कविता : एक अप्रैल 2022
---------------©--------------
तब मुझे कुछ नहीं करना होता,
पंछी भोर होते ही, चहचहाते हैं,
और होती है, ताज़गी, ठंडी हवा में,
अभी सूरज भी तो उगा नहीं होता,
सैर करने के लिए बाहर, रास्ते भी,
सुनसान, स्तब्ध, और शान्त होते हैं,
मन प्रसन्न, उत्साह से भरा होता है,
और चल सकता हूँ मैं, मीलों तक,
सतत-लगातार, अथक, -अनथक भी,
किन्तु फिर, लौटना भी तो होता है!
जब तक कि बढ़ जाता है कोलाहल,
सड़क पर भीड़, वाहनों की क़तार,
इससे पहले कि हवा में धूल-धुँआ,
और शोर-शराबा दबोच लें मुझको,
खींच लेता हूँ कुछ गहरी साँसें भीतर,
भर लेता हूँ हृदय, सीने में ताज़ा हवा,
लौट आता हूँ करके सैर, घर वापस,
तब मुझे कुछ नहीं करना होता!
***
No comments:
Post a Comment