April 29, 2022

सार्वभौम महाव्रत

यम -- पाँच सार्वभौम महाव्रत 

(अनुल्लंघनीय कर्तव्य)

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धर्म का आधारभूत तत्व यम है, जो देवता भी है और जगत् की सृष्टि, संचालन और संकोच का अचल अटल नियामक सिद्धान्त भी है।

पातञ्जल योगशास्त्र में योग के बहिरङ्ग साधनों में से यम प्रथम है। यम-नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्यायाहार इन पाँच को बहिरङ्ग साधन कहा जाता है, जबकि शेष तीन, -धारणा, ध्यान और समाधि को अन्तरङ्ग कहा जाता है। योग के इन आठ अङ्गों को सम्मिलित रूप से अष्टाङ्ग योग कहते हैं। 

योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।२८।।

(योगाङ्गानुष्ठानात् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिः आविवेकख्यातेः।।)

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान-समाधयोऽष्टावङ्गानि।।२९।।

(यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधयः-अष्टौ-अङ्गानि।।)

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमः।।२९।।

(अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रहाः यमः।।) 

जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।।३०।।

(जाति-देश-काल-समय-अनवच्छिन्नाः सार्वभौमाः महाव्रतम्।।)

इन्हें यम या सार्वभौम महाव्रत (Universal Austerities) कहा जाता है। इनका पालन करना धर्म के आचरण के व्रत का पालन करनेवाले प्रत्येक ही मनुष्य के लिए आवश्यक कर्तव्य है, जबकि इनमें से किसी का भी उल्लंघन करने को महापातक या पञ्च-महापातकों में से एक कहा जाता है।

ये सार्वभौम इसलिए भी हैं क्योंकि ये प्राकृतिक-न्याय (social-justice) के सिद्धान्त के आधार पर स्थापित हैं, जो सामाजिक आचरण-संहिता (social-moral code of conduct) का आधार भी हैं, तथा संपूर्ण संसार के सभी मनुष्यों के वैयक्तिक व सामूहिक कल्याण / सुख को सुनिश्चित करते हैं।

चूँकि कोई भी परंपरा (traditional) धर्म की इन आधारभूत अवधारणाओं की अवहेलना नहीं कर सकती, इसलिए विभिन्न परंपराएँ धर्म या अधर्म के, या धर्म-अधर्म के मिले-जुले प्रभाव के अनुसार स्थान, समय और सामाजिक परिस्थितियों में अलग अलग और कभी कभी विपरीत रूप तक धारण कर लेती हैं।

इस प्रकार की अनेक और विभिन्न प्रकार की परंपराओं के धर्म के वास्तविक रूप से बहुत भिन्न होने पर भी उन्हें 'समान' कहने को ही विभिन्न परंपराओं (traditions) की समानता के रूप में मान्यता दे दी गई है, और शायद उन्हें रिलीजन भी कहा जा सकता है। किन्तु विभिन्न रिलीजन्स के पारस्परिक मतभेद भी प्रकट और स्पष्ट ही हैं, फिर भी समानता या धर्म-निरपेक्षता के नाम पर उन मूलतः अनेक और विभिन्न प्रकार के मतवादों के शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व को एक ऐसे आदर्श की तरह प्रस्थापित किया जाता है, जो सुनने में तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है, पर यथार्थ की भूमि पर दो कदम भी नहीं चल सकता।

इसलिए सबसे पहले तो यही देखना होगा कि रिलीजन (पंथ) / religion और परंपराओं / traditions को धर्म कहना कहाँ तक उचित, न्यायसंगत है। चूँकि उपरोक्त वर्णित पाँच सार्वभौम महाव्रत (Universal austerities) धर्म / अधर्म का वर्णन पर्याप्त स्पष्टता से करते हैं इसलिए किसी भी  रिलीजन (पंथ) / religion, परंपरा / tradition को धर्म या अधर्म में बाँटना उनके बीच के मतभेद को और दृढ करने जैसा सिद्ध होता है।

कोई भी परंपरा केवल धर्म ही हो, या केवल अधर्म ही हो, ऐसा नहीं हो सकता। प्रत्येक परंपरा में धर्म के और अधर्म के भी कुछ तत्व पाए जा सकते हैं। 

इसलिए धर्म-निरपेक्षता (secularism) यद्यपि एक प्रशंसनीय आदर्श तो हो सकता है किन्तु यथार्थ की भूमि पर इसे आचरण में लाया जाना बहुत कठिन सिद्ध होता है।

वैसे भी धर्म-निरपेक्षता आपको ऐसी कोई आचरण-संहिता नहीं प्रदान करती, जिसे सुस्पष्ट और व्यावहारिक स्तर पर भी प्रयोग में लाया जा सके। कदम कदम पर, हर बार इसे पुनर्परिभाषित किया जाना होता है। और लौटकर हमें या तो सामूहिक-विवेक का, या समुदायों के अपने मतवादों पर आधारित विवेचनाओं का सहारा लेना होता है, जिसका हमें कोई सर्वसम्मत समाधान होता हुआ शायद ही दिखाई देता हो।

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