आज की कविता
आसमान
मेरी खिड़की से भी आसमान दिखता है!
हर सुबह से शाम तक देखा करता हूँ मैं!
और रोशनदान से भी आसमान दिखता है!
रात भर भी हालांकि देख सकता हूँ मैं,
बाँटता नहीं उसे शामो-सुबह दिन-रात में!
लोग कहते हैं खुले में आसमाँ कभी देखो!
घर में रहकर आसमाँ को किसने कब देखा?
सोचता हूँ मैं किसी दिन ये भी करना है मुझे,
पर सोचता हूँ देखकर भी क्या नया होगा?
जब तक न हो कहीं कोई आसमाँ मेरे भीतर,
किसी बाहर के आसमाँ से मेरा क्या होगा?
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आसमान
मेरी खिड़की से भी आसमान दिखता है!
हर सुबह से शाम तक देखा करता हूँ मैं!
और रोशनदान से भी आसमान दिखता है!
रात भर भी हालांकि देख सकता हूँ मैं,
बाँटता नहीं उसे शामो-सुबह दिन-रात में!
लोग कहते हैं खुले में आसमाँ कभी देखो!
घर में रहकर आसमाँ को किसने कब देखा?
सोचता हूँ मैं किसी दिन ये भी करना है मुझे,
पर सोचता हूँ देखकर भी क्या नया होगा?
जब तक न हो कहीं कोई आसमाँ मेरे भीतर,
किसी बाहर के आसमाँ से मेरा क्या होगा?
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