October 16, 2017

काल-विवर्त

काल-विवर्त
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कभी कभी दिन तेजी से बीतते हैं।
कभी कभी बहुत धीमे।
हर दिन एक अलग तरह का होता है ।
भौतिक अर्थ में तो जिसे मापा जा सकता है, वह लगभग चौबीस घंटों का होता है, लेकिन 'मानसिक' समय जिसे मापा  नहीं जा सकता मानो रबर की इंची-टेप होता है, जिसे हम (शायद हर कोई) जरूरत और वक्त के हिसाब से खींचकर छोटा-बडा  कर लिया करता है । समय की यह लंबाई, जो अनुभूति के सीधे अनुपात में होती है, भौतिक समय पर लादकर हम सोचने लगते हैं कि 'समय' धीमे या तेजी से गुजरता है।
मैं जब स्कूल में पढ़ता था तो मेरे भौतिक शास्त्र के अध्यापक मेरी इस दलील पर मुस्कुराते हुए कहते थे,
तुम तर्क-शास्त्र में कुशल हो लेकिन तुममें सामान्य समझ की कमी है । और मैं सोचता था, मुझमें जो प्रश्न उठते हैं उनके उत्तर इनके पास नहीं है।
वाल्मीकि-रामायण में काल-विवर्त का उल्लेख है।
वाली की पत्नी तारा ने उससे प्रार्थना की थी कि वह छोटे भाई सुग्रीव से वैर का अंत कर प्रभु श्रीराम से मैत्री कर ले किन्तु वाली कालपाश में बंधा था इसलिए उसने पत्नी के हितकारी वचनों की उपेक्षा की और युद्ध न करते हुए भी प्रभु श्रीराम के बाण से मारा गया :
तदा  तारा हितमेव वाक्यं
तं  वालिनं  पथ्यमिदं बभाषे ।
न रोचते तद् वचनं हि तस्य
कालाभिपन्नस्य विनाशकाले।।
(वाल्मीकि-रामायण किष्किन्धाकांडे षोडशः सर्गः श्लोक ३१ अंतिम )
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