September 03, 2017

मेरा मज़हब

आज की कविता
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मेरा मज़हब
मुझे किसी से नफ़रत नहीं,
इसलिए मैं ’किसी से नफ़रत मत करो’
का उपदेश या सलाह भी किसी को नहीं देता,
लेकिन अगर मुझे किसी से मुहब्बत नहीं,
तो मैं उससे मुहब्बत होने का नाटक क्यों करूँ?
क्या ऐसी मुहब्बत धोखा देना ही नहीं हुआ?
न सिर्फ़ उसे, बल्कि ख़ुद अपने-आपको भी?
जिसने मुझे बहुत तक़लीफ़ दी,
सिर्फ़ इसलिए जिसे मैं याद भी नहीं करना चाहता,
मैं उससे मुहब्बत होने का नाटक क्यों करूँ?
वैसे तो उससे मुझे नफ़रत कभी थी भी नहीं,
लेकिन उसने मुझे बहुत तक़लीफ़ देकर,
ख़ुद ही अपना दुश्मन बना लिया ।
मुझमें उसके लिए नफ़रत पैदा कर दी,
और जो अब मुझे मुहब्बत का सबक़ सिखा रहा है,
वह यह क्यों भूल जाता है,
कि दूध का जला छाछ भी फ़ूँक-फ़ूँक कर पीता है !
पहले झाँके वह ख़ुद के गरेबान में,
और खोज ले,
कि कोई किसी से नफ़रत क्यों करता है!
तब उसे किसी को,
मुहब्बत का सबक़ सिखाना ज़रूरी न रह जाएगा ।
कोई किसी से नफ़रत न करे यही काफ़ी है,
और न पैदा होने दे, दूसरों के दिलों में नफ़रत,
अगर इतना भी कोई कर सकता है तो,
ज़रूरी नहीं रह जाता मुहब्बत का सबक़ !
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जो अपने ’मज़हब’ को लादता है किसी पर,
ताक़त से, तलवार, प्रचार या धोखे से,
उसका क्या मज़हब है यह तो ज़ाहिर है,
जो मज़हब के नाम पर पैदा करे डर, नफ़रत,
उसका मज़हब से क्या वास्ता यह भी ज़ाहिर है,
और फिर वो ही देने लगे मुहब्बत का सबक़,
मन्दिर, मस्ज़िद, गिरजों के एक होने का सबक़,
उसपे तक़लीफ़ज़दा कोई भरोसा कैसे करे?
हाँ कोई बस, सिर्फ़ तकल्लुफ़ के लिए सुन लेगा ।
इससे दिलों में जमा नफ़रत न कभी कम होगी ।
कोई ऐसा तरीक़ा हो जिससे न हो नफ़रत पैदा,
सिर्फ़ दिखावे के लिए मत दो झूठे मुहब्बत के सबक़ ।
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ये मुहब्बत भी ले लो, ये नफ़रत भी ले लो,
भले छीन लो जात-ओ-मज़हब भी मेरा,
मग़र छोड़ दो मुझको मेरे दिल के हवाले !
न ख्रीस्त, हिन्दू, सिख, न मुसलमान होना !
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