व्यापार, व्यवसाय, धार्मिक संगठन, संस्थाएँ आदि भी इसका अपवाद नहीं हैं । भले ही उनके उद्देश्य और आदर्श कितने ही श्रेष्ठ क्यों न प्रतीत होते हों जब व्यक्तिगत स्वार्थ पर आँच आती है, या प्रतिष्ठा / अहं का प्रश्न पैदा हो जाता है तो संस्था अनेक समूहों / गुटों में बँट जाती है । जिनके आदर्श और उद्देश्य भले ही एक जैसे दिखाई देते हों, भीतर ही भीतर उनकी भिन्न-भिन्न व्याख्या वे अपने ढंग से करते हैं । यहाँ तक कि राज्य का क़ानून भी इसका अपवाद नहीं हो सकता । क़ानून से अधिक शक्ति उसकी व्याख्या में है और व्याख्या करनेवाले व्याख्या से भी अधिक शक्तिशाली होते हैं ।
सामान्य जन हो या विशिष्ट ’elite', ’संभ्रान्त’ सबके अपने-अपने समूह होते हैं और एक ही व्यक्ति एक से अधिक समूहों से भिन्न-भिन्न कारणों से जुड़ा होता है । ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि पूरा समाज और प्रत्येक व्यक्ति भी अत्यन्त विखण्डित-चित्त है और एक-दूसरे से जुड़ाव तात्कालिक ज़रूरत और अस्थायी महत्व का होता है ।
जब आप फ़िल्म देखने जाते हैं, खाने-पीने के लिए होटल, रेस्त्राँ या कैफ़े में जाते हैं, बस या ट्रेन में सफ़र करते हैं काम पर जाते हैं, काम से लौटते हैं, परिवार के साथ या मित्रों या अपरिचित लोगों के साथ होते हैं, या शाम को देसी शराब की दुकान पर जाते हैं तो वही विखंडित-चित्त मनुष्य अपने ही जैसे लेकिन फिर भी अपने से बहुत अलग क़िस्म के लोगों के साथ होता है ।
आज की स्थिति में यह तथ्य इतना ही या इससे भी कहीं अधिक फ़ेसबुक और अन्य सोशल-नेट्वर्किंग-साइट्स पर भी लागू होता है । वहाँ भय, आशंका, लोभ, आकर्षण, धोखा खाने और देने के लिए और अधिक कारण तथा  सुविधाएँ हैं । और कोई ख़ुद को दूध का धुला होने का दावा कर ही नहीं सकता क्योंकि इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता ।
समाज का यह पूरा विन्यास कुल मिलाकर सामाजिकता के दायरे में ’भोग’ की समानता के अधिकार के उपभोग की स्वतन्त्रता पर निर्भर है ।
दूसरी ओर कर्म के लिए होनेवाला जुड़ाव कुछ भिन्न है । आप दफ़्तर या कार्य-स्थल पर अपना कार्य करते हुए लोगों के संपर्क में आते हैं और वहाँ भी कुछ लगाव पैदा हो जाते हैं जो लगाव और फिर संबंध बनते हुए रिश्ते-नाते जैसे हो जाते हैं, जिनमें अनकहे वादे, क़समें, अपेक्षाएँ छिपी तो होती हैं या फिर जान-बूझकर या अनजाने ही उन्हें छिपाया भी जाता है, क्योंकि ’पासवर्ड’ के अलावा भी हर व्यक्ति की कुछ न कुछ ऐसी नितान्त निजि बातें होती हैं जिन्हें दूसरों से साझा किया भी नहीं जाना चाहिए ।
इस प्रकार कोई भी जुड़ाव किसी माध्यम से होता है, परिस्थिति भी ऐसा ही एक माध्यम होती है ।
ऐसा विखंडित-चित्त मनुष्य बच्चे जैसा सरल-चित्त हो पाए इसकी संभावना कितनी है?
जब तक मैं अपने भीतर अस्पष्ट, दुविधा में हूँ तब तक क्या मैं खुद की या किसी दूसरे की वास्तविक मदद कर सकता हूँ ?
क्या मदद करने के लिए किसी विचार, सिद्धान्त या आदर्श का  सहारा लेना यही नहीं दर्शाता कि ऐसी मदद अनायास अन्तःस्फ़ुरित प्रेम से प्रेरित न होकर किसी अप्रत्यक्ष स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए (और उसकी आदत हो जाने के कारण) की जा रही है? क्या वहाँ भी आपके मन में संशय और दुविधा नहीं होते? सड़क पर खड़ी गाय को रोटी देने के कार्य में भले ही ऐसा संशय या दुविधा न होते हों, लेकिन भिखारी को कुछ देने की स्थिति में क्या संशय या दुविधा सर नहीं उठाते? तब आप किसी विचार, सिद्धान्त, दर्शन आदि से अपना कर्तव्य भले ही तय कर लें किंतु आपका चित्त क्या उस दुविधा से वैसे ही उबर पाता है जैसे आपकी कोई व्यक्तिगत चिन्ता मिटने पर हुआ करता है?
यदि आप इतने ही सरल चित्त हैं तो आपका अस्तित्व ही मैत्री है । तब आप अनायास ही सबकी सहायता करते हैं । तब आप सफलता अथवा असफलता को महत्व न देते हुए गरीब या संपन्न होते हुए, अनपढ़ या सुशिक्षित, उच्च, मध्यम, या निम्न सामाजिक हैसियत वाले होकर भी सहृदय होते हैं । तब आप विखण्डित-चित्त नहीं होते, लेकिन ऐसा होने का दावा भी नहीं करते । तब आप ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते । तब आप जहाँ होते हैं अपने आसपास के लोगों तक शान्ति और सौहार्द्र फैलाते हैं , भले ही प्रत्यक्षतः आप ऐसा कुछ करते हुए न भी दिखाई देते हों ।
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शायरी और काव्य

माना आप नाचीज़ हैं, इतना तो करम कीज़िए,
ज़र्रानवाज़ होने का हमको एक मौक़ा दीजिए !
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शायरी मेरा शौक़ नहीं, न किसी से जुड़ने का बहाना,
बस तभी जब होता है दिल बहलना या बहलाना !
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असमंजस बाबू

असमंजस बाबू 
काश,
जीवन यूँ ही
असमंजस में बीतता रहे ।
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यहाँ (फ़ेसबुक पर) रहने का मतलब है ’असमंजस बाबू’ बने रहना । क्योंकि जब किसी के वक्तव्य पर टिप्पणी करने का मन होता है तो असमंजस महसूस होने लगता है । क्योंकि या तो मैं बस कोई हल्का-फुल्का, सतही, फ़ॉर्मल कमेंट लिख कर छुट्टी पा लेना चाहता हूँ या फिर पूरी गंभीरता से अपना दृष्टिकोण सामने रखना चाहता हूँ । हालाँकि मुझे पता नहीं कि मेरे कमेंट को कितनी गंभीरता से या सतही तौर पर ग्रहण किया जाएगा । उदाहरण के लिए आपके इस स्टेटस पर मैं कहना चाहता था कि जिसे पता है कि वह असमंजस में है, उसे यह भी पता है कि वह नहीं उसका ’मन’ असमंजस में है । इस प्रकार अपने को मन से पल भर के लिए भी अलग महसूस कर लेना स्पष्ट कर देता है कि जो असमंजस से ग्रस्त है या मुक्त है वह मन नामक कल्पना मात्र है । जिस बोध में यह स्पष्ट होता है वह न तो मन है, न व्यक्ति ।
सादर,   

ऊँट के बहाने ! विषयान्तर

विषयान्तर
कुछ भी !
ऊँट किस करवट बैठेगा,
लगा रहे अपने क़यास,
उसकी करवट की फ़िक़्र में,
बदल रहे हैं करवटें !
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ऊँट को संस्कृत में क्रमेलकः क्रम में चलनेवाला कहा जाता है ।
पैलेस्टाइन, फ़लस्तीन, पीलु (ताड़), phaḻam, फलम्, தமிழ்
में பழம் paḷam .
(क्योंकि रेगिस्तान में यही फल होता है!) तो प्रसिद्ध हैं ही!
संस्कृत में ही पीलु को ’कर’ अर्थात् ’हाथ’ और ताड़ को खर्जूर कहा जाता है, ’कर’ से ’कैरो’ / ’काहिरा’ तो क्रमेलक से कैमल और क्रैमलिन का ! संस्कृत में खर्जूरशालम् का अर्थ है वह स्थान जहाँ खजूर के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हों ।
अनुमान है कि कैरो-जरूसलम् / क़ाहिरा-येरुशलम् इसी का अपभ्रंश होगा ।
दूसरी ओर अरबी में ख़ार का मतलब है ’काँटा’ । इससे भी खज़ूर / कैरो की उत्पत्ति समझ सकते हैं । क्या ’कैक्टस्’ ने भी अपना नाम इसी से पाया होगा?
ग़ौरतलब है कि ’पॉम’ का अर्थ हथेली और ताड़ दोनों है ।
हस्ति और हाथी को भी पीलु / फ़ील कहा जाता है, महावत को अर्थात् हाथी या ऊँट को अंकुश में रखनेवाले को ’फ़ीलवान’!
हस्ति और हथेली भी आकृति में ताड़ होते हैं !
प्रसंगवश : Chiero / कीरो नामक आयरिश हस्त-शास्त्र विशेषज्ञ तो प्रसिद्ध है ही !
(सोचता हूँ इतना ’फील’ नहीं होना चाहिए!)
बहरहाल सुप्रभात!
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December 01, 2017

वक़्त का तरीका / कविता

राहत ...
-->
वक़्त खुद ही करता है सवाल कोई,
और खुद ही दे देता है जवाब उसका ।
वक़्त खुद ही पूछता है पहेली कोई,
और खुद ही बूझ लेता है उसको ।
मुझसे अब ऊब चुका है शायद,
मैं भी तो परेशान बहुत था उससे ।
और अब कहीं जा के समझ पाया हूँ,
खुद को बिताने का तरीका है उसका !
--

November 21, 2017

कविता का गूढ किंतु प्रकट सौन्दर्य

कविता लिखना और पढ़ना दोनों चित्त को उत्फुल्ल कर देते हैं ।
कोई कविता किसी दूसरी से कम या अधिक भावपूर्ण हो सकती है,
भाव और अभिव्यक्ति की शैली और शब्द भी कम या अधिक सुंदर हो सकते हैं फिर भी उनमें से कौन सी श्रेष्ठ है कहना कठिन हो सकता है क्योंकि कविता मूलतः छन्द है, वेद को ’छन्द’ कहा जाता है, ईश्वर को ’कवि’ और कवि वह होता है जो अपना ’छन्द’ खोज लेता है ।
इसलिए हर कवि अपने-आपको खोजते खोजते अपना छन्द खोज लेता है, और तब उसकी कविता अवश्य ही उसके भाव / भावना का साकार रूप होती है । सवाल सिर्फ़ यह है कि वह किस बारे में कुछ कहना / लिखना चाहता है ! और जब वह ऐसा जान लेता है तो उसे इसके लिए भीतर से ही प्रेरणा भी अनायास मिल जाती है ।
--
दूसरी ओर किसी दूसरे की लिखी कविता पाठक को इस हद तक भाव-विभोर कर सकती है जिसे लिखते समय कवि स्वयं भाव की उस गहराई को न छू पाया हो, अर्थात् पाठक उस गहन भाव-दशा में निमग्न हो सकता है जो वस्तुतः उसकी अपनी चित्त-दशा और मन की गहराई होती है और कवि केवल उस गहराई तक जाने के लिए उत्प्रेरक भर होता है । इसलिए कभी-कभी कविता लिखते समय कवि के मन में जिसकी कल्पना तक नहीं हुई होती, पाठक रचना में उस अर्थ का आविष्कार कर लेता है और कवि / कविता से अभिभूत हो उठता है ।
यह चमत्कार कविता का गूढ किंतु प्रकट सौन्दर्य भी है ।
--

कविता : तुम्हारे लिए,

आज की कविता

तुम्हारे लिए,
--
मैं तुम्हारी कविता को सुनता भर हूँ,
सुनकर मेरा चेहरा,
ज़रूर कोई प्रतिक्रिया देता होगा,
लेकिन वह उसकी प्रतिक्रिया होती है,
-मेरी नहीं ।
मैं तुम्हारी कविता को सुनता भर हूँ,
तुम्हारी कविता उतर आती है ज़ेहन में,
हो जाती है मेरे वज़ूद का हिस्सा,
जिसे बाक़ी हिस्सों से अलग नहीं देखा जा सकता ।
मैं तुम्हारी कविता को सुनता भर हूँ,
जैसे सुनता हूँ,
बारिश की बूँदों की टप्-टप्,
जो बदलती रहती है लय-ताल,
कभी तेज़ कभी धीमे स्वरों में,
साँस सी चलती रहती है मेरे भीतर,
और मैं साँस को कभी महसूस न भी करूँ,
तो भी ज़िन्दा रहता हूँ उन्हीं से !
मैं तुम्हारी कविता को सुनता भर हूँ ।
--
21-11-2017

November 16, 2017

सृजन अश्रु है!

सृजन अश्रु है!
--
अश्रु भी सृजन है,
इसलिए आह्लाद है,
अश्रु भी विरह है,
इसलिए पीड़ा है,
अश्रु भी मिलन है,
इसलिए सुख है,
अश्रु भी प्रकृति है,
इसलिए मुक्ति है,
अश्रु जब बहता है,
स्रष्टा है, सरिता है,
अश्रु जब रुकता है,
कथा है, कविता है !
--

November 12, 2017

कविता से!

>
कविता से!
--
मैं प्रेयसि बन जाऊँ कविते,
तुम बन जाना प्रियतम,
तुम कविता रचना मुझ पर,
मैं इठलाऊँगा शर्माऊँगा!
रूठूँगा भी मैं कभी-कभी,
चाहे झूठा या सच्चा हो,
तब तुम मुझे मनाना प्रियतम,
सपना मीठा या कच्चा हो!
प्रकृति तुम्हारा देह-रूप,
मैं निराकार बस शून्य-व्योम,
नर्तकि तुम हो सतत नृत्य,
मैं हूँ अचल, निरंतर मौन!
तुम दिग्-दिगन्त तक फैले सुर,
लय तान ताल तुम छन्द-शब्द,
मैं श्रोता दर्शक बस विमुग्ध,
मेरा अस्तित्व केवल निःशब्द,
जब मैं तुम हो जाऊँगा,
जब तुम मैं हो जाओगी,
सृष्टि पूर्णता तब होगी,
तब तक तो है यह अपूर्ण ।
प्रणयोत्सव का मर्म यही ,
कवि कविता हों परम अनन्य,
कविता में कवि, कवि में कविता,
विलय परस्पर जीवन धन्य ।
--


November 07, 2017

छोटी कविता : पत्थर

>
नज़्म पत्थर हुआ करे कोई,
बज़्म पत्थर हुआ करे कोई,
अजीब दस्तूर है जमाने का
रस्म पत्थर हुआ करे कोई !
--

इंडियन रोप-ट्रिक

इंडियन रोप-ट्रिक / कविता
--
हैरत कि हवा में खड़ा रस्सा,
गिरता भी नहीं, हिलता भी नहीं,
मेले में आया, तो यहाँ खिंचा आया,
कौन है जादूगर पता नहीं मुझको,
देखता हूँ कई लोग हैं कतारबद्ध,
मैं भी हूँ उनमें से एक तमाशबीन,
और अब एक शख़्स आया आगे,
चढ़ने लगा है वो रस्से पे अब,
धीरे-धीरे वो पहुँच गया है वहाँ,
जहाँ दिखाई देता है रस्से का सिरा,
और फिर होता है अचानक ग़ायब,
हवा में घुल गया हो जैसे वो,
और अब आ गई मेरी भी बारी,
न कोई शक या डर न घबराहट,
सधे क़दमों से मैं जाता हूँ वहाँ,
दोनों हाथों में पकड़कर रस्सा,
पैरों से उसका सहारा लेकर,
और सब साँस रोककर के मुझे,
देखते हैं लोग बड़ी हैरत से मुझे ,
उन सबको भी आना है मेरे पीछे,
राज़ फिलहाल बस मुझे है मालूम,
और मैं लो पहुँच गया हूँ वहाँ,
जहाँ दिखाई देता है रस्से का सिरा,
ज़िन्दगी पड़ाव नहीं, चढ़ाव है एक,
चढ़ते जाना ही सबकी मंज़िल है,
और मंज़िल पे पहुँच जाने के बाद,
ऐसे हो जाना अचानक ग़ायब,
हवा में घुल गया हो जैसे कोई ।
और फिर पहुँच गया हूँ वहाँ,
मिल रहे हैं मेले के जहाँ टिकिट,
लग गया हूँ फिर से मैं कतार में,
अभी पूरी नहीं हुई हसरत ।
-- 
   

November 04, 2017

चिरंतन प्रेमी

आज की कविता
--
द्वार पर संध्या की आहट,
आ रही पदचाप उसकी,
जा रहा मध्याह्न भी अब,
दो घड़ी का मिलन उनका,
रोज़ ही मिलते-बिछुड़ते,
जैसे पुरातन दोनों प्रेमी,
द्वार ठिठका देखता भर,
प्रीति का यह मिलन अद्भुत् ।
--
नमस्ते!

संक्रमण / Transmigration.

हिन्दी अनुवाद : विनय कुमार वैद्य
महासमाधि 
गहन ध्यानमग्नता में मैं इस देह को त्याग देता हूँ,
शाश्वत दिवस के उजाले की निःस्तब्धता में लीन,
मेरी आत्मा परमेश्वर की महिमा में जीवंत-प्राणवान,
सभी लोकों के सौहार्द्र में सुन सकते हो इसे तुम,
मैं पुनः देह में अवतरित हो आऊँगा अपने संकल्प से,
किंतु अंततः तो रेत में खड़े महल सा ढह जाऊँगा,
और किसी दिन यह समूची धरती भी नहीं होगी,
इन विशाल महासागरों और उनके तटों के साथ,
महाशून्यता भौतिक-सृष्टि को अभिभूत कर प्रकट होगी,
और बहुत सी जीवात्माएँ संक्रमण करेंगीं परमेश्वर में!
--

November 02, 2017

कच्चा मन, पक्का मन ...

कुछ भी !
--
ख़याल कच्चा है, कच्चा ही उसे रहने दो,
दिल जो बच्चा है, बच्चा ही उसे रहने दो,
ख़याल दिल में अंधड़ से चले आते हैं,
दिल में धूल बस छोड़कर चले जाते हैं,
धूल बस बना देती है दिल को बोझिल,
क्यों उसमें ख़यालों की झलक पाते हैं?
ख़याल ताज़ा है, आहट है नए मेहमाँ की,
ख़याल नाज़ुक है छुअन है उसमें तितली की,
ख़याल हर रंग में हर रूप लिए रहता है,
बस वो दिल को छूकर के गुज़र जाता है,
दिल जो बस फूल है, फूल ही उसे रहने दो,
दिल के इस फूल पर धूल मत चढ़ने दो,
और जब चढ़ने लगे दिल को सूख जाने दो,
दिल को हर दिन नए फूल सा खिल जाने दो,
मन ये जो पौधा है जिस पे फूल लदे रहते हैं,
हाँ ये करता है इंतज़ार सदा तितली का,
हाँ ये करता है इंतज़ार फूलों भौरों का ।
ये देवता नहीं जिस पे चढ़ाओ तुम फूल,
हाँ ज़रूरी है न चढ़ने दो इस पर धूल,
मन ये हर रोज़ हुआ करता, जागता है नया,
और हर रंग में बढ़ता ही रहता है हर रोज़,
ये जवान ही हुआ करता है, दिन पर दिन,
ये कभी बूढ़ा नहीं होता न मरता है कभी,
राज़ इसका कभी अगर तुम ये समझ जाओगे,
इसमें जीवन की हक़ीकत भी समझ जाओगे ।
--   
कच्चा मन, पक्का मन ...


October 23, 2017

दावे!

कविता 
दावे!
--
कलम का दावा था,
’मैं लिखती हूँ’
कागज़ का दावा था,
’मेरे होने से’,
उँगलियाँ कहती थीं,
’हम लिखती हैं’,
हाथ कहता है,
’मैं लिखता हूँ’
दिल को मालूम नहीं,
लिखता है कौन,
और वो लिखता है,
बेबस,
बस होता है मौन!
--

October 16, 2017

काल-विवर्त

काल-विवर्त
_____________

कभी कभी दिन तेजी से बीतते हैं।
कभी कभी बहुत धीमे।
हर दिन एक अलग तरह का होता है ।
भौतिक अर्थ में तो जिसे मापा जा सकता है, वह लगभग चौबीस घंटों का होता है, लेकिन 'मानसिक' समय जिसे मापा  नहीं जा सकता मानो रबर की इंची-टेप होता है, जिसे हम (शायद हर कोई) जरूरत और वक्त के हिसाब से खींचकर छोटा-बडा  कर लिया करता है । समय की यह लंबाई, जो अनुभूति के सीधे अनुपात में होती है, भौतिक समय पर लादकर हम सोचने लगते हैं कि 'समय' धीमे या तेजी से गुजरता है।
मैं जब स्कूल में पढ़ता था तो मेरे भौतिक शास्त्र के अध्यापक मेरी इस दलील पर मुस्कुराते हुए कहते थे,
तुम तर्क-शास्त्र में कुशल हो लेकिन तुममें सामान्य समझ की कमी है । और मैं सोचता था, मुझमें जो प्रश्न उठते हैं उनके उत्तर इनके पास नहीं है।
वाल्मीकि-रामायण में काल-विवर्त का उल्लेख है।
वाली की पत्नी तारा ने उससे प्रार्थना की थी कि वह छोटे भाई सुग्रीव से वैर का अंत कर प्रभु श्रीराम से मैत्री कर ले किन्तु वाली कालपाश में बंधा था इसलिए उसने पत्नी के हितकारी वचनों की उपेक्षा की और युद्ध न करते हुए भी प्रभु श्रीराम के बाण से मारा गया :
तदा  तारा हितमेव वाक्यं
तं  वालिनं  पथ्यमिदं बभाषे ।
न रोचते तद् वचनं हि तस्य
कालाभिपन्नस्य विनाशकाले।।
(वाल्मीकि-रामायण किष्किन्धाकांडे षोडशः सर्गः श्लोक ३१ अंतिम )
--  
   
    

~~शिव-वन्दना~~


~~शिव-वन्दना~~
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अनाम अनामय शिव,
प्रणाम निरामय शिव !
अपाम विराट प्रभो,
अमायिक विश्व विभो !
अन्यत्र अमिल शम्भो,
सुमिल हृदये अहो !
अर्पित है भावना,
स्वीकारो वन्दना ।
स्वीकारो वन्दना ॥


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इन्द्रकृत् श्रीरामस्तोत्रम्


॥  इन्द्रकृत् श्रीरामस्तोत्रम् ॥
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इन्द्र उवाच -
भजेऽहं सदा राममिन्दीवराभं
भवारण्यदावानलाभाभिधानम् ।
भवानीहृदा भावितानन्दरूपं
भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम् ॥१॥
सुरानीकदुःखौघनाशैकहेतुं
नराकारदेहं निराकारमीड्यं ।
परेशं परानन्दरूपं वरेण्यं
हरिं राममीशं भजे भारनाशम् ॥२॥
प्रपन्नाखिलानन्ददोहं प्रपन्नं
प्रपनन्नार्तिनिःशेषनाशाभिधानम् ।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यं
कपीशादिमित्रं भजे राममित्रम् ॥३॥
सदाभोगभाजां सुदूरे विभान्तं
सदा योगभाजामदूरे विभान्तम् ।
चिदानन्दकन्दं सदा राघवेशं
विदेहात्मजानन्दरूपं प्रपद्ये ॥४॥
महायोगमायाविशेषानुयुक्तो
विभासीश लीलानराकारवृत्तिः ।
त्वदानन्दलीलाकथापूर्णकर्णाः
सदानन्दरूपा भवन्तीहलोके ॥५॥
अहं मानपानाभिमत्तप्रमत्तो
न वेदाखिलेशाभिमानाभिमानः ।
इदानीं भवत्पादपद्मप्रसादात्
त्रिलोकाधिपत्याभिमानो विनष्टः ॥६॥
स्फ़ुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामं
धराभारभूतासुरानीकदावम् ।
शरच्चन्द्रवक्त्रं लसत्पद्मनेत्रं
दुरावारपारं भजे राघवेशम् ॥७॥
सुराधीशनीलाभ्रनीलाङ्गकान्तिं
विराधादिरक्षोवधाल्लोकशान्तिम् ।
किरीटादिशोभं पुरारातिलाभं
भजे रामचन्द्रं रघूणामधीशम् ॥८॥
लसच्चन्द्रकोटिप्रकाशादिपीठे
समासीनमङ्के समाधाय सीताम् ।
स्फुरद्धेमवर्णां तडित्पुञ्जभासां
भजे रामचन्द्रं निवृत्तार्तितन्द्रम् ॥९॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे युद्धकाण्डे
त्रयोदशसर्गेइन्द्रकृतश्रीराम्स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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Prajna-Paramita-HRdaysutram ॥ प्रज्ञापारमिता-हृदयसूत्रम् ॥


॥ प्रज्ञापारमिता-हृदयसूत्रम् ॥
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अथ प्रज्ञापारमिता हृदयसूत्रम् ।
नमः सर्वज्ञाय ।
आर्यावलोकितेश्वरो बोधिसत्त्वो गंभीरायाम् प्रज्ञापारमितायाम् चर्यां चरमाणो, व्यवलोकयति स्म ।
पञ्चस्कन्धाः ।
तांश्च स्वभावशून्यान्पश्यति स्म ।
इह शारिपुत्र रूपं शून्यता, शून्यतैव रूपम् रूपान्न पृथक्शून्यता, शून्यताया न पृथग्रूपम्,
यद्रूपम् सा शून्यता, या शून्यता तद्रूपम् ।
एवमेव वेदना-संज्ञा-संस्कार-विज्ञानानि ।
इह शारिपुत्र, सर्वधर्माः शून्यतालक्षणा अनुत्पन्ना अनिरुद्धा अमला न विमला नोन न परिपूर्णाः ।
तस्माच्छारिपुत्र, शून्यतायाम् न रूपम्, न वेदना न संज्ञा न संस्कारा न विज्ञानानि ।
न चक्षुः-श्रोतृ-घ्राण-जिह्वा-काया मनांसि । 
न रूप-शब्द-गन्ध-रस-स्प्रष्टव्य धर्माः ।
न चक्षुर्धातुर्यावन्न मनो-विज्ञानधातुः ।
नविद्या नाविद्या न विद्याक्षयो नाविद्याक्षयो यावन्न ।
जरामरणं न जरा-मरणक्षयो ।
न दुःख-समुदायनिरोधमार्गा न ज्ञानम् न प्राप्तिः ।
न अप्राप्तिः ॥
तस्मादप्राप्तित्वाद्बोधिसत्त्वानाम् प्रज्ञापारमितामाश्रित्य 
विहरत्यचित्तावरणः ।
चित्तावरणनास्तित्वादत्रस्तो विपर्यासतिक्रान्तो निष्ठनिर्वाणः ॥
त्र्यध्वा-व्यवस्थिताः सर्वबुद्धाः प्रज्ञापारमितामाश्रित्यानुत्तराम् सम्यक्सम्बोधिमभिसंबुद्धाः ॥
तस्माज्ज्ञातव्यम् प्रज्ञापारमिता महामन्त्रो महाविद्यामन्त्रोऽनुत्तरमन्त्रोऽशम-शम-मन्त्रः सर्व-दुःख-प्रशमनः ।
सत्यममिथ्यत्वात् ।
प्रज्ञापारमितायामुक्तो मन्त्रः ।
तद्यथा -
गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा ॥

॥ इति प्रज्ञापारमिताहृदयम् समाप्तम् ॥

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October 15, 2017

क्षणिकाएँ

काश !
--
इतने फूल खिला करते हैं,
प्रकृति की बगिया में,
कितना अच्छा होता,
इन्सां भँवरा या तितली होता!
--
इतने झरने कल-कल करते हैं,
धरती के आँचल में,
कितना अच्छा होता,
इन्साँ कछुआ या मछली होता!
--

लौटना मन का

आज की कविता
--
लौटना, मन का ...
--
भटकता मन, भटकते-भटकते,
ख़ुद से, बहुत दूर चला जाता है
और उसे लगता है लौट आये,
लौटना  पर कहाँ हो पाता है?
खटकने लगता है मन को मन,
सहारा देता है खुद को खुद ही,
ख़ुदी कभी मन से दूर नहीं जाती,
ख़ुदी कभी मन से दूर नहीं होती,
हाँ ज़रूरी है ख़ुदी को देख ले वह,
ख़ुदी जो आती न जाती है कभी,
मन उभरता है, भटकता खोता है,
और आख़िर को खुद तक आता है ।
-- 

October 14, 2017

पेड़ और चिड़िया

आज की कविता
पेड़ और चिड़िया 
--
मैं अक्सर सोचा करता था,
क्या पेड़ देख सकते हैं?
मैं अक्सर सोचा करता था,
क्या पेड़ सुन सकते हैं?
मैं अक्सर सोचा करता था,
क्या पेड़ सूँघ सकते हैं?
मैं अक्सर सोचा करता था,
क्या पेड़ चख सकते हैं?
मैं अक्सर सोचा करता था,
क्या पेड़ कुछ कह सकते हैं?
तब चिड़िया बोली,
वे देखते हैं फूलों से,
जो हैं उनकी आँखें,
वे सुनते हैं पत्तियों से,
जो उनके कान हैं,
वे सूंघते हैं, उन रोयों से,
जो उनपर फैले होते हैं,
वे चखते हैं त्वचा से,
जो उनके पूरे शरीर पर होती है ,
और हाँ,
वे कहते भी हैं बहुत कुछ,
जिसे हम तुम्हारे लिए दोहराते हैं !
--

मन की चुगली

आज की कविता / मन की चुगली
--
सपने मन की चुगली हैं,
छुप जाया करती हैं जो,
छोटी-मोटी आहट से,
मछली हैं नीरव जल की ।
जब कोलाहल है मन का,
उठती हों विचारों की आँधी,
आखेटक मँडराते हों जब,
आहट होती है हलचल की ।
बगुले बैठे हों ध्यानमग्न,
तो वे धोखा खा जाती हैं,
बेबस हो जाती हैं शिकार,
घटना है हर हर पल की ।
जब सो जाता है सब शोर,
नीरवता फैली हो चहुँ ओर,
उन्मुक्त भाव से क्रीडारत,
खेलती और उछलती हैं ।
वे अन्तर्मन की ध्वनियाँ,
वे अवचेतन की परियाँ,
सपनों की कोमल कलियाँ,
अंधेरों में ही खिलती हैं ।
-- 

October 12, 2017

प्रदूषण और विभीषण

किसी भी प्रकार का प्रदूषण विभीषण का भाई होता है ।
पटाखों से ध्वनि और वायु-प्रदूषण दोनों होते हैं और अस्थमा, तथा एलर्जीजन्य अन्य वे सारी बीमारियाँ हो सकती हैं जो सिगरेट-बीड़ी, तमाखू, शराब आदि के सेवन से होती हैं ।
’बारूद’ चीनी आविष्कार है कृत्रिम भी होने से अप्राकृतिक रसायन तो है ही ।
लॉउड-स्पीकर और यहाँ तक कि ’बिजली’ भी अप्राकृतिक है, इसलिए कम-से-कम ’धर्म’ अर्थात् स्वाभाविक आचार-विचार से भिन्न है । यदि हम व्यवहार में उसका प्रयोग करते भी हैं तो भी मंदिरों में उसे प्रयोग करना या न करना विचारणीय प्रश्न तो है ही । काग़ज़ भी चीन का आविष्कार है और सिल्क / रेशम (चीनाँशुक > रेशम) भी, लेकिन रेशम सदा से भारत में पैदा होता रहा है, इसे ’हिंसा’ के साथ न जोड़ें । इसी प्रकार वेदों में वर्णित मधु भी मधु के छत्ते से अपने-आप टपकने से प्राप्त होनेवाला शहद है न कि मधुमखियों के पालन से उत्पन्न ।
इसमें जो भी कारण हों, काग़ज़ ’बाँस’ और तृण-आदि से बनता है और इसलिए भी खासकर ’धार्मिक-ग्रंथों’ को लिखने के लिए, इसका उपयोग अशुभ हो सकता है (बाँस, तृण, कुशा आदि का संबंध पितृ-लोक, देव-लोक आदि से होने से) ।
इस प्रकार बहुत सी वस्तुएँ जो हम उपयोग करते हैं न केवल स्थूल, बल्कि सूक्ष्म प्रदूषण का भी कारण है ।
भूमि से प्राप्त खनिज-तेल भी इसी प्रकार किसी हदतक स्वयं ही मृत जीवों का अवशेष है । भूमि से भौम का संबंध होने से ज्योतिषीय दृष्टि से इस पर विचार करने पर यह समझा जा सकता है कि यह वैसे भी निषिद्ध है । शनि और लोहे का संबंध तो सबको पता ही होगा ।
इस सबको ’अंधश्रद्धा’ कहने से पहले इस बारे में जागरूक होना चाहिए कि शुक्र / भृगु और शनि से प्रभावित इस्लामी देशों का वैभव ’आसुरी’ है न कि उद्यम से उत्पन्न किया गया है ।
शुक्र / भृगु का विष्णु से वैर भी वैसा ही जगज़ाहिर है । वामन-अवतार, भृगु द्वारा विष्णु की छाती पर पादाघात, सभी दर्शाते हैं कि अरब-देशीय ’धर्म’ और गतिविधियाँ किस प्रकार की हैं ।
वाल्मीकि रामायण में जाबाल्-ऋषि (जिब्राइल) द्वारा भगवान श्रीराम से विवाद किया जाना भी इस ओर संकेत करता है ।
तब श्रीराम द्वारा जाबाल को ’संबुद्ध’ कहकर संबोधित करना और उनकी कटुतम भर्त्सना करना क्या दर्शाता है?
यही कि यद्यपि भगवान् बुद्ध विष्णु का अवतार हैं लेकिन उनके अवतार लेने का प्रयोजन लोगों को सनातन-धर्म से दूर करने के लिए था ।
सत्य या असत्य है, जानना रोचक तो है ही ।
इस लेख की शुरुआत ’पटाख़े’ के बारे में लिखने के विचार से हुई थी, लेकिन कलम बहक गई!
-- 
खर-दूषण’ के बारे में फिर कभी! 

October 10, 2017

’अहोई-माहात्म्य’

’अहोई-माहात्म्य’
--
वसुन्धरा के आठ पुत्र,
अष्टपुत्रा सौभाग्यवती,
वसुन्धरा सौभाग्यवती,
अष्टवसुओं की जननी,
वसुन्धरा पृथ्वी, लक्ष्मी,
विष्णुपत्नी, जगज्जननी,
वसुन्धरा व्रतधारिणी,
नित्य व्रत-अवस्थिता,
अष्टवसु नित्य खेलते,
खेल-खेल जगत का,
नररूप लेकर नारायण,
नारीरूपा जो नारायणी,
करते करक-चतुर्थी-व्रत,
करते अष्टभवीय उत्सव,
अष्टवसु देते उल्लास,
समृद्धि वैभव आनंद ।
--
टिप्पणी : कुछ लोगों का विचार है कि यह सब ’कर्मकाण्ड’, ’कथा’ का आविष्कार ’पंडितों’ ने लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने के लिए किया है, लेकिन इस पद्य के रचयिता को आज ही इस रचना (को रचने) का प्रकाश क्या इसलिए हुआ? उसका तो किसी कर्म-काण्ड से दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं है! वह शास्त्र-विहित, शास्त्र-निषिद्ध, शास्त्र से निर्धारित नैमित्तिक अथवा ’काम्य’ किसी भी तरह के कर्म का न तो स्वयं ’अनुष्ठान’ करता है, न इसके लिए कभी किसी का ’पुरोहित’ हुआ है / होता है ।
यदि कुछ लोगों ने इसे ’व्यवसाय’ बना लिया हो, इससे बस यही सिद्ध होता है कि वे स्वार्थवश परंपरा और धर्म का केवल दुरुपयोग कर रहे हैं! तो यह आक्षेप केवल हिन्दू-धर्म पर ही क्यों उठाया जाए?
--   
  

October 06, 2017

’समूह’ की ’संवेदनशीलता’

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प्रश्न : संवेदनशील लोगों का समूह, तंत्र बनकर काम करते हुए, बदले चरित्र वाला, विपरीत सा व्यवहार क्यों करने लगता है?
--
एक संभावित उत्तर :
व्यक्ति की ’संवेदनशीलता’ और ’समूह’ की ’संवेदनशीलता’ न सिर्फ़ चरित्र या गुण, बल्कि ’दिशा’ में भी भिन्न-भिन्न होती है ।
वास्तव में किसी भी ’समूह’ की ’संवेदनशीलता’ में  समूह के अवयवों (व्यक्तियों) के वैयक्तिक हित एक सर्वनिष्ठ लघुत्तम समापवर्तक होते हैं ।
इसलिए ’लक्ष्य’ हासिल हो जाने पर ’व्यक्तियों’ के दूसरे गुण जो लक्ष्य हासिल होने तक छिपे हुए थे, उभरकर ऊपर आ जाते हैं, और तब ऐसा लगने लगता है !
--

October 05, 2017

शरद की पूनम!

आज की कविता 
शरद की यह पूनम!
कल दोपहर से मीन का,
चंद्र, पूनम का चाँद हुआ,
आज मध्य-रात्रि तक ही,
रहेगा वह पूनम का,
शाम को तांबई टिकिया सा,
पूरब के भाल पर था,
वह लाल रक्तिम चंद्र उदास था,
एक साँवली झाईं थी उसके चेहरे पर!
ताम्रक, - तांबई, -स्वर्ण-रहित!,
और अब मिल रहा है,
जाकर कहीं स्वर्ण उसमें ।
जानता हूँ कि मध्य-रात्रि तक,
स्वर्ण पिघल कर,
शायद चाँदी सा बह निकलेगा,
टपकेगा बूँद-बूँद, अमृत बनकर,
शायद रात्रि का वह तमग़ा,
पूरी रात रहेगा नभ पर,
और मछलियाँ,
चंचल मीन-नेत्र से,
तकती रहेंगी उसे,
सुध-बुध खोकर !
--
और यह पोस्ट होते-होते 'नोटिफिकेशन' आता है :
Baluchistan shrine bomb-blast : 12 killed.
शायद वह लाल रक्तिम चंद्र इसीलिए उदास था,
एक साँवली झाईं थी उसके चेहरे पर!
--

October 03, 2017

तेरे ख़त में मेरा ही नाम था,

--
तेरे ख़त में मेरा ही नाम था,
तेरा ख़त भी था मेरे ही लिए,
तेरे ख़त में जो इलज़ाम थे,
मैं उन के क़ाबिल था कहाँ?
--
(महात्मा के नाम से प्रसिद्ध) गाँधी आज अगर होते तो ख़ुद भी अपनी गलतियों के लिए बेहिसाब शर्मिंदा होते और ’सत्य’ के प्रयोगों के क्रम में शायद देश से क्षमा भी मांगते । केवल कोई महान कार्य कर लेने से कोई महान् तो नहीं होता! हिटलर भी महान् था, औरंगज़ेब भी महान् था, शिवाजी भी महान् थे, हिन्दुत्व भी महान् है, इस्लाम और दूसरे सभी धर्म भी अत्यन्त महान् हैं और सबने एक-से बढ़कर एक महान् कार्य किए हैं इसमें शक नहीं और उनके अनुयायी आज भी तन-मन-धन और प्राण देकर भी उस क्रम को जारी रख रहे हैं इसमें भी कोई शक नहीं !
-- 

September 30, 2017

आज की कविता / कलम

आज की कविता
कलम
खेतों में हल की तरह कभी,
युद्ध में पहल की तरह कभी,
कभी ये कलम रुकती नहीं,
कभी ये कलम चलती नहीं,
बियाबान पथ पर निर्जन में,
कभी राजपथ संकुल-जन में,
कभी ये कलम रुकती नहीं,
कभी ये कलम चलती नहीं,
खड़ी चट्टान पर हाँफ़ती भी,
गहरी खाईं में उतरती भी,
कभी ये कलम रुकती नहीं,
कभी ये कलम चलती नहीं,
जमीं पर कभी घोर जंगल में,
कठिन धूप में भी मरुस्थल में
बीहड़ों में या दलदल में,
कभी ये कलम रुकती नहीं,
कभी ये कलम चलती नहीं,
तलवार सी या पतवार सी,
कभी शत्रुओं पर कभी नाव पर,
कभी ये कलम रुकती नहीं,
कभी ये कलम चलती नहीं,
कलमकार तुम धैर्य खोना नहीं,
विजय में भी उन्मत्त होना नहीं,
पराजय मिले भी तो रोना नहीं,
कभी ये कलम रुकती नहीं,
कभी ये कलम चलती नहीं,
कभी आपकी महाग्रंथ रचती,
कभी हमारी भी तुच्छ लेखनी
कभी ये कलम रुकती नहीं,
कभी ये कलम चलती नहीं,
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कितने रावण!

--
कितने रावण!
--
एक रावण था कि जिसके साथ थे शस्त्रास्त्र दिव्य,
एक ये रावण कि जिसकी देह पर हैं चीनी पटाखे,
एक वो दश-रूप लेकर बन गया आतंकवादी,
अपने तन पर लपेटकर बम-ग्रेनेड विस्फोटक,
करता बाज़ारों चौराहों पर स्टेशनों पर भीड़ में,
विस्फोट, खुद को उड़ाता फ़िरदौस की उम्मीद में !
एक वह जल रहा खड़ा बन्धु-सुत के साथ में,
और जो सारे कि उत्सव मनाते उन्माद में,
बस यहाँ रावण ही रावण हर तरफ़ आते नज़र,
आज कोई राम अब आता नहीं कहीं नज़र!
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September 26, 2017

दो कविताएँ १ ’कुछ भी!’ २. सारांश

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दो कविताएँ
१ ’कुछ भी!’
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इनी-हंसा* की कहानी चैनल,
नई फिर से बनाओ ना!
इनी-हंसा कौन थी / है,
फिर से सबको बताओ ना!
इन्हें हँसना है या रोना है,
शिकायत है या है तारीफ़,
ये दर्शक समझ नहीं पाते,
ज़रा तुम ही समझाओ ना!
--
२. सारांश
हवाएँ बहा ले जाएँगीं पानी,
पानी बहा ले जाएँगे रेत,
रेत बहा ले जाएगी वे नाम,
जो लिखे थे हमने तुमने,
लौट जाएँगी लहरें लेकिन,
हवाओं को करने परेशान,
हवाएँ ढूँढती रहेंगी हमको,
उनमें जो मिट चुके हैं नाम !
--
*हनी-इंसान

September 23, 2017

’कुछ भी!’ दो शून्य एक साथ! 23/09/2017

दो  कविताएँ
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1. ’कुछ भी!’
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यह फूल खिला ये रंग उड़े,
आकर्षित तितली भृंग उड़े,
सुरभि-संदेसे फैले चहुँ ओर,
झोंके-समीर अनंग उड़े।
उमड़ी कल्पना भावना भी,
हम बहकर उनके संग उड़े,
सपने कौतूहल के सारे,
खुलकर बिखरे वे रंग उड़े ।
--
2. लिखना / समझना
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मैं बाबा लिखूँगा,
तुम प्रणाम समझ लेना,
मैं माँ लिखूँगा,
तुम स्नेह समझ लेना,
मैं पानी लिखूँगा,
तुम प्यास समझ लेना,
मैं गीत लिखूँगा,
तुम प्रीत समझ लेना ...!
--

September 21, 2017

बुद्धिजीवी प्रवंचनाएँ और विवंचनाएँ

धोखे का अर्थशास्त्र
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बुद्धिजीवी प्रवंचनाएँ और विवंचनाएँ  धोखे के अर्थशास्त्र के मूल सिद्धान्त हैं ।
’मनुष्य को धोखे से सावधान रहना चाहिए और मीठी-मीठी बातों से धोखा न खाते हुए विवेक को जगाए रखना चाहिए।’
बात तो सुलझी हुई थी लेकिन यह समझना कुछ कठिन लग रहा था कि विवेक किस चिड़िया का नाम हो सकता है, जो अपनी मरज़ी से जहाँ चाहे बेरोकटोक पर मार सकती है! पहेली और मुश्किल हो गई थी ।
कोई चाहे तो धोखा देने से शायद खुद को रोक सकता है, लेकिन धोखा खाने से कोई किसी को या खुद को भी कैसे रोक सकता है?
जब तक किसी प्रकार का डर या लालच, किसी ऐसी वस्तु का आकर्षण मन में है, जिसकी हमें क़तई ज़रूरत नहीं लेकिन हम उस डर, लालच, या आकर्षण के वशीभूत होकर उसे पाने की आशा अभिलाषा रखते हैं और यह देखने से बचते रहते हैं कि जिन लोगों के पास वह वस्तु है उनके इस बारे में क्या अनुभव हैं, तब तक क्या हम स्वयं ही स्वयं को धोखा नहीं दे रहे होते? क्या हम स्वयं ही धोखे को आमंत्रित नहीं कर रहे होते?
’ट्रान्स्पेरेन्सी’ / transparency कितनी भी साफ़ क्यों न हो, एक दीवार ही तो होती है,  जिसे ट्रान्सपायरेसी trans-piracy कहना ज़्यादा ठीक है ।
हम ठीक से छान-बीन करें तो क्या हमारे सारे ’संबंध’ हमारी मान्यताएँ ही नहीं होते? मेरी पत्नी मुझे धोखा नहीं देगी, मैं अपनी पत्नी को धोखा नहीं दूँगा... यह बात कितनी भी दृढ़ता से ज़ोर देकर कही जाए, हमारा मन ही जानता है कि यह मनुष्य के लिए नितांत असंभव है कि परिस्थितियों के किन्हीं नाज़ुक क्षणों में हम फ़िसल न जाएँ, और जब हमारा पूरा ’मीडिया’ हमें यह सोचने पर बाध्य करता हो कि मनुष्य की ’निजता’ / स्वतंत्रता कितनी महत्वपूर्ण है, तब हम क्या और अधिक पाखंडी नहीं हो जाते? तब हम किसे धोखा दे रहे होते हैं? क्या ’विवाह’ की क़ानूनी बुनियाद शक और ’नैतिकता’ की परिभाषाओं और मान्यताओं की व्याख्या पर ही नहीं अवलंबित है? क्या यह कोई सीधी सरल पटरी है जिस पर मन का इंजन धड़धड़ाते हुए सरपट दौड़ता जाए? अधिक मुमकिन तो बेशक यही है कि वह कहीं न कहीं रपट ही जाए । तो क्या हम अनैतिक हो जाएँ ? सवाल यह नहीं है कि हमें नैतिक या अनैतिक होना है, सवाल यह है कि क्या हम पहले ही से नैतिक या अनैतिक नहीं हैं ? किसी भी धर्म के अनुयायी के लिए यह कठिन है कि वह उसके अपने धर्म द्वारा दी गई शिक्षाओं का अक्षरशः पालन कर सके । क्या यह धर्म को धोखा देना नहीं हुआ? क्या ऐसे धर्म के अनुयायी बने रहने का दिखावा भी समाज को दिया जानेवाला धोखा नहीं है?
तथ्य तो यह है कि मन नामक वस्तु से समाज का सामञ्जस्य  कैसे स्थापित करे इसे मनुष्य नहीं समझ पाया । राजनीति और परंपराएँ इस समस्या को और जटिल बना देती हैं । ’परिवार’ और ’विवाह’ दोनों मनुष्य की बनाई कृत्रिम व्यवस्थाएँ हैं जो डर, लालच, आशा, सुरक्षा, नैतिकता जैसे काल्पनिक तत्वों पर अवलंबित हैं इसे समझते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि क्यों ’लव-मैरिज’ या ’अरेंज़्ड-मैरिज’ भी अन्ततः तलाक़ की हद तक जाते हैं और क्यों मनुष्य, स्त्री हो या पुरुष इस यातना से गुज़रने के लिए बाध्य हैं । डर, लालच, आशा, सुरक्षा, ही मनुष्य को आर्थिक रूप से असुरक्षित बनाते हैं जबकि वह सोचता है कि बहुत संपत्ति, धन-दौलत होने पर वह ’अधिक’ सुरक्षित होगा । बहुत समृद्ध परिवारों में भी पारिवारिक विघटन देखा जाता है, और बहुत गरीब परिवारों में भी ।
क्या संबंधमात्र ’वैचारिक’ मानसिक अवस्था नहीं होता? या, क्या वह कोई भौतिक वस्तु है जिसका भौतिक सत्यापन किया जा सके?
’अब हमारे संबंध समाप्त हो चुके हैं ...’
’संबंध’ समाप्त होते हैं, या ’संबंधित होने की भावना’?
क्या समाप्त होता है?
क्या यह भावना कोई ऐसी वस्तु है, जिसकी सत्यता किसी उपलब्ध कसौटी पर साबित की जा सके?
जब तक कोई स्वयं ही न चाहे, कौन किसे धोखा दे सकता है?
--

September 16, 2017

जब कविता बक़वास होती है ...

जब कविता बक़वास होती है
--
एक पैग हो जाने के बाद ही,
महफ़िल में उस पर नज़र जा पाती है ।
चौंकानेवाली कुटिल कल्पना से प्रेरित,
किसी आदर्श के प्रति समर्पित,
किसी राजनीतिक ’सरोक़ार’ से ’प्रतिबद्ध’
किसी ’सामाजिक’ दायित्व की पैरोकार,
ब्ल्यू-व्हेल सी, कृपा-कटाक्ष से देखती हुई,
भोली नाज़ुक विषकन्या सी कविता,
आकर्षित कर,
दूर हटा देती है मनुष्य का ध्यान,
अस्तित्व के बुनियादी सवालों से,
और अपनी कृत्रिम सुंदरता के,
मारक अंदाज़ से क्षण भर में ही,
बाल-बुद्धि, अपरिपक्व मानस को,
जकड़ लेती है अपने मोहपाश में,
उस मकड़ी की तरह,
जिसके जाल के अदृश्य तंतु,
फैले हैं दिग्-दिगंत तक !
चूसती रहती है रक्त,
जाल में फँसते कीड़ों का ...
--  

September 15, 2017

काव्य : कविता और शायरी,

कविता और शायरी
--
कविता लिखी जाती है,
शेर पढ़ा जाता है,
लिखे जाने से पहले,
कविता प्रस्फुटित होती है,
पढ़े जाने से पहले,
शेर उछलता है,
उमंग और उल्लास से!
कविता जब प्रस्फुटित होती है,
तो किसी भाषा में नहीं होती,
बस भाव और भावना होती है ।
लेकिन भाषा का सहारा लेते ही,
कोई विशिष्ट रूप ले लेती है,
एक ही भावना और भावना,
अलग-अलग कवि-मन में,
अलग-अलग भाषाओं में,
असंख्य रूप लेती है ।
शेर जब उछलता है,
तो संतुलित होता है,
वज़न को तौलते हुए,
करता है आक्रमण,
अहिंसक, भव्य, स्तब्धकारी,
इसलिए लिखें या पढ़ें,
यह किसी के बस में नहीं,
वे अपनी भंगिमा और मुद्रा,
स्वयं ही तय करते हैं ।
--

September 14, 2017

आज की कविता : मयूर और मेघ

आज की कविता : मयूर और मेघ
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हर एक मयूरपंख में,
एक आँख होती है,
सहस्र नेत्रों से देखता है मयूर,
हर मेघ में छिपी सहस्त्र बूँदों को,
हर आँख में एक पुतली होती है,
जैसे कि आँख का हृदय,
गहन, चमकीला, श्यामल,
और उसके चारों ओर हल्का नील,
हरा होता हुआ आकाश,
आकाश से परे,
पृथ्वी के भूरे होते हुए गेरूए रंग,
जिनसे परे,
अरण्य का विस्तार असीमित,
कविता जब जन्मती है,
ऐसे ही किसी केन्द्र से,
जो अरण्य होता है,
जो पृथ्वी होता है,
जो हृदय होता है,
जो आकाश होता है,
जो आँख होता है,
जो नेत्र और हृदय होता है ।
एक ही नेत्र सहस्र होता है,
और मयूर सहस्रनेत्र !
क्या मयूर का होना कविता नहीं है?
क्या ज़रूरी है इसे लिखना?
क्या ज़रूरी है इसे समझना?
क्या अबूझ को समझा जा सकता है?
तो फिर लिखा जाना भी कैसे हो सकता है?
फिर भी कविता लिखी तो जाती ही है,
न भी लिखी जाये तो भी होती तो है ही,
मेघों के छत्र के तले,
अपने छत्र में नाचता मयूर!
--


यह हिन्दी-दिवस !

यह हिन्दी-दिवस !
--
मुझे हिन्दी मातृभाषा की तरह मिली थी।  स्कूल में हिन्दी माध्यम से पढ़ा, लेकिन अंग्रेज़ी से मुझे न तो वैर था न लगाव। कक्षा नौ में अंग्रेज़ी-विरोध के कारण हमने तय किया कि अंग्रेज़ी का 'पेपर' नहीं देंगे, अर्थात् बहिष्कार करेंगे।  दूसरे दिन मैं परीक्षा के समय घर से तो चला लेकिन स्कूल जाने के बजाय इधर-उधर भटकते हुए दो-तीन घंटे बाद घर पहुँचा। पिताश्री ही स्कूल में प्राचार्य थे और उन्हें कल्पना नहीं थी की मैं ऐसा अनुशासनहीन क़दम उठाऊँगा।  डर भी बहुत लग रहा था।  परीक्षा-परिणाम आने पर मेरी रैंक चौथी थी।  मुझे आश्चर्य हुआ।  फिर जब कक्षाध्यापक का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया कि 'अंग्रेज़ी' की परीक्षा देना-न-देना ऐच्छिक था और उसके मार्क्स जोड़े नहीं जा सकते तब उन्होंने इस भूल को सुधारा।
हिन्दी मेरे लिए घर की दाल-रोटी है, माँ के हाथों की बनी !
दूसरी भाषाएँ मौसी के हाथों के बने व्यञ्जन !
वे भी प्रिय हैं उनसे भी द्वेष नहीं, लेकिन हिंदी-दिवस मनाने का ख्याल ही मुझे गले नहीं उतरता!
एक मित्र ने कविता लिखी :
"मैं हिंदी हूँ !
वेंटीलेटर पर जिंदी हूँ। .. ... ..."
हिंदी के प्रति उसकी भावनाओं पर मुझे खुशी है, लेकिन मेरी दृष्टि में किसी भी भाषा का अपना जीवन होता है, वे जन्म लेती हैं, पनपती और फूलती-फलती, फैलती हैं और बहुत लम्बे समय में इतना बदल जाती हैं कि पहचानना मुश्किल हो जाता है।  हिंदी भी इसका अपवाद नहीं है।
बहरहाल मैंने उसे यह उत्तर दिया :
 
एक प्रश्न :
क्षमा चाहता हूँ, तुक मिलाने के लिये  ’जिंदा’ / ’ज़िन्दा’ को ’जिंदी’ / ’ज़िन्दी’ कर देना शायद ज़रूरी हो, पर ऐसा करने पर हिंदी ’जिंदा’ कैसे रहेगी?
क्या यहीं से हिंदी का विरूपण शुरू नहीं हो जाता?
--
यूँ तो आज़ाद परिन्दा हूँ,
लेकिन घायल हूँ, ज़िन्दा हूँ,
तुमने पिंजरे में डाल दिया,
कहते हो मुझको पाल लिया,
तुम जब चाहो प्यासा रक्खो,
भूखा रक्खो या भूल रहो,
याद आए या मन हो तो,
भोजन-पानी तब मुझको दो,
साल में किसी एक दिन तुम,
मना लो मेरा हैप्पी-बड्डे,
देखो घायल या ज़िंदा हूँ,
तो ले जाओ डॉक्टर के पास,
तुम क्या चाहो, मुझे पता है,
तुम्हें चाहिए मान-सम्मान,
तुम्हें चाहिए रुतबा शान,
तुम्हें नहीं मुझसे मतलब,
मैं हूँ नुमाइश का सामान,
बस एक दिन नुमाइश का,
ज़िल्लत के बाक़ी सारे दिन,
अच्छा है जो मैं मर जाऊँ,
ऐसे जीवन से उबर जाऊँ !
--  
        

September 11, 2017

फ़रेब / delusion

फ़रेब / delusion
--
आपको वक़्त मिल गया होगा,
कहीं कम-बख़्त मिल गया होगा,
दोस्त दुश्मन से नज़र आए होंगे,
दुश्मनों से आशना हुआ होगा ।
ग़मों में उम्मीदें नज़र आई होंगीं,
चमन सहरा में नज़र आया होगा,
वक़्त ने किया होगा फ़रेब कोई,
ख़िजाँ में बहर नज़र आया होगा !
--

आज की कविता : गेय-अगेय संप्रेषणीय

आज की कविता 
गेय-अगेय संप्रेषणीय 

उसे शिकायत थी,
’आज’ की कविता से,
मानों ’आज’ कोई ठोस,
ज्ञेय, मन-बुद्धि-इन्द्रियग्राह्य,
हस्तान्तरणीय, विज्ञानसम्मत,
और सुपरिभाषित तथ्य हो,
कविता काल के पिंजरे में क़ैद,
कोई चिड़िया हो ।
हाँ कविता अवश्य ही,
एक चैतन्य और चिरंतन सत्ता है,
आकार-निराकार होने से स्वतंत्र,
और इसलिए कितने ही रूपों में,
अभिव्यक्त होती रहती हो,
उसकी सुचारु संरचना,
सुघड़ता, कितने ही आयामों में,
स्वर-क्रमों में निबद्ध होती हो,
निश्छल, छलशून्य होती है,
जिसे आप रच सकते हैं,आज की कविता
अपनी लय में,
छन्द-मात्रा-संगीत-स्वर-ताल,
की विशिष्ट मर्यादाओं में रहते हुए,
या उन अनभिज्ञ होते हुए भी ।
वह सदा गेय हो यह ज़रूरी नहीं,
जैसे भोर में चहचहानेवाली चिड़िया,
जिसके सुर कभी कर्कश, कभी मधुर,
कभी उदास, कभी आतुर,
कभी प्रसन्न, आर्द्र या शुष्क होते हैं,
चिर नूतन, चिर श्रव्य ।
--

September 10, 2017

बहस करें या बस?

बहस करें या बस?
--
धी अर्थात् ध् + ई, जो विशेष प्रयोजन के लिए बुद्धि का पर्याय है ।
धी जहाँ निधि, अवधि, विधि, शेवधि (तिजोरी) के रूप में स्थिरता की द्योतक है, वहीं बुद्धि अपेक्षतया गतिशीलता की, अस्थिरता की भी ।
इसी धी से उत्पन्न हुआ ग्रीक का ’थी’, ’थियो’ theo।
जैसे ’ध’ से धर्म, धर्म से ’थर्म’ therm,
’धी’ से ही ’थी’ theo , ’थियो’ और ’धर्म’ से ’थर्म’/ therm अर्थात् ’ताप’ हुआ ।
 ’धी’ से ही ’थीसिस’,’थीसिस’ से ’ऐन्टी-थीसिस’ और ’सिन्थेसिस’ हुए ।
धी > धिष् > धिषस् से भी थीसिस दृष्टव्य है ।
बहस की व्युत्पत्ति संस्कृत के ’व-ह-स’ से की जा सकती है, वहीं यह उर्दू में अरबी या फ़ारसी से आया ऐसा भी कहा जा सकता है ।
’ऐन्टी’ anti, एक ओर तो ’आन्तरिक’ के अर्थ में प्रयुक्त ’अन्तः’ से आया है, वहीं दूसरी ओर ’अन्त’ करनेवाले अर्थात् विरोधी या विपरीत के अर्थ में भी किया जाने लगा । इसी प्रकार ’ऐन्टी’ का ’अन्ते’ / ante के रूप में भी ’पूर्व’ के अर्थ में प्रयोग होता है ।
यहाँ वद् > वाद > विवाद और संवाद के संदर्भ में ’बहस’ के औचित्य के बारे में देखें ।
वाद का अर्थ है ’मत’ ’वादे-वादे जायते तत्वबोधः’ की उक्ति के अनुसार विभिन्न वाद मिलकर तत्व के निर्णय में सहायक होते हैं ।
किंतु एक विचित्र तथ्य यह भी है कि किसी भी वाद की अपनी सीमाएँ होती हैं इसलिए भिन्न-भिन्न वाद होने पर मतभेद भी हो जाते हैं । किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न हो तो मतभेदों को पुनः मिलकर सद्भावना से सुलझाया जा सकता है, किंतु पूर्वाग्रह होने की स्थिति में यह असंभव हो जाता है । क्योंकि पूर्वाग्रह कोई मान्यता होता है । क्या बिना किसी मान्यता के कोई मत हो यह संभव है? जब हम ईश्वर या जीवन जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं तो इनके अभिप्राय के बारे में हममें उतनी ही स्पष्टता होती है जितनी हममें तब होती है जब हम धरती, आकाश, मनुष्य, भूख, प्यास, डर, नींद, और सोने-जागने आदि जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं । क्या तब इन वस्तुओं, घटनाओं या स्थितियों के बारे में हममें कोई मान्यता या मतभेद होते हैं? स्पष्ट है कि न हममें इनके बारे में कोई ’मान्यता’ होती है, (और इसलिए) न कोई पूर्वाग्रह होता है ।
किंतु जब किसी कार्य को किए जाने का प्रश्न होता है तब उसे कैसे किया जाए उसके औचित्य और अनौचित्य तथा उसके परिणाम आदि पर हममें प्रायः कोई न कोई आग्रह अवश्य होते हैं । इन आग्रहों के बारे में यदि परस्पर मिलकर विचार-विमर्श किया जाए तो संभवतः किसी एक निर्णय पर सहमत हुआ जा सकता है ।
इस प्रक्रिया को थीसिस-ऐन्टीथीसिस-सिन्थेसिस thesis-antithesis-synthesis कहा जा सकता है ।
यदि बहस इस प्रकार की गतिविधि है तो वाद-विवाद-संवाद का यह प्रकार थीसिस-ऐन्टीथीसिस-सिन्थेसिस thesis-antithesis-synthesis कहा जा सकता है । तब बहस की उपयोगिता पर प्रश्न नहीं उठाये जा सकते ।
बहस बस वहीं तक होनी चाहिए।
--        

भीड़ में अकेला आदमी

आज की कविता
--
भीड़,
कितनी भी अनुशासित क्यों न हो,
अराजक और दिशाहीन होती है ।
भीड़ की संवेदनाएँ तो होती हैं,
भीड़ में समवेदनाएँ कम होती हैं,
भीड़ का कोई तंत्र नहीं होता,
भले ही भीड़ का नाम,
’देश’, ’राष्ट्र’ ’वाद’,’संस्कृति’,
’समाज’, ’समुदाय’ ’भाषा’,
'संस्था', 'सरकार', प्र-शासन,  
'दल', 'वर्ग' या ’धर्म’
'मज़हब' 'रिलीजन',
'रूढ़ि', 'ट्रेडिशन'  क्यों न हो।
अकेला आदमी भीड़ के लिए,
कुछ नहीं कर सकता ।
इससे भी बड़ा सच यह है;
कि भीड़ भी अपने लिए,
कुछ नहीं कर सकती ।
हाँ अपना सर्वनाश,
अवश्य कर सकती है,
लेकिन वह तो वैसे भी,
उसकी नियति है ।
इसलिए वह उससे,
बच भी नहीं सकती ।
और भीड़ है सिर्फ़,
अकेले आदमियों का समूह!
... तो हम क्या कह रहे थे?
--

September 08, 2017

हाथी और चीटियाँ

आज की कविता
हाथी और चीटियाँ
--
हाथी बहुत समझदार तो होते ही हैं,
उनकी याददाश्त भी तेज होती है ।
फ़ूँक-फ़ूँक डर-डर कर क़दम रखते हैं,
कहीं चीटियाँ, दबकर मर न जाएँ!
--

इरमा !

आज की कविता
--
इरमा !
नाम कितना सुन्दर लगता है न!
इरा और रमा का पर्याय,
इरा जो रमा है,
रमा, जो इरा है,
इरा ऐरावत सी,
इरावती सी,
ऐरावत,
जो इरा सा,
रमा जो चञ्चल,
अस्थिर,
केवल सुषुप्त हरि के चरण सहलाती,
किंतु वही इरा,
और वही रमा,
जब हो जाती है,
ऐरावत सी निरंकुश,
देती है पहले तो चेतावनी,
पर कर देती है सर्वनाश भी,
यदि उसकी संतान दुष्ट हो,
न करे उसका सम्मान,
हो उठे निरंकुश !
--

September 07, 2017

Russia.

Hi Friends from Russia!!
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Glad to see there are readers of this Hindi Blog-post in Russia.
I think you may perhaps like to check my other 2 following links also.

Swaadhyaaya-Blog,

English-Blog

Regards and Love from India!
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सिलसिला-ए- सियासत

आज की कविता
--
सिलसिला-ए- सियासत
--
अहसास फ़रेब है किसी और का, ख़ुद के लिए,
अहसास तमाशा है ख़ुद का किसी और के लिए,
क़त्ल का मातम तो है, मातम भी एक जश्न तो है,
बना लेते हैं वो, जश्न को मातम, मातम को जश्न ।
किसी का क़त्ल हुआ है, किसी ने क़त्ल किया है,
जब तलक राज़ है पोशीदा मना लेंगे जश्न या मातम,
राज़ खुलने तक तमाशा करेंगे तमाशाई तमाशबीन,
बस यूँ ही चलता रहेगा सिलसिला सियासत का ।
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September 05, 2017

पञ्च-सीलानि pañca-sīlāni

भूमिका 
फ़ेसबुक के मेरे पेज पर 23  अगस्त 2017 को मैंने भूटान-तिब्बत-भारत की सीमा पर डोकलाम में भारतीय और चीनी फ़ौज़ों के युद्ध के लिए तैयार स्थिति में होने पर लिखा था :

पंचशील के सिद्धान्त को तो चीन ने तभी दफ़ना दिया था जब उसने ल्हासा पर अधिकार कर लिया और दलाई लामा को भारत भागने पर मज़बूर कर दिया, जिन्हें भारत ने शरण दी थी ।
आज जब शी जिनपिंग (习近平, Xi Jinping), का यह वक्तव्य पढ़ा कि चीन चाहता है कि वह पंचशील के  मार्गदर्शन में भारत से संबंध सुधारे, तो मुझे याद आया और मेरा यह विश्वास और भी दृढ़ हुआ कि वास्तव में कोई ब्रह्माण्डीय ’बुद्ध-चेतना’ संसार के लिए मार्गदर्शन दे रही है ।
यदि चीन वास्तव में ईमानदारी से इस प्रेरणा पर अमल कर सकता है, तो वह वास्तव में आज भी विश्व-विजेता बन सकता है और पूरी दुनिया के लोगों के दिलों को जीत सकता है लेकिन यदि उसके दिल में कपट है (जैसा कि पिछली सदी छठे दशक में था), तो इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती ।
--
पञ्च-सीलानि
pañca-sīlāni 
--
पञ्चशील का सिद्धांत
(मौलिक रूप)
बुद्ध-प्रणीत  
(बौद्ध धर्म के अनुसार) 
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पाणादिपाता वेरमणि
सिक्खापदं समादियामि ...१.
(मैं प्राणियों की हिंसा नहीं करूँगा।)
अदिन्नादाना वेरमणि
सिक्खापदं समादियामि ...२.
(जो मुझे दिया नहीं गया है, उसे मैं (बलपूर्वक) नहीं लूँगा।)
कामेसु मिच्छाचार वेरमणि
सिक्खापदं समादियामि ...३
(मैं व्यभिचार नहीं करूँगा। )
मूसावाद वेरमणि
सिक्खापदं समादियामि ...४
मैं मिथ्याभाषण नहीं करूँगा।)
सुरा-मेरय-मज्जा-पमादट्ठाना वेरमणि
सिक्खापदं समादियामि ...५
मैं ऐसे मादक-द्रव्यों का सेवन नहीं करूँगा जिनसे मेरे चित्त में विकार उत्पन्न हो। ) 
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pañca-sīla -s The Five Precepts of Buddha
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pāṇādipātā verāmaṇi
sikkhāpadaṃ samādiyāmi ...1.
adinnādānā verāmaṇi
sikkhāpadaṃ samādiyāmi ...2.
kāmesu micchācāra verāmaṇi
sikkhāpadaṃ samādiyāmi ...3
mūsāvāda verāmaṇi
sikkhāpadaṃ samādiyāmi ...4
surā-meraya-majjā-pamādaṭṭhānā
sikkhāpadaṃ samādiyāmi ...5
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प्रसंगवश याद आया :
ये जो शहतीर है, पलकों पे उठा लो यारों,
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारों
दर्दे-दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारों
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारों
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे,
आज सन्दूक से वो ख़त तो निकलो यारों !
(स्व. दुष्यन्त कुमार)
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September 03, 2017

मेरा मज़हब

आज की कविता
--
मेरा मज़हब
मुझे किसी से नफ़रत नहीं,
इसलिए मैं ’किसी से नफ़रत मत करो’
का उपदेश या सलाह भी किसी को नहीं देता,
लेकिन अगर मुझे किसी से मुहब्बत नहीं,
तो मैं उससे मुहब्बत होने का नाटक क्यों करूँ?
क्या ऐसी मुहब्बत धोखा देना ही नहीं हुआ?
न सिर्फ़ उसे, बल्कि ख़ुद अपने-आपको भी?
जिसने मुझे बहुत तक़लीफ़ दी,
सिर्फ़ इसलिए जिसे मैं याद भी नहीं करना चाहता,
मैं उससे मुहब्बत होने का नाटक क्यों करूँ?
वैसे तो उससे मुझे नफ़रत कभी थी भी नहीं,
लेकिन उसने मुझे बहुत तक़लीफ़ देकर,
ख़ुद ही अपना दुश्मन बना लिया ।
मुझमें उसके लिए नफ़रत पैदा कर दी,
और जो अब मुझे मुहब्बत का सबक़ सिखा रहा है,
वह यह क्यों भूल जाता है,
कि दूध का जला छाछ भी फ़ूँक-फ़ूँक कर पीता है !
पहले झाँके वह ख़ुद के गरेबान में,
और खोज ले,
कि कोई किसी से नफ़रत क्यों करता है!
तब उसे किसी को,
मुहब्बत का सबक़ सिखाना ज़रूरी न रह जाएगा ।
कोई किसी से नफ़रत न करे यही काफ़ी है,
और न पैदा होने दे, दूसरों के दिलों में नफ़रत,
अगर इतना भी कोई कर सकता है तो,
ज़रूरी नहीं रह जाता मुहब्बत का सबक़ !
--
जो अपने ’मज़हब’ को लादता है किसी पर,
ताक़त से, तलवार, प्रचार या धोखे से,
उसका क्या मज़हब है यह तो ज़ाहिर है,
जो मज़हब के नाम पर पैदा करे डर, नफ़रत,
उसका मज़हब से क्या वास्ता यह भी ज़ाहिर है,
और फिर वो ही देने लगे मुहब्बत का सबक़,
मन्दिर, मस्ज़िद, गिरजों के एक होने का सबक़,
उसपे तक़लीफ़ज़दा कोई भरोसा कैसे करे?
हाँ कोई बस, सिर्फ़ तकल्लुफ़ के लिए सुन लेगा ।
इससे दिलों में जमा नफ़रत न कभी कम होगी ।
कोई ऐसा तरीक़ा हो जिससे न हो नफ़रत पैदा,
सिर्फ़ दिखावे के लिए मत दो झूठे मुहब्बत के सबक़ ।
--
ये मुहब्बत भी ले लो, ये नफ़रत भी ले लो,
भले छीन लो जात-ओ-मज़हब भी मेरा,
मग़र छोड़ दो मुझको मेरे दिल के हवाले !
न ख्रीस्त, हिन्दू, सिख, न मुसलमान होना !
--

September 01, 2017

लीला

आज की कविता
--
लीला
--
शान्त जल, प्रवाह है ठहरा हुआ,
धरा ने जिसे बाँधकर रोक रखा है,
एक बच्चा फेंकता है एक कंकर,
और वह प्रवाह हो जाता है चंचल,
हर दिशा में भागता है लहर होकर,
लौट आता है पुनः पुनः पर केन्द्र पर,
पुनः पुनः दौड़ता है जल तरंग बन,
और सुर छिड़ जाते हैं जलतरंग के,
हर तरंग का पुनः एक आवर्त अपना,
और हर आवर्त का फिर अपना कंपन,
काँपता है जल तो धरती काँपती है,
काँपता है धरा पर उभरता जीवन,
आवर्त में कितने ग्रह कितने उपग्रह,
कितने सूर्य कितने चन्द्र नक्षत्र-तारे!
खो गया ब्रह्माण्ड के विस्तार में बच्चा,
और फिर चकित सा वह आत्म-विस्मृत,
ठठाकर हँस पड़ता जल, शान्त था जो,
और बच्चा फेंकता है, - एक और कंकर!
--
न अर्थ न प्रयोजन,
न समय बिताने के लिए,
क्योंकि समय स्वयं उसका विस्तार है,
जो सिमटता फैलता है,
तरंगों के साथ ।
चकित वह,
अपनी ही सृष्टि से,
खेलता रहता है,
कौतूहलवश,
समय होने तक!
--


August 30, 2017

क़ानून

आज की कविता
--
’मैं नहीं करता सम्मान क़ानून का!’
कहना भी आसान है, और करना* भी ।
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं,
कि मैं तोड़ता हूँ, तोड़ूंगा क़ानून को!
क्योंकि क़ानून व्यवस्था है ज़रूरी है,
न मिले भले उससे न्याय, मज़बूरी है ।
यूँ भी कानून का सम्मान कौन करता है?
बस कमज़ोर ही तो क़ानून से डरता है ।
जो न कमज़ोर की रक्षा कर सके क़ानून,
ऐसे क़ानून से क्यों करे उम्मीद कोई?
क़ानून को बदलने के भी तरीके हैं,
सिर्फ़ बहस से क़ानून कैसे बदलेगा?
किसी मग़रूर ताक़तवर रुतबे वाले को,
कोसने या उससे लड़ने से क्या होगा?
मैं नहीं जानता कि क्या बदलता है,
क्या आदमी क़ानून को बदलता है,
या क़ानून ही आदमी को बदलता है,
मैं तो बस सिर्फ़ इतना ही जानता हूँ,
जो भी चीज़ बनती है, मिटा करती है ।
--
 *(या सम्मान न-करना) 

August 28, 2017

मशक-दशकम् / प्रसंगवश

मशक-दशकम्
--
१. मच्छर मलेरिया, यलो-फ़ीवर, और डेंगी जैसी घातक बीमारियाँ फैलाते हैं जिनसे हर साल लाखों-करोड़ों मनुष्य मरते हैं ।
२.मादा-मच्छर अपने अंडों और वंश के लिए मनुष्य के खून में पाये जानेवाले प्रोटीन पर निर्भर होते हैं । नर-मच्छरों को इस अतिरिक्त प्रोटीन की ज़रूरत नहीं होती और वे फूलों के रस से पोषण पाते हैं ।
३.केवल कुछ प्रकार के मच्छर ही मनुष्य के खून पर पलते-बढ़ते हैं, शेष मच्छर रेंगनेवाले जीवों, उभयचर जीवों या पक्षियों के खून पर पलते-बढ़ते हैं ।
४.मच्छर १.५ मील प्रति घंटे की गति से उड़ सकते हैं । मधु-मक्खियों और तितलियों की तुलना में बहुत धीमे ।
५.उनके पंख अत्यंत तीव्र गति से कंपन करते हैं जिसे हम उनकी भनभनाहट के रूप में सुनते हैं ।
६.जोड़ा बनानेवाले मच्छर समान-गति से पंख हिलाते हुए तो अपने लिए उपयुक्त साथी की पहचान कर लेते हैं ।
७.समुद्र-तटीयक्षेत्रों में पनपनेवाले मच्छर उपयुक्त वास-स्थल की तलाश में अपने स्थान से १०० मील दूर तक भी चले जाया करते हैं ।
८.मादा-मच्छर कुछ इंच गहरे ठहरे हुए जमा पानी में भी अपने अंडे देती हैं जहाँ उनके लार्वा तेजी से पनपते हुए देखे जा सकते हैं, इसलिए अपने निवास या कार्य-स्थल के आसपास, बगीचे में या छत, आँगन में कहीं पानी जमा न होने दें ।
९.एक वयस्क मच्छर की औसत उम्र ५-६ माह तक भी हो सकती है ।
१०.मच्छरों के पास यह विशेष-क्षमता होती है कि वे वातावरण में उपस्थित कॉर्बन-डाई-ऑक्साइड को तुरंत जान लेते हैं जिसकी सहायता से वे आसानी से उनका भोजन तलाश लेते हैं ।
--
चलते-चलते :
मच्छर को मच्छर मत समझो बड़ी बीमारी है,
उसमें भी अचरज बस यह, वह केवल नारी है !
(अर्थात् यह कि केवल मादा मच्छर ही ! स्पष्टीकरण इसलिए ताकि किसी को गलतफ़हमी न हो !)
--        

August 25, 2017

तथ्य : एक यथार्थ

आज की कविता
--
तथ्य : एक यथार्थ
--
कोई खुद से बातें कैसे कर सकता है!
बातें तो दो के बीच हुआ करती हैं ।
लेकिन अकसर ही मैंने ये भी देखा है,
किसी-किसी को बातें करते खुद से ।
फिर जब मैं उससे बातें करने लगा,
मुझे नहीं मालूम कि किससे बातें कीं!
दो जो पहले आपस में बातें करते थे,
उनमें से कौन है जिससे मैंने बातें कीं?
और बाद में जब उससे मिलकर मैं लौटा,
चलते-चलते ही मेरे मन ने जब सोचा ।
तो सवाल यह मेरे ही तो मन आया,
क्या मैं भी खुद से ही बातें करता हूँ?
बातें तो दो के बीच हुआ करती हैं,
क्या सचमुच मैं बँटा हुआ हूँ दो में ?
क्या यह बस एक ख़याल ही नहीं मेरा?
ख़याल ही तो बातें करता है ख़याल से!
वह दो होकर बातें करता था जैसे खुद से,
जिसको देखा था मैंने बातें करते खुद से ।
जब देखा था तब उसको ही बस देखा था,
और तभी तो यह ख़याल मेरे मन आया,
उसके पहले कहाँ कौन सा था ख़याल?
जब देखा था तब क्या था मैं बेख़याल?
शायद ही कोई यक़ीं करेगा इस पर,
सिर्फ़ वही जिस पर गुज़रा हो ऐसा कुछ!
--

August 22, 2017

आज की कविता : धूप-छाहीं रंग

आज की कविता : धूप-छाहीं रंग
--
जुलाहा बुनता है चदरिया,
धूप-छाहीं रंग के धागों से,
और ग्राहक भ्रमित-बुद्धि,
चकित-दृष्टि से देखते !
करते विवाद ये है सुनहला,
नहीं, ये है नीला रुपहला,
मुस्कुराता है बस जुलाहा,
सुनता रहता तर्क उनके,
उसे ही ओढ़कर बिछाकर,
घड़ी भर विश्राम करके,
लौट जाता हाट से,
जो कमाई हो गई वह,
धर देता गृहिणी के हाथ पे,
गृहिणी के हाथों में,
रुपहले, सुनहले सिक्के,
देखकर वह सुखी होता,
राम को आशीष देता,
जुलाहा बुनता है चदरिया,
धूप-छाहीं रंग के धागों से,
--
जुलाहा कहता है बोल,
कबित्त से कुछ अनमोल,
गाता है मंद-स्वरों में,
राम की महिमा को,
राम उसके श्यामरंग,
या लिए हैं धनुष-बाण,
मानता नहीं वह कुछ,
हाँ जानता ज़रूर है ।
गाहक जब सुनते हैं,
करघे की खट्-खट्,
देखते हैं वे जब,
उसकी घरवाली को,
तय नहीं कर पाते,
वह हिन्दू है या तुरक़!
न हिन्दू को न तुरक़ को,
गाहक को क्या मतलब,
राम से या श्याम से,
गाहक को मतलब है,
बस वाजिब दाम से
जुलाहा जानता है,
गाहक ही तो राम है,
पर भूलता भी नहीं,
राम ही तो गाहक है,
जुलाहा नहीं करता मोल,
गाहक भी हर तरह का,
जो जितना चाहे दे दे,
जुलाहा दुःखी नहीं होता,
प्रेम का भला क्या मोल?
चदरिया का ज़रूर है,
चदरिया फिर बन जायेगी,
उसका भी भला क्या मोल?
जुलाहा कहता है बोल,
कबित्त से कुछ अनमोल,
गाता है मंद-स्वरों में,
राम की महिमा को,
--

August 20, 2017

कला का मूल्य

आज की कविता
--
फूलवाले बाबा!
जैसे फूलवाले बाबा लाते हैं फूल रोज़,
ऐसी निष्ठा से जैसे प्रभु को हों अर्पित,
नहीं पूछते ’बदले में क्या दोगे तुम’,
और भक्त भी खुश हो केवल यही सोचते,
कितने सुन्दर फूल कितनी भीनी महक!
मेहनत से लाये, तरो-ताज़ा हैं अब तक!
भक्त कभी कोई विवेचना कर देते हैं,
केवल प्रसंगवश, अहोभाव से भरकर,
फूलवाले बाबा केवल मुस्कुरा देते हैं,
कहते हैं प्रकृति ने बाँटा, हमने पाया,
प्रकृति या प्रभु को भी नहीं पता होगा,
उसकी कला का मूल्य, कितना प्रसाद!
--

प्रतिभा-संवर्धन / नए रचनाकार

साहित्य साधना
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पिछले दस-बीस सालों से जब से ’नेट’ का विस्तार हुआ है, अंग्रेज़ी का साम्राज्य ढहने लगा है, सभी दूसरी भारतीय और अन्य सभी भाषाओं में लिखनेवालों की प्रतिभा को अवसर मिला है कि अपनी-अपनी भाषा में अच्छा साहित्य लिखें । लेकिन बहुत से नए लेखकों की प्रतिभा अनेक कारणों से कुंठित होकर रह जाती है । सौभाग्य से हिंदी का साहित्य बहुत समृद्ध है और इसलिए नए रचनाकारों के लिए जहाँ अवसर भी अधिक हैं प्रतिस्पर्धा भी उतनी अधिक कठिन है । पता नहीं अवसर और प्रतिस्पर्धा का अनुपात स्थिर है या कम-ज्यादा होता रहता है लेकिन यदि कुछ बातों पर नए रचनाकार ध्यान दें तो जहाँ एक ओर उनकी रचनात्मकता में निखार आएगा, वहीं उन्हें इसका लाभ इस रूप में भी मिलेगा कि गुणात्मक स्तर पर उनकी प्रतिभा और भी परिष्कृत तथा विकसित होगी, उन्हें अधिक आत्म-संतोष मिलेगा । आनुषंगिक लाभ यह है कि इससे हिंदी भी समृद्ध होगी । साहित्य साधना अगर व्यवसाय है तो आप किन्हीं फ़ार्मूलों, तकनीकों और उपलब्ध साधनों से तात्कालिक तौर पर शायद सफल हो सकते हैं लेकिन उससे आपको संतोष प्राप्त होगा ही यह नहीं कहा जा सकता । इन फ़ार्मूलों, तकनीकों और उपलब्ध साधनों के बारे में आप स्थापित रचनाकारों से भी मार्गदर्शन ले सकते हैं किंतु आपको यह स्पष्ट होना चाहिए कि आपकी साहित्य-साधना आपको स्थायी संतुष्टि दे  यह ज़रूरी नहीं ।
इसलिए अगर वस्तुतः आप एक संतुष्ट रचनाकार होने के बारे में सोचते हैं तो आपको पहले तो रचना के विषय से गहराई से जुड़ना होगा । आपको तदनुसार भाषा-शैली और विधा को सुनिश्चित करना होगा जैसे आप कविता में अपनी बात बेहतर ढंग से कह सकते हैं या कहानी या लेख में ।  आप अपनी रचना कितना विस्तार देते हैं कि आपकी बात अधिक से अधिक अच्छी तरह पाठकों तक पहुँच सके । एक छोटी, संक्षिप्त प्रखर रचना भी पाठक को झकझोरकर रख सकती है और एक लंबी रचना भी उसे बाँधे रख सकती है यदि आप उस रचना से वाक़ई गहराई से जुड़े हैं । किसी विशेष संदेश को अपनी रचना के माध्यम से पाठक तक पहुँचाने के भी अपने हानि-लाभ हो सकते हैं । केवल चौंकानेवाले वाक्यों से आप पाठक को थोड़ी देर के लिए प्रभावित तो कर सकते हैं लेकिन उसका मनोरंजन हो जाने पर वह और अधिक मनोरंजन की तलाश में लग जाएगा और जाने-अनजाने आपसे भी अपेक्षा करने लगेगा कि आप निरंतर नई चौंकानेवाली प्रस्तुतियाँ देते रहें ।
अभी दो-चार दिन पहले मैं एक शायर की शायरी यू-ट्यूब पर ’सुन’ और ’देख’ रहा था । हाँ उनकी शायरी चौंकाती ज़रूर थी लेकिन इससे अधिक वहाँ कुछ नहीं था । कुछ पाठक / श्रोता इतने में ही प्रभावित हो जाते हैं इस शायरी या ऐसे साहित्य में गहराई कितनी हो सकती है इसे संवेदनशील पाठक / श्रोता ही महसूस कर सकता है । लगभग ऐसा ही कुछ उन गायकों के साथ भी होता है जिनकी गायन-साधना और रियाज़ पर आश्चर्य होता है लेकिन व्हॉट नेक्स्ट? अच्छे से अच्छे कलाकार की साधना और तपस्या का सम्मान अवश्य ही होना चाहिए और होता भी है किंतु इसे तय करने का क्या कोई पैमाना हो सकता है? कलाकार जब कला को पेशेवर तौर से करता है तो यह कला और स्वयं उसका भी दुर्भाग्य है । यही बात साहित्यकार पर भी लागू होती है । शिल्पकार, चित्रकार या साहित्यकार जैसे ही अपनी रचना की ’बोली’ लगाता है उसी क्षण उसका मूल्य ’तय’ हो जाता है और वह बाज़ार की एक वस्तु हो जाती है । और आश्चर्य नहीं कि बहुत से साहित्यकार प्रतिष्ठा, सम्मान और ’पहचान’ स्थापित करने के प्रयास में अपनी रचनाधर्मिता के अमूल्य होने को भूल बैठते हैं । कला या साहित्य की महानता इसी में है कि आपने उसके माध्यम से जिसे अभिव्यक्त किया है उसे दर्शक / पाठक / श्रोता ने कितनी गहराई से अनुभव, -न कि उसका उपभोग किया है ।  यह ’उपभोग’ की दृष्टि वास्तव में रचनाकार और उसकी रचना को विनष्ट कर देती है ।
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भाषा और प्रगतिशीलता

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कुछ दिनों पहले एक मित्र ने एक वीडिओ पोस्ट किया था जिसके साथ चेतावनी थी कि इसे सतर्कता से देखें, क्योंकि हो सकता है इससे आपको धक्का लग सकता है ...
वीडिओ शुरू ही इंटरव्यू लेनेवाले के अंग्रेज़ी वाक्य से होता है जो अंग्रेज़ी में प्रश्न करता है :
" कुड यू स्पीक ए फ़्यू सेन्टेन्सेस इन इंग्लिश ...?"
अभी उसका वाक्य पूरा भी नहीं हुआ होता कि इंटरव्यू देनेवाला ऊँची आवाज़ में रोषपूर्वक हिंदी में गालियों की बौछार से जवाब देता हुआ उससे हिन्दी और बीच बीच में फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी में बोलता हुआ यह दर्शाता है कि हमने पाँच साल (या ज़्यादा) कौन-कौन से पापड़ बेले, कितने प्रोजेक्ट्स किए, कितने प्रेज़ेन्टेशन दिये और आप बस एच.आर. में एम.बी.ए. कर यहाँ इन्टरव्यू लेने बैठ गए क्योंकि आप अंग्रेज़ी स्कूल (कॉन्वेन्ट) में पढ़े और हमने गरीबी में बड़ी कठिनाइयों से स्कूल और पी.ई.टी. की परीक्षाएँ पास कीं । पूरे वीडिओ में अन्त तक वही उग्रतापूर्वक यह दर्शाता है कि अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे लोगों ने कैसे टेलेन्ट रखनेवालों के अवसर छीन लिए ।
यहाँ तक ठीक था लेकिन क्या अंग्रेज़ी पर अधिकारपूर्वक बोल सकने का यह अर्थ है कि अंग्रेज़ी की गालियों के पैबन्द (या ठिगले) भी बीच-बीच में जोड़े जाएँ?
हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं को सबसे अधिक नुक़्सान अंग्रेज़ी ने नहीं अंग्रेज़ी संस्कृति और सभ्यता ने पहुँचाया है । तमाम अंग्रेज़ी वल्गर शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से करने से आप भले ही खुद को स्मार्ट और डैशिंग समझ लें यह आक्रामकता न सिर्फ़ आपके आत्मविश्वास की कमी को दर्शाती है, बल्कि आपकी मानसिकता को भी बुरी तरह विकृत कर देती है । आज के युवा-युवतियों ने अंग्रेज़ी (भाषा) को अपनाया तो शायद यह वक़्त का तक़ाज़ा है किंतु अपनी संस्कृति और सभ्यता की अच्छाइयों की क़ीमत पर अंग्रेज़ी और उससे जुड़ी सांस्कृतिक और सभ्यताई बुराइयों को सीखना और उनका गर्वपूर्वक प्रदर्शन करना क्या आपके और पूरे समाज के लिए किसी भी प्रकार से हितकारी है?
यदि आप अंग्रेज़ी के वल्गर शब्दों का प्रयोग खुले आम करने में संकोच अनुभव नहीं करते तो आप स्त्री के लिए समाज में सम्मान की दृष्टि होने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? और निश्चित ही फ़िल्मों का भी इसमें बहुत बड़ा योगदान है । और यदि कोई स्त्री ’स्त्री-स्वतंत्रता’ के नाम पर ऐसे शब्दों का प्रयोग करने में संकोच अनुभव नहीं करती तो भी इससे समाज में क्या संदेश जाता है? लोग उस स्त्री को या दूसरी भी किन्हीं स्त्रियों को अगर गलत दृष्टि से देखने लगें तो क्या वह स्त्री भी स्वयं ही इसके लिए किसी हद तक ज़िम्मेवार नहीं है?
हिन्दी के लिए दुर्भाग्यजनक बात है कि राग दरबारी (श्रीलाल शुक्ल) से लेकर नामवर सिंह जैसे लोगों ने भी ’सर्वहारा’ और प्रगतिशीलता की आड़ और दंभ में साहित्य में अभद्र शब्दों का प्रयोग शुरु किया और कमलेश्वर जैसे लोगों ने भी इसे ही ’आधुनिक’ होना समझा ।
प्रश्न सिर्फ़ इतना है कि क्या इस प्रगतिशीलता से समाज में स्त्री का स्थान वाक़ई अधिक सुरक्षित अधिक सम्मानजनक हो पाएगा?
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नीड़ का निर्माण

एक कविता अधूरी सी अंतहीन ...
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नीड़ का निर्माण कर लूँ,
ऐसी न कल्पना थी कभी ,
क्योंकि मैं पंछी गगन का,
उड़ते-उड़ते थक गया तो,
लौटकर आ जाता हूँ फिर,
जब ये धरती है मेरा घर,
क्यों बनाऊँ फिर मैं नीड़?
मेरा जीवन क्यों हो सीमित,
छोटे से एक नीड़ तक,
यह असीम आकाश मेरा,
और यह धरती असीम,
छोड़कर जाना नहीं है,
मुझको अपना कोई चिन्ह,
जानता हूँ लौटना होगा पुनः,
रात की निद्रा तो बस विश्राम है,
फिर नया दिन नई मंज़िल,
फिर से नया विहान है !
जिनको बनाना हो बनायें,
अपना-अपना अलग नीड़,
करते रहें संघर्ष, सृजन,
और बढ़ाते रहें भीड़,
मेरा जीवन क्यों हो सीमित,
छोटे से एक नीड़ तक,
यह असीम आकाश मेरा,
और यह धरती असीम,
क्योंकि मैं पंछी गगन का,
उड़ते-उड़ते थक गया तो,
लौटकर आ जाता हूँ फिर,
जब ये धरती है मेरा घर,
क्यों बनाऊँ फिर मैं नीड़?
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August 15, 2017

ह - नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्न शब्दकोश

नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्न शब्दकोश
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हक़ (उचित, वाजिब, न्याय्य, अधिकार),
हक़ीक़त (सच्चाई, यथार्थ, तथ्य, रहस्य),
हक़ीक़तन (वास्तव में),
हक़ीक़ी (अपरिहार्य, सच्चा), [इश्क़ हक़ीकी -ईश्वरीय प्रेम (लौकिक प्रेम 'इश्क़े-मज़ाजी' की तुलना में)],
हक़ीर (गर्हित, तुच्छ),
हज़म (पचना, खा जाना),
हज़रत (महामहिम, महान),
हज़ार (संख्या १०००),[संस्कृत - स-ह-स्र],
हज़ारहा (हज़ारों), [सहस्रशः],
हज़ारा (जिसमें हज़ार’ बहुत से हिस्से हों),
हज़ारी (हज़ार से संबंधित),
हज़ारी-बाज़ारी (फ़ौजी और तिजारती -सैनिक और व्यापारी),
हफ़्ता (सप्ताह),
हमक़ौम (एक ही जाति / देश / स्थान / संस्कृति के),
हमख़ियाल (एक समान विचारधारा के),
हमज़बान (एक ही भाषा बोलनेवाले),
हमज़ाद (जुड़वाँ),
हमज़ात (एक ही क़िस्म के),
हम-ज़ुल्फ़ (साढ़ू),
हममज़हब (एक ही परंपरा के),
हमराज़ (एक-दूसरे के रहस्य जाननेवाले),
हमसफ़र (सहयात्री),
हर-फ़न-मौला,
हरगिज़ (कदापि, क़तई, बिलकुल -’नहीं’ के साथ प्रयुक्त होता है),
हरफ़ / हर्फ़ (वर्ण, -विशेष रूप से अरबी या फ़ारसी भाषा में लिखा जानेवाला),
हरफ़नमौला (हर-फ़न-मौला),
बहरफ़ (शब्दशः, अक्षरशः, जैसे का तैसा, यथावत्),
हर्फ़ (हरफ़),
हर्राफ़ (चतुर, तीक्ष्णबुद्धिवाला),
हलक़ (गला, कंठ),
हलक़ा (सीमित क्षेत्र, पटवारी, तहसीलदार का हलक़ा), [हलका -वज़न में कम],
हलफ़ (शपथ),
हलफ़नामा (शपथपत्र),
हलालख़ोर (जो विधिसम्मत अन्न का सेवन करता है),
हलालख़ोर (सफ़ाई कर्मचारी),
हाज़मा (पाचन),
हाज़िम (पाचक, पच जानेवाला),
हाज़िर (प्रस्तुत, उपस्थित),
हाज़िरजवाब,
हाज़िरी,
हाफ़िज़ (रक्षा करनेवाला, जिसे क़ुरान कंठस्थ है), [मुहाफ़िज़ -शरणार्थी, बही-ख़ाता रखनेवाला, महफ़ूज़ - सुरक्षित],
हिक़ारत (घृणा, नफ़रत),
हिफ़ाज़त (रक्षा, सुरक्षा),
हिफ़ाज़ती (सुरक्षा से संबंधित, रक्षात्मक),
हिमाक़त (मूर्खता, धृष्टता, उद्दंडता),
हीलाबाज़ (चालबाज़),
हुक़्क़ा,
हुक़्केबाज़,
हुक़्क़ा-पानी,
हुज़ूर (मालिक, मुख्य व्यक्ति या स्थान, हुज़ूर तहसील),
हुज़ूरी - (सेवा, ख़िदमत), [जी-हुज़ूरी (चापलूसी)],
हैज़ा (विषूचिका, कॉलेरा),
हैफ़ (खेद, अफ़्सोस),
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स - नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्न शब्दकोश

नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्न शब्दकोश
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स  
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सक़्क़ा (जल-सींचने का पात्र) [संस्कृत - सिच् > सेक, अभिसिच् > अभिषेक],
सख़्त (कठोर, ठोस, सशक्त) [संस्कृत -शक्त, शक्तिः, शक्ती - सख़्ती],
सख़्ती,
सज़ा (योग्य, लायक़, दण्ड), [संस्कृत - सज्, सज्ज, सज्जित],
सज़ायाफ़्ता, [संस्कृत - सज्जायाः आप्तो ,यः सज़ावार],
सदक़ा (दान, अर्पण, समर्पण), [सदक़े जाना],
सफ़र (यात्रा),
सफ़री (यात्रा, यात्रा से संबद्ध),
सफ़हा (किताब का पृष्ठ, पाना),
सफ़ा (साफ़, स्वच्छ),
सफ़ाया (निवारण, समाप्ति),
सफ़ाई,
सफ़ीर (दूत),
सफ़ेद,
सफ़ेदपोश,
सफ़ेदा (खड़िया मिट्टी, चूना),
सफ़ेदी.
सबक़ (पाठ),
सब्ज़ (हरा, ताज़ा),
सब्ज़बाग़ (दिखाना),
सब्ज़ा (हरापन, हरीतिमा, हरियाली) [उग आया है दरो-दीवार पर सब्ज़ा ग़ालिब],
सब्ज़ी (हरापन, हरीतिमा, हरियाली, पत्तीदार, तरकारी),
सब्ज़ी-फ़रोश,
सरग़ना (नायक, प्रमुख),
सर्दी-ज़ुकाम,
सर्फ़ (ख़र्च करना, होना),
सर्राफ़,
सर्राफ़ा,
सलीक़ा (रीति, विधि, तरीका, रूढ़ि, परिपाटी),
साक़ी (मदिरा का प्याला देनेवाला, प्रिय), [संस्कृत -साक्षी],
साज़ (वाद्ययन्त्र),
साज़-संगीत,
साज़ो-सामान,
साज़िंदा (वादक, संगीतकार),
साज़िश (षड्यंत्र),
साज़िशी,
साफ़ (स्वच्छ, स्पष्ट, सफ़ेद),
साफ़ी (सफ़ाई करने का कपड़ा),
साबिक़ (पूर्व, पहले),
साबक़ा (सुदीर्घ परिचय, व्यवहार),
सिफ़त (प्रकृति, गुण, स्वभाव, चरित्र, आदत),
सिफ़र (शून्य), न-कुछ,
सिफ़ारत (दूत से संबंधित, मध्यस्थता),
सिफ़ारत-ख़ाना (दूतावास),
सिफ़ारिश (अनुशंसा, किसी के पक्ष में किया जानेवाला अनुरोध),
सिफ़ारिशी,
सिर्फ़ (मात्र, केवल),
सीख़ (पतली तारनुमा डंडी) [सीख-कबाब],
सीख़चा (खिड़की में लगी छ्ड़ें),
सीख़िया (सीख़ पर बना / भुना),
सुख़न (भाषण, वक्तृता), [हमसुख़न -एक सी भाषा बोलनेवाले],
सुराग़ (संकेत),
सुर्ख़ (गहरा या चमकदार लाल),
सुर्ख़ी (लालिमा, लाली),
सूफ़ी (सूफ़ी इस्लामिक आचार-विचार),
सूराख़ (छिद्र, छेद),
सैक़ल (कल-पुर्ज़ों को सुधारना, स्वच्छ करना)
सैक़लगर,
सोख़्ता (सोखनेवाला काग़ज़), [स्याही-सोख़्ता],
सोफ़ता (उचित अवसर, फ़ुरसत, प्रासंगिक),
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August 14, 2017

श - नुक्‍ता चीं - अनुक्‍त चिह्न शब्दकोश

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श -- नुक्‍ता चीं - अनुक्‍त चिह्न शब्दकोश
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शख़्स, शख़स (व्यक्ति),
शख़्सियत (व्यक्तित्व),
शख़्सी (व्यक्तिगत, वैयक्तिक),
शग़ल (फ़ुरसत, समय बिताना, गतिविधि),
शग़ला, शग़ल,
शगूफ़ा (फूल की कली, छिड़ना, छेड़ना, शुरू होना) [शगूफ़ा खिलना, छोड़ना],
शफ़क़, शफ़क़त (सुबह-शाम को होनेवाली आकाश की लालिमा),
शफ़ा (चिकित्सा, इलाज, उपचार),
शफ़ाख़ाना (दवाख़ाना, अस्पताल),
शरीफ़ (सभ्य),
शरीफ़ा (सीताफल),
शर्क़ी (पूर्व दिशा का, [मशरिक़ -पूर्व दिश],
शाख़ (डाली, शाखा),
शिगाफ़ (दरार, टूटना, कटने से हुआ घाव),
शिग़ाल (सियार) [संस्कृत - श्रगाल],
शिगूफ़ा, शिगूफ़ा,
शीराज़ा (ग्रथन, पुस्तक की जिल्द बाँधना), [शीराज़ा खुलना, टूटना, बिखरना],
शुग़ल, शग़ल,
शेख़ (गणमान्य, विशिष्ट), [शेख़-चिल्ली - कल्पना-लोक में विचरनेवाला],
शेख़ी (झूठी शान), [शेख़ी जताना, हाँकना, मारना],
शेख़ीबाज़ - शेख़ी जतानेवाला,
शोख़ (प्रसन्न, ख़ुश, चंचल, सनकी, शैतान, अधीर, चमकीला -रंग),
शोख़ी (रूमानी मिज़ाज)
शौक़ (इच्छा, रुचि, पसन्द होना), [शौक़ रखना, शौक फ़रमाना],
शौक़िया (प्रेमपूर्ण, प्रेमवश, लगाव होने से),
शौक़ीन (रुचि रखनेवाला),
शौक़ीनी,
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ल, व, - नुक्ता चीं -अनुक्त चिह्न शब्दकोश

ल - नुक्ता चीं -अनुक्त  चिह्न शब्दकोश
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लक़दक़ (निराश, अर्थहीन),
लक़दक़ (प्रखर, तेजस्वी),
लक़लक़् (एक पक्षी),
लक़वा (पक्षाघात, लू या ठंड लग जाना),
लख़लख़ा (सुगंधित द्रव्यों का मिश्रण),
लख़्त (लख़्ते-जिगर, लख़्ते-दिल, अत्यन्त प्रिय),
लताफ़त (नज़ाकत, मृदुता, कोमलता, लावण्य),
लतीफ़ (सौम्य, मृदु),
लतीफ़ा (चुटकुला, हास्य पैदा करनेवाला),
लतीफ़ेबाज़ (मनोरंजक),
लफ़ज़ी (शाब्दिक),
लफ़्ज़ (शब्द), [अलफ़ाज़],
लफ़्फ़ाज़ (वाचाल),
लवाज़मा (साथ रखने की ज़रूरी चीज़ें),
लहज़ा (दृष्टि, नज़र, क्षण, प्रसंग), [लहजा -उच्चारण, ध्वनि, शैली],
लाहौल बिला क़ूवत (चिन्ता, असहमति, भय, रोष व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त किए जानेवाले शब्द),
लाज़िम (ज़रूरी, अपरिहार्य),
लाज़िमी (लाज़िम, ज़रूरी), [लाज़िमी तौर पर],
लिफ़ाफ़ा,
लिफ़ाफ़िया (दिखावटी, ऊपरी),
लिहाज़ (ध्यान, शिष्टचार, शालीनता, सम्मान),
लिहाज़ा (अतः, इसलिए),
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वक़अत (वज़न, बल, दबाव),
वक़ूफ़ (ज्ञान, समझ), [वाक़िफ़, बेवक़ूफ़, नवाक़िफ़, वक्फ़],
वक़्त (समय, घड़ी, प्रसंग, क्षण), [बवक़्त, बेवक़्त, वक़्त गुज़ारना],
वक़्फ़ (धर्मार्थ दान आदि),
वक्फ़ा (अवधि, अंतराल, दौरान),
वग़ैरह (इत्यादि),
वग़ैरा, वग़ैरह,
वज़न (भार), [वज़नी, वज़नदार],
वज़ा (स्वभाव, स्थिति, दशा),
वज़ारत (वज़ीर का कार्यालय, कार्यक्षेत्र या कार्य),
वज़ीफ़ा (छात्रवृत्ति),
वज़ीर (मन्त्री, अमात्य),
वज़ीरी,
वज़ू (प्रार्थना से पहले पानी से शरीर की शुद्धि करना -इस्लामी विधि),
वफ़ा (प्रेम, स्नेह, निष्ठा),
वफ़ाई (प्रेम),
वफ़ात (मृत्यु) [वफ़ात पाना -मरना],
वरक़ (पँखुड़ी, पत्ती, धातु की पतली पत्ती, सोने-चांदी का वरक़),
वरक़ा (आवरण-पृष्ठ, पुस्तक का),
वरग़लाना (उकसाना, बहकाना, फ़ुसलाना),
वाक़ई (वास्तव में, सचमुच),
वाक़फ़ियत (जानकारी, सूचना), [वक़ूफ़ -ज्ञान, समझ],
वाक़िफ़,
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August 13, 2017

आज की कविता : ’मैं’

आज की कविता : ’मैं’
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’मैं’ कभी भीड़ है,
’मैं’ कभी भेड़िया,
’मैं’ कभी भेड़ है,
’मैं’ कभी गड़रिया,
’मैं’ कभी नदिया है,
’मैं’ कभी है नैया,
’मैं’ कभी धारा भी,
’मैं’ किनारा भी कभी,
’मैं कभी एक भी,
’मैं’ कभी अनेक भी,
’मैं’ कभी बुरा भी,
’मैं’ कभी नेक भी!
’मैं’ कभी ’मैं’ है,
’मैं कभी ’तू’ है,
’मैं' कभी ’हम’ है,
’मैं' कभी आप भी!
’मैं’ से जुदा कोई,
दूसरा ’मैं’ कहाँ?
’मैं’ के सिवा कोई,
दूसरा ’मैं’ कहाँ?
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August 12, 2017

र -नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्नकोश

र -नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्नकोश
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र 
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रक़बा (क्षेत्र -भूमि का),
रक़म (राशि, द्रव्य, सोना-चांदी, प्रकार),
 रक़मी (तय राशि, चिन्हित),
रक़ीब (प्रतियोगी),
रक़्क़ासा (नर्तकी), [रक़्स -नृत्य],
रख़्श (प्रकाश या किरण),
रग़बत (इच्छा, रुझान, झुकाव),
रदीफ़ (शायरी में किसी पंक्ति के अंत में मिलते-जुलते उच्चारण वाला शब्द),
रफ़ल (राइफल),
रफ़ल (ऊनी शॉल),
रफ़ा (समाप्ति), रफ़ा-दफ़ा,
रफ़ू (कपड़े को रफ़ू करना),
रफ़्ता (क्रमशः) [रफ़्ता-रफ़्ता],
रफ़्तार (गति, वेग, चाल),
रमज़ान (महीना),
रमज़ानी (रमज़ान के महीने का),
राज़ (रहस्य),
राज़दार (विश्वस्त, भरोसेमंद),
राज़िक़ (संवर्धन करनेवाला, परमेश्वर),
राज़ी (संतुष्ट),
राज़ी (रहस्य),
रुख़ (चेहरा, गाल, दिशा, सामने),
रुख़सत (विदा),
रुख़सती (विदाई),
रेख़ती (फ़ारसी से भिन्न प्रकार की शैली की उर्दू शायरी),
-रेज़ (रंगरेज़),
रेज़गी (रेज़गारी, खुल्ले पैसे),
रेज़ा (टुकड़ा),    
रेख़ता (बिखरा हुआ, मिश्रित, मिला-जुला),
रोग़न (मक्खन),
रोग़न (राग-रोग़न),
रोज़ (प्रतिदिन),
रोज़नामा (डायरी),
रोज़नामचा (डायरी),
रोज़-बरोज़ (दिन-प्रतिदिन),
रोज़मर्रा (आए दिन, रोज़ ही),
रोज़गार (आजीविका),
रोज़गारी (कमाई, नौकरी),
रोज़ा (रमज़ान के महीने में रखा जानेवाला),
रोज़ाना (रोज़),
रोज़ी (रोज़ी-रोटी),
रौग़न (रोग़न),
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य -नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्नकोश

य -नुक्‍ता चीं -अनुक्‍त चिह्नकोश
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य 
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यक़ीन (निष्ठा, भरोसा),
यख़नी (पुलाव),
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Note :
इस अनुक्‍त चिह्नकोश में  संग्रहीत हिंदी-शब्दों के लिए सन्दर्भ की औपचारिकता तथा सरलता के लिए आधार-रूप में
The OXFORD HINDI-ENGLISH DICTIONARY (R.S.McGregor 1993),
ISBN 0-19-563846-8
1993 Edition, Thirteenth impression 2003
को लिया गया है । इसलिए शब्दों के प्रचलित रूप और यहाँ दिए गए प्रकार में अंतर होना संभव है।
इस सूचना को इसलिए भी दिया जा रहा है कि पाठक इन शब्दों को स्वयं भी वहाँ से देख सकता है और अपनी संतुष्टि कर सकता है ।
यहाँ यह कार्य शुद्धतः हिंदी की सेवा की भावना से किया गया है इसलिए जिन शब्दों को यहाँ उद्धृत, संशोधित किया गया है, संपादित किया गया है, उन के लिए किसी प्रकार से किसी का कोई बौद्धिक अधिकार (Intellectual Property Rights) है ऐसा मैं नहीं समझता । न ही मेरा ऐसा कोई बौद्धिक अधिकार (Intellectual Property Rights) है।
यह सूचना इसलिए भी दी जा रही है कि किन्हीं कारणों या परिस्थितियों से अगर मैं इसे पूरा न कर सकूँ तो जिसकी भी रुचि हो वह इसे अपने तरीके से पूरा कर सकता है।
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August 11, 2017

म - नुक्‍ता चीं -अनुक्त चिह्नकोश

- नुक्‍ता चीं -अनुक्त चिह्नकोश
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मंज़र (दृश्य),
मंज़ूर (स्वीकार),
मंज़ूरी,
मक़दूर (सामर्थ्य, शक्ति, साधन),
मक़बरा (हुमाँयू का मक़बरा),
मक़बूल (स्वीकृत, राज़ी),
मक़रूज़ (ऋणी, ऋण लेनेवाला),
मक़सद (इरादा, ध्येय),
मक़सूद (जो ध्येय है),
मक़सूम (बँटा हुआ, विभाजित) [ तक़सीम -विभाजन],
मक़ाम (मुक़ाम, पड़ाव),
मक़ामी,
मख़ज़न (कोठार, भंडारगृह) [ख़ज़ाना, संस्कृत -महाजन], बन्दूक की क़ारतूस,
मख़मल (मखमल -कपड़ा),
मख़मली,
मख़मसा (दैन्य, विपत्ति),
मख़मूर (उन्मत्त), [ख़मीर उठना -किण्वन् ],
मख़रूती (झुका हुआ, मुड़ा हुआ, लहर की आकृति वाला),
मख़लूक़ (जिसका सृजन किया गया),
मख़सूस (विशिष्ट, ख़ास),
मग़ज़ (मस्तिष्क, सार, गूदा, तत्व),
मग़ज़ी (हद तक का, मर्यादात्मक, दिमाग़ी, तात्विक),
मग़रिब (पस्चिम),
मग़रबी, नग़रिबी (पश्चिमी, पाश्चात्य),
मग़रूर (हठी, दुराग्रही, दंभी, ज़िद्दी),
मग़रूरी (हठ, गर्व),
मग़्ज़, मग़ज़,
मज़कूर (सूचना, उल्लेख) [ज़िक्र, ज़ाकिर],
मज़दूर (श्रमिक),
मज़दूरी (श्रम, पारिश्रमिक),
मज़बूत (दृढ़),
मज़बूती (दृढ़ता, सामर्थ्य),
मज़मून (विवरण, विषय, संक्षेप),
मज़म्मत (दोषारोपण, आलोचना, निंदा),
मज़र्रत (हानि, क्षति -पहुँचाना),
मज़लूम (शोषित, जिस पर अत्याचार हुआ), [ज़ुल्म, ज़ालिम],
मज़हब (संप्रदाय, आचार-विचार),
मज़हबी (आचार-विचार का तौर-तरीक़ा),
मज़ा (आस्वाद, आराम, आनंद, सुख-शान्ति),
मज़े से, मज़ेदार,
मज़ाक़ (परिहास, विनोद), [मज़ाक़ करना -विनोद करना, मज़ाक़ उड़ाना -उपहास करना, खिल्ली उड़ाना],
मज़ाक़िया (विनोदपूर्ण, हास्य),
मजाज़ी (वैध, स्वीकार्य, अनुमत),
मज़ार (मृतक को जहाँ दफ़नाया गया वह स्थान या वहाँ बनाया गया भवन),
मरग़ोला (अंगूठी या अंगूठी के आकार की कोई वस्तु),
मरज़ (मर्ज़, रोग, बीमारी),
मरज़ी (स्वीकृति, अनुमति), [रज़ा, राज़ी],
मरीज़ (रुग्ण, रोगी),
मर्ग़ (मैदान, पर्वत की तलहटी, घाटी) [गुलमर्ग़],
मर्ज़, मरज़,
मर्ज़बान (राज्य का उत्तराधिकारी, राजकुमार),
मशक़्कत (मेहनत, परिश्रम, कठिन श्रम, विपत्ति),
मशग़ूल (व्यस्त, संलग्न),
मशरिक़ (पूर्व दिशा),
मशरिक़ी (पूर्व दिशा से संबंधित),
मश्क़ (अभ्यास, यत्न, प्रतिलिपि),
मसख़रा (विदूषक, मज़ाक़िया),
मसख़री (मज़ाक़, ठिठौली),
मसरफ़ (उपयोग, इस्तेमाल),
मसरूफ़ (में व्यस्त),
मसरूफ़ियत (व्यस्तता),
महज़ (केवल, सिर्फ़),
महज़र (एकत्रित होने का स्थान, जनहित-याचिका),
महफ़िल (सभा, संगीत-नृत्य की सभा),
महफ़ूज़ (सुरक्षित, साबुत),
माक़ूल (उचित, समुचित, यथेष्ट, वाँछित > वाजिब),
माक़ूलियत (औचित्य),
माज़ूर (असहाय, निर्बल, क्षम्य),
माफ़ (क्षमा करना) [संस्कृत -माप],
माफ़िक़ (योग्य, समान, बराबर), [संस्कृत -मापिक],
माफ़ी (क्षमा), [मुआफ़, मुआफ़िक़, मौफ़ीक़],
मारफ़त (द्वारा, के माध्यम से, के ज़रिए),
मारूफ़ (ज्ञात, विख्यात, प्रसिद्ध),
माशूक़ (प्रिय, स्नेही, स्नेहिल) [इश्क़, आशिक़],
माशूक़ा (प्रिया, स्नेही, स्नेहिल),
माशूक़ाना (आकर्हण, सौन्दर्यपूर्ण),
मिक़दार (मात्रा),
मिक़नातीस (चुंबक),
मिज़राब (तारवाद्य बजाने का साधन, प्लेक्ट्रम),
मिज़ाज (मिलवट, मिश्रण, प्रकृति, स्वभाव, मन की स्थिति),
मिज़ाजी (सनकी, भावनात्मकता),
मिर्ज़ा, मिरज़ा,
मीज़ान (जोड़ की क्रिया, कुल, नापना),
मुंतज़िम (व्यवस्थित, सुचारु), [ तंज़ीम, इन्तज़ाम],
मुंतज़िर (प्रतीक्षा करनेवाला), [इन्तज़ार],
मुअज़्ज़न (मुअज़्ज़िन), [अज़ान -आव्हान, आवाहन, आजान],
मुअज़्ज़िज़ (आदरणीय, प्रख्यात),
मुआफ़, माफ़
 मुआफ़िक़, माफ़िक़,
 मुआवज़ा (क्षतिपूर्ति, ऐवज़ी),
मुक़त्तर (आसवित, डिस्टिल्ड), [अवतर > इतर > इत्र > अत्तार > मुक़त्तर],
मुक़त्ता (क़रीने से कटा हुआ), [लॉन, दाढ़ी-मूँछ, काग़ज़],
मुक़दमा (अदालती पेशी, विवाद),
मुक़द्दम (प्रमुख, ऊंचा),[क़द],
मुक़द्दमा, मुक़दमा,
मुक़द्दर (भाग्य),
मुक़द्दस (पवित्र),
मुक़र्रर (तय),
मुक़ाबला (स्पर्धा),
मुक़ाबिल (टक्कर का),
मुक़ाबिला, मुक़ाबला,
मुक़ाम (ठौर, स्थान),
मुक़ामी (स्थान का, स्थायी),
मुख़तलिफ़, मुख़्तलिफ़ (भिन्न-भिन्न),
मुख़्तसर (प्रमुख, ख़ास),
मुख़्तार (मुख्य), [ख़ुद-मुख़्तार, ख़ुद-मुख़्तारी -स्वायत्तता],
मुख़बिर (गुप्तचर सूचना देनेवाला),
मुख़ातिब (सामना करना, सामने होना),
मुख़ालिफ़ (विपरीत, सम्मुख, विरोध में),
मुख़ालिफ़त (विरोध, विपक्ष),
मुख़्तलिफ़ (भिन्न-भिन्न),
मुग़ल, मुग़ली, मुग़लई, मुग़लानी, मुग़लिया,
मुज़ायक़ा (मुश्किल, परिणाम),
मुज़ाहिम (रोकनेवाला, बाधक),
मुतफ़न्नी (चालबाज़, चालाक),
मुतलक़ (अबाध, पूर्ण),
मुतअल्लिक़ (से संबंधित),
मुताबिक़ (अनुसार),
मुत्तफ़िक़ (तालमेल होना),
मुदाख़लत (दख़लंदाज़ी, हस्तक्षेप),
मुनक़्क़ा,
मुनाफ़ा (लाभ),
मुफ़लिस (निर्धन, कंगाल),
मुफ़लिसी,
मुफ़स्सल (अलग हुए, अलग-अलग),
मुफ़ीद (फ़ायदेमंद, लाभप्रद),
मुफ़्त (बिना मूल्य लिए),
मुफ़्ती,
मुमताज़ (प्रसिद्ध),
मुरग़ा, मुर्ग़ा,
मुरग़ी, मुर्ग़ी,
मुर्ग़ (मुर्ग़ा),
मुलाक़ात ( मिलाना,भेंट),
मुलाक़ाती,
मुलाज़मत (सेवा, उपस्थिति),
मुलाज़मी,
मुलाज़िम (कर्मचारी),
मुलाहज़ा (जाँच),
मुवाफ़िक़, मुआफ़िक,
मुशफ़िक़ (प्रिय, स्नेही, दयालु),
मुश्ताक़ (इच्छुक, चाहनेवाला),
मुसाफ़िर (यात्री),
मुसतौफ़ी (हिसाब का ऑडिट),
मोम-ज़ामा (कपड़ा),
मौक़ा (अवसर),
मौक़ूफ़ (निलंबित, निर्भर),
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August 10, 2017

’आज’ की कविता / इन दिनों

’आज’ की कविता
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इन दिनों 
सुबह सरे-राह* पर पर्दा था,
एक साया था सायात** का,
सवाल था दिन भर, कि क्या है,
शाम को पर्दा फ़ाश हो गया,
यूँ तो पर्दे पे हर रोज़ ही,
नित नये मंज़र नज़र आते हैं,
आँखें चौकन्नी अगर हों,
छिपे ख़ंज़र नज़र आते हैं,
जैसे बनते हुए महलों में,
ठीक से देखोगे अगर,
बस देखनेवालों ही को
ढहते खंडहर नज़र आते हैं,
जैसे खुशहाली तरक़्की में,
दस्तके-क़हर नज़र आते हैं,
मय के छलकते प्यालों में,
ख़ामोश ज़हर नज़र आते हैं,
जैसे उनके आने की अदा,
आते ही कहते हैं कि जाते हैं,
और जाने की फिर ये अदा,
जाते हुए कहते हैं कि आते हैं,
बस कि यूँ पर्दे उठा करते हैं,
बस कि यूँ पर्दे गिरा करते हैं,
सिलसिला रहता है तारी,
सिलसिले यूँ ही जारी रहते हैं ।
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*sararah
**sayat
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August 09, 2017

सृजन : कविता, संगीत, चित्र

संगीत, चित्र और कविता (गीत)
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यह वीडिओ एपिसोड १६ से मैंने सुना । वाचक ने जैसा कि कवि ग्रेस के बारे में कहा कि हो सकता है कवि ने स्वयं भी कविता को उस प्रकार से न समझा हो, जैसा किसी और ने समझा होगा ।
कविता, चित्र और संगीत (ख़ासकर भारतीय शास्त्रीय संगीत) के बारे में मेरी समझ यह है कि आप इन्हें किसी पैमाने पर इनके मूल तत्वों को नाप नहीं सकते । किंतु फिर भी आप संवेदना के स्तर पर उस मनःस्थिति से अवश्य जुड़ सकते हैं जिसमें रचना का सृजन किया / हुआ होता है । और ज़रूरी नहीं कि रचना किन्हीं भावनाओं को जागृत या उद्दीप्त करे ही (हालाँकि वह भी संभव है, और प्रायः होता भी है), बहरहाल यह अवश्य संभव है कि रचना आपको एक ऐसे लोक में ले जाए जहाँ आपका मन अत्यंत शान्त, स्तब्ध और स्थिर हो जाता है, संक्षेप में कहें कि स्वाभाविक रूप से ’एकाग्र’ हो जाता है, जहाँ आपके मन की गतिविधि (चित्तवृत्ति) अनायास निरुद्ध हो जाती है ।
और इसके लिए कविता, संगीत या चित्र की एक विधा भी पर्याप्त समर्थ हो सकती है । मेरा सोचना तो यह है कि एक से अधिक विधाओं में संयोजित रचना का अपना सामर्थ्य श्रोता / दर्शक / की रुचि और परिपक्वता के अनुसार कम या अधिक भी हो जाता है ।
मराठी कवि ’ग्रेस’ की रचना के आस्वाद में मैंने यही पाया ।
मैंने कुछ समय पूर्व RSTV का you-tube का एक लिंक शेयर किया था,  जिसमें भारतीय फ़िल्मोद्योग के पर्दे के पीछे संगीत के रचनाकारों की ’कला’ के बारे में बतलाया गया था । उसमें एक संगीतकार भारतीय संगीत को ’लीनियर’ कह रहे थे, और उस की तुलना में पाश्चात्य विधा को (लेटरल) / स्पेटिअल् ! उनका आशय यह था कि भारतीय विधा में एक ही वाद्य प्रमुख होता है जिसके साथ एक राग के स्वरों की संगति का (जैसे तानपूरा या सारंगी) और एक तालवाद्य होता है । जबकि पाश्चात्य (या आधुनिक) में अनेक वाद्यों (उदाहरण के लिए एक से अधिक वायोलिन एक साथ) से स्वरों  के संयोजन से नया प्रभाव पैदा किया जाता है । यह हुआ (लेटरल) / ’स्पेटिअल्’ । एक अन्य महिला संगीतकार ने भी इस बारे में लगभग यही कहा था ।
मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या संगीत की उस (लेटरल) / ’स्पेटिअल्’ विधा से चित्त की वह स्थिति होना संभव है जो ’ग्रेस’ की रचना पढ़ते हुए या सुनते हुए अनायास हो जाती है? संभव है कि एट्थ / नाइन्थ सिम्फ़नी को सुनने का अनुभव किसी गहन अनुभूति में ले जाता हो, किंतु मूल प्रश्न है राग की स्वाभाविक गति से उत्पन्न अनुभव । निश्चित ही भारतीय संगीत में स्वर (और वर्ण) देवता तत्व है, -अर्थात् ’जागृत-प्राण तत्व’ और उन्हें यन्त्रों से नहीं जगाया जा सकता ।
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