आज की कविता
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’मैं नहीं करता सम्मान क़ानून का!’
कहना भी आसान है, और करना* भी ।
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं,
कि मैं तोड़ता हूँ, तोड़ूंगा क़ानून को!
क्योंकि क़ानून व्यवस्था है ज़रूरी है,
न मिले भले उससे न्याय, मज़बूरी है ।
यूँ भी कानून का सम्मान कौन करता है?
बस कमज़ोर ही तो क़ानून से डरता है ।
जो न कमज़ोर की रक्षा कर सके क़ानून,
ऐसे क़ानून से क्यों करे उम्मीद कोई?
क़ानून को बदलने के भी तरीके हैं,
सिर्फ़ बहस से क़ानून कैसे बदलेगा?
किसी मग़रूर ताक़तवर रुतबे वाले को,
कोसने या उससे लड़ने से क्या होगा?
मैं नहीं जानता कि क्या बदलता है,
क्या आदमी क़ानून को बदलता है,
या क़ानून ही आदमी को बदलता है,
मैं तो बस सिर्फ़ इतना ही जानता हूँ,
जो भी चीज़ बनती है, मिटा करती है ।
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*(या सम्मान न-करना)
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’मैं नहीं करता सम्मान क़ानून का!’
कहना भी आसान है, और करना* भी ।
लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं,
कि मैं तोड़ता हूँ, तोड़ूंगा क़ानून को!
क्योंकि क़ानून व्यवस्था है ज़रूरी है,
न मिले भले उससे न्याय, मज़बूरी है ।
यूँ भी कानून का सम्मान कौन करता है?
बस कमज़ोर ही तो क़ानून से डरता है ।
जो न कमज़ोर की रक्षा कर सके क़ानून,
ऐसे क़ानून से क्यों करे उम्मीद कोई?
क़ानून को बदलने के भी तरीके हैं,
सिर्फ़ बहस से क़ानून कैसे बदलेगा?
किसी मग़रूर ताक़तवर रुतबे वाले को,
कोसने या उससे लड़ने से क्या होगा?
मैं नहीं जानता कि क्या बदलता है,
क्या आदमी क़ानून को बदलता है,
या क़ानून ही आदमी को बदलता है,
मैं तो बस सिर्फ़ इतना ही जानता हूँ,
जो भी चीज़ बनती है, मिटा करती है ।
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*(या सम्मान न-करना)
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