August 06, 2017

रंग कायनात का,

आज की कविता
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रौशनी,एक ही तो रंग है, कायनात का,
रंग ही एक ही तो जिस्म है हयात का,
रौशनी बिखरती है फूट-फूट ज़र्रों से,
किरणें जगाती हैं एक जादू रंगों का,
किरच-किरच टूट जाती है यूँ हयात,
ये जादू भी आख़िर को टूट जाता है,
कहीं कुछ भी नहीं, कहीं कोई भी नहीं,
न रौशनी न अंधेरा, न कायनातो-हयात,
अपनी पुरसुकून ज़ात में लौट जाते हैं हम ।
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दर्द
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कहाँ होता है ख़त्म,
कहाँ से होता है शुरू?
भटकती रहती है रूह!
यह जिस्म भी तिलिस्म है,
ज़िन्दगी जीना और मर जाना,
ग़मे हयात की ही रस्म है !
जिस्म और रूह भी,
दर्द की ही क़िस्म है !
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