आज की कविता
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लौटना, मन का ...
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भटकता मन, भटकते-भटकते,
ख़ुद से, बहुत दूर चला जाता है
और उसे लगता है लौट आये,
लौटना पर कहाँ हो पाता है?
खटकने लगता है मन को मन,
सहारा देता है खुद को खुद ही,
ख़ुदी कभी मन से दूर नहीं जाती,
ख़ुदी कभी मन से दूर नहीं होती,
हाँ ज़रूरी है ख़ुदी को देख ले वह,
ख़ुदी जो आती न जाती है कभी,
मन उभरता है, भटकता खोता है,
और आख़िर को खुद तक आता है ।
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लौटना, मन का ...
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भटकता मन, भटकते-भटकते,
ख़ुद से, बहुत दूर चला जाता है
और उसे लगता है लौट आये,
लौटना पर कहाँ हो पाता है?
खटकने लगता है मन को मन,
सहारा देता है खुद को खुद ही,
ख़ुदी कभी मन से दूर नहीं जाती,
ख़ुदी कभी मन से दूर नहीं होती,
हाँ ज़रूरी है ख़ुदी को देख ले वह,
ख़ुदी जो आती न जाती है कभी,
मन उभरता है, भटकता खोता है,
और आख़िर को खुद तक आता है ।
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