अजातवाद का सिद्धान्त
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जैसा प्रतीत होता है, अर्थ की दृष्टि से और व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी जन् (जायते) धातु से 'क्त' प्रत्यय के संयोग से बने जन्म तथा जाति शब्द, उत्पत्ति के द्योतक हैं। इस दृष्टि से अजातवाद शब्द का तात्पर्य हुआ -- उत्पत्ति के सिद्धान्त का निषेध।
इस सिद्धान्त के अनुसार न तो उत्पत्ति है, न विनाश ही है। केवल एक ही तत्त्व का अस्तित्व है, और अस्तित्व ही वह तत्त्व है। प्रश्न उठता है कि यह सतत परिवर्तित होता प्रतीत होता रहने वाला दृश्य-जगत् या संसार मूलतः क्या है?
इसके उत्तर में कहा जाता है :
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।
(पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद)
और वृत्ति ही प्रत्यय है।
योगसूत्र के प्रारंभ में ही योग को परिभाषित करते हुए कहा गया है :
अथ योगानुशासनम्।।१।।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।
तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम्।।३।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।
वृत्ति की न तो उत्पत्ति होती है और न ही उसका नाश होता है। वृत्ति नित्य, सनातन, शाश्वत है। वृत्ति का उद्भव, अभिव्यक्ति एवं और लय ही काल का सहवर्ती है। वृत्ति दृश्य है, जबकि काल अदृश्य होते हुए भी वृत्ति के आश्रय से अनुमानगम्य होकर ही अस्तित्वमान प्रतीत होता है। काल और वृत्ति मूलतः एक ही गतिविधि है। वृत्ति के अभाव में काल का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। किन्तु वह तत्व जिसे दृष्टा कहा जाता है, इन्द्रियों, बुद्धि आदि के संयोग से मन के रूप में व्यक्त हो जाता है। यह मन ही वृत्ति-स्वरूप है :
मानसं तु किं मार्गण कृते।।
नैव मानसं मार्ग आर्जवात्।।१७।।
वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।।
वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः।।१८।।
(महर्षि श्री रमण विरचित उपदेश-सार)
इस प्रकार मन और अहं-वृत्ति के मूलतः एक होते हुए भी उनके दो भिन्न रूपों में परस्पर मिले होने की प्रतीति ही मनुष्य में जीव-भाव के रूप में अपने स्वतंत्र अस्तित्व होने की भावना का रूप लेती है।
यह भावना मूलतः यद्यपि शरीर, मन, बुद्धि और मन / मनुष्य के जाग्रत होने की स्थिति में ही संभव है, जिसे शरीर में स्थित "मैं", और शरीर के बाहर स्थित और प्रतीत होनेवाले संसार के रूप में दृष्टा और दृश्य के बीच के काल्पनिक भेद के रूप में, बुद्धि में ही ग्रहण कर लिया जाता है, फिर भी इस प्रकार बुद्धि के आश्रय से ही यह भावना पुनः वृत्ति ही होती है।
जब चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है, तो मन का भी निरोध हो जाता है अर्थात् अहंवृत्ति का भी निवारण होकर केवल एकमेव चैतन्य आत्मा का ही उसके एकमेवाद्वितीय ब्रह्म की तरह उसके नित्य, शाश्वत, और सनातन, अमृत-स्वरूप में दर्शन / उद्घाटन (discovery, revelation) हो जाता है।
स्पष्ट है कि वृत्तिमात्र के निरुद्ध होने में काल का अतिक्रमण भी अनायास ही हो जाता है।
उपदेश-सार में इसे ही आत्मा का सहज, स्वाभाविक, नित्य और निज-सुख कहा गया है --
बन्धमुक्त्यतीतं परं सुखम्।।
विन्दतीह जीवस्तु दैविकः।।२९।।
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