September 16, 2017

जब कविता बक़वास होती है ...

जब कविता बक़वास होती है
--
एक पैग हो जाने के बाद ही,
महफ़िल में उस पर नज़र जा पाती है ।
चौंकानेवाली कुटिल कल्पना से प्रेरित,
किसी आदर्श के प्रति समर्पित,
किसी राजनीतिक ’सरोक़ार’ से ’प्रतिबद्ध’
किसी ’सामाजिक’ दायित्व की पैरोकार,
ब्ल्यू-व्हेल सी, कृपा-कटाक्ष से देखती हुई,
भोली नाज़ुक विषकन्या सी कविता,
आकर्षित कर,
दूर हटा देती है मनुष्य का ध्यान,
अस्तित्व के बुनियादी सवालों से,
और अपनी कृत्रिम सुंदरता के,
मारक अंदाज़ से क्षण भर में ही,
बाल-बुद्धि, अपरिपक्व मानस को,
जकड़ लेती है अपने मोहपाश में,
उस मकड़ी की तरह,
जिसके जाल के अदृश्य तंतु,
फैले हैं दिग्-दिगंत तक !
चूसती रहती है रक्त,
जाल में फँसते कीड़ों का ...
--  

No comments:

Post a Comment