’आज’ की कविता
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इन दिनों
सुबह सरे-राह* पर पर्दा था,
एक साया था सायात** का,
सवाल था दिन भर, कि क्या है,
शाम को पर्दा फ़ाश हो गया,
यूँ तो पर्दे पे हर रोज़ ही,
नित नये मंज़र नज़र आते हैं,
आँखें चौकन्नी अगर हों,
छिपे ख़ंज़र नज़र आते हैं,
जैसे बनते हुए महलों में,
ठीक से देखोगे अगर,
बस देखनेवालों ही को
ढहते खंडहर नज़र आते हैं,
जैसे खुशहाली तरक़्की में,
दस्तके-क़हर नज़र आते हैं,
मय के छलकते प्यालों में,
ख़ामोश ज़हर नज़र आते हैं,
जैसे उनके आने की अदा,
आते ही कहते हैं कि जाते हैं,
और जाने की फिर ये अदा,
जाते हुए कहते हैं कि आते हैं,
बस कि यूँ पर्दे उठा करते हैं,
बस कि यूँ पर्दे गिरा करते हैं,
सिलसिला रहता है तारी,
सिलसिले यूँ ही जारी रहते हैं ।
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इन दिनों
सुबह सरे-राह* पर पर्दा था,
एक साया था सायात** का,
सवाल था दिन भर, कि क्या है,
शाम को पर्दा फ़ाश हो गया,
यूँ तो पर्दे पे हर रोज़ ही,
नित नये मंज़र नज़र आते हैं,
आँखें चौकन्नी अगर हों,
छिपे ख़ंज़र नज़र आते हैं,
जैसे बनते हुए महलों में,
ठीक से देखोगे अगर,
बस देखनेवालों ही को
ढहते खंडहर नज़र आते हैं,
जैसे खुशहाली तरक़्की में,
दस्तके-क़हर नज़र आते हैं,
मय के छलकते प्यालों में,
ख़ामोश ज़हर नज़र आते हैं,
जैसे उनके आने की अदा,
आते ही कहते हैं कि जाते हैं,
और जाने की फिर ये अदा,
जाते हुए कहते हैं कि आते हैं,
बस कि यूँ पर्दे उठा करते हैं,
बस कि यूँ पर्दे गिरा करते हैं,
सिलसिला रहता है तारी,
सिलसिले यूँ ही जारी रहते हैं ।
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*sararah
**sayat
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