ज्ञानं विज्ञानसहितं
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गीता-सन्दर्भ :
अध्याय ८
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इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।१।।
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वैसे तो वे मेरे स्कूल में विज्ञान विषय के व्याख्याता थे, किन्तु वे संस्कृत भाषा के भी प्रखर विद्वान और ज्ञाता थे। उन्होंने संस्कृत भाषा का विशेष अध्ययन तो नहीं किया था किन्तु वे अवश्य ही इसका प्रमाण थे, कि कैसे किसी किसी मनुष्य को जन्म से ही कोई सिद्धि प्राप्त हुई होती है।
वे इतनी भाषाओं के बारे में इतना अधिक जानते थे कि मुझे यह आश्चर्यप्रद लगता था।
रसायन-शास्त्र की प्रयोगशाला में पहले दिन उन्होंने हमें विभिन्न उपकरणों के बारे में इस प्रकार बताया :
पूरयति इति पूरयेत् पिबति इति पिबेत् च।।
पेयकरं इति पृकरं स्रुषा इति स्रुषिबलम्।।
(अब मेरा अनुमान है कि उक्त श्लोक नागार्जुन द्वारा रचा गया होगा!)
जिसमें द्रव भरा जाता है उसे पूरयेत् अर्थात् burette कहते हैं।
जो पीने के काम में सहायक है उसे पिबेत् अर्थात् pippet कहते हैं।
जिसमें पीने के लिए तय मात्रा में मापकर पेय पदार्थ रखा जाता है, उसे पृकर / पेयकर अर्थात् beaker कहा जाता है।
वैदिक संस्कृत भाषा में स्रुषा शब्द उस चमस् (चम्मच) के लिए प्रयुक्त होता है, जिससे घृत या किसी अन्य द्रव्य को हवन-कुण्ड में उँडेला जाता है।
स्रुषा / स्रुष् धातु से ही बना शब्द है स्रुषाबलं, जिसका रूपांतरण ग्रीक के अपभ्रंश / सज्ञात / सजात /cognate शब्द क्रुसिबल (crucible) में हुआ।
चूँकि मूल संस्कृत शब्द उन शब्दों के अर्थ के स्पष्टतः द्योतक हैं, इसलिए यह निःसंदिग्ध सत्य है कि संस्कृत भाषा से हम अवश्य ही बहुत कुछ और भी बेहतर तरीके से जान और समझ सकते हैं।
इन शब्दों से यह अनुमान किया जा सकता है कि ग्रीक भाषा का उद्भव मूलतः संस्कृत भाषा से हुआ होगा।
विज्ञान विषय को भौतिक विज्ञान (साइंस / science) तक ही सीमित न रखकर उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य और तात्पर्य में ग्रहण किया जाए तो हम अधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों सन्दर्भों में अच्छी तरह समझ सकते हैं। तब विज्ञान भाषा-ज्ञान से ऊपर उठकर भाषा-विज्ञान का रूप ले लेता है।
चलते-चलते :
आपने bib, imbibe भी सुना होगा। ये शब्द भी 'पिब्' धातु - 'पिबति' के ही सजात / सज्ञात / cognate हैं।
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