August 09, 2017

सृजन : कविता, संगीत, चित्र

संगीत, चित्र और कविता (गीत)
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यह वीडिओ एपिसोड १६ से मैंने सुना । वाचक ने जैसा कि कवि ग्रेस के बारे में कहा कि हो सकता है कवि ने स्वयं भी कविता को उस प्रकार से न समझा हो, जैसा किसी और ने समझा होगा ।
कविता, चित्र और संगीत (ख़ासकर भारतीय शास्त्रीय संगीत) के बारे में मेरी समझ यह है कि आप इन्हें किसी पैमाने पर इनके मूल तत्वों को नाप नहीं सकते । किंतु फिर भी आप संवेदना के स्तर पर उस मनःस्थिति से अवश्य जुड़ सकते हैं जिसमें रचना का सृजन किया / हुआ होता है । और ज़रूरी नहीं कि रचना किन्हीं भावनाओं को जागृत या उद्दीप्त करे ही (हालाँकि वह भी संभव है, और प्रायः होता भी है), बहरहाल यह अवश्य संभव है कि रचना आपको एक ऐसे लोक में ले जाए जहाँ आपका मन अत्यंत शान्त, स्तब्ध और स्थिर हो जाता है, संक्षेप में कहें कि स्वाभाविक रूप से ’एकाग्र’ हो जाता है, जहाँ आपके मन की गतिविधि (चित्तवृत्ति) अनायास निरुद्ध हो जाती है ।
और इसके लिए कविता, संगीत या चित्र की एक विधा भी पर्याप्त समर्थ हो सकती है । मेरा सोचना तो यह है कि एक से अधिक विधाओं में संयोजित रचना का अपना सामर्थ्य श्रोता / दर्शक / की रुचि और परिपक्वता के अनुसार कम या अधिक भी हो जाता है ।
मराठी कवि ’ग्रेस’ की रचना के आस्वाद में मैंने यही पाया ।
मैंने कुछ समय पूर्व RSTV का you-tube का एक लिंक शेयर किया था,  जिसमें भारतीय फ़िल्मोद्योग के पर्दे के पीछे संगीत के रचनाकारों की ’कला’ के बारे में बतलाया गया था । उसमें एक संगीतकार भारतीय संगीत को ’लीनियर’ कह रहे थे, और उस की तुलना में पाश्चात्य विधा को (लेटरल) / स्पेटिअल् ! उनका आशय यह था कि भारतीय विधा में एक ही वाद्य प्रमुख होता है जिसके साथ एक राग के स्वरों की संगति का (जैसे तानपूरा या सारंगी) और एक तालवाद्य होता है । जबकि पाश्चात्य (या आधुनिक) में अनेक वाद्यों (उदाहरण के लिए एक से अधिक वायोलिन एक साथ) से स्वरों  के संयोजन से नया प्रभाव पैदा किया जाता है । यह हुआ (लेटरल) / ’स्पेटिअल्’ । एक अन्य महिला संगीतकार ने भी इस बारे में लगभग यही कहा था ।
मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या संगीत की उस (लेटरल) / ’स्पेटिअल्’ विधा से चित्त की वह स्थिति होना संभव है जो ’ग्रेस’ की रचना पढ़ते हुए या सुनते हुए अनायास हो जाती है? संभव है कि एट्थ / नाइन्थ सिम्फ़नी को सुनने का अनुभव किसी गहन अनुभूति में ले जाता हो, किंतु मूल प्रश्न है राग की स्वाभाविक गति से उत्पन्न अनुभव । निश्चित ही भारतीय संगीत में स्वर (और वर्ण) देवता तत्व है, -अर्थात् ’जागृत-प्राण तत्व’ और उन्हें यन्त्रों से नहीं जगाया जा सकता ।
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