आज की कविता
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द्वार पर संध्या की आहट,
आ रही पदचाप उसकी,
जा रहा मध्याह्न भी अब,
दो घड़ी का मिलन उनका,
रोज़ ही मिलते-बिछुड़ते,
जैसे पुरातन दोनों प्रेमी,
द्वार ठिठका देखता भर,
प्रीति का यह मिलन अद्भुत् ।
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नमस्ते!
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द्वार पर संध्या की आहट,
आ रही पदचाप उसकी,
जा रहा मध्याह्न भी अब,
दो घड़ी का मिलन उनका,
रोज़ ही मिलते-बिछुड़ते,
जैसे पुरातन दोनों प्रेमी,
द्वार ठिठका देखता भर,
प्रीति का यह मिलन अद्भुत् ।
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नमस्ते!
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