April 05, 2022

The Loan Culture.

ऋण या धन?

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फ़ाकामस्ती! 

अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों ने पढ़ा ही होगा कि भारत का किसान ऋणी के रूप में जन्म लेता है, अपना पूरा जीवन भर ऋण के ही बोझ तले दबा रहकर जीता है और अन्ततः मृत्यु हो जाने पर विरासत में ऋण ही छोड़ जाता है। 

मुंशी प्रेमचन्द की रचना (गोदान या रंगभूमि?) में होरी, धनिया और गोबर के जीवन के बारे में भी आपने शायद पढ़ा होगा।

होरी, धनिया और गोबर के जीवन को जिस (अर्थ)व्यवस्था के अजगर ने ऋण की गुँजलक में जकड़ रखा था, उसकी धुरी वैसे तो विदेशी शासन ही था, किन्तु केवल अंग्रेजी ही नहीं, अंग्रेजों ने तो इससे भी पहले से जिस जमींदारी प्रथा का प्रारंभ मुग़लों द्वारा किया गया था, उसी बुनियाद को बस और अधिक मज़बूत बनाते हुए पूरी चतुराई से उस हुक्का-हुक्काम-हाक़िम-तहजीब का भरपूर इस्तेमाल, इस शोषण तंत्र को शक्तिशाली बनाने के लिए किया था। 

अंग्रेजी पुलिस, जमींदार और राय-बहादुर जैसे चाटुकारों के ही जरिए से शोषण की यह व्यवस्था फली और फूली। स्वतन्त्रता की प्राप्ति हो जाने के बाद भी उस व्यवस्था ने देश की राजनीति को भी अपना शिकार बना लिया। 

"ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्" पोस्ट लिखते समय मैं यद्यपि श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे राष्ट्रों की स्थिति के बारे पढ़कर उनके बारे में सोच रहा था। एक एक कर कैसे सब चीन के डेट्-ट्रेप में फँसे चले जा रहे हैं, किन्तु फिर मुझे याद आया, कि शास्त्रों में ऋण को पाप (क्यों) कहा गया है!

सामाजिक, राष्ट्रीय संदर्भ में या पूरी मनुष्यता की दृष्टि से यद्यपि यह आर्थिक उन्नति का साधन अवश्य हो सकता है, किन्तु जब गरीब को ऋण देने की बात आती है, तो वहाँ पर भी बिचौलिए अपना हिस्सा बाज़ की तरह झपटने से बाज़ नहीं आते। 

होरी की, या गोबर की कहानी में आपने पढा़ होगा कि साहूकार कैसे उसे एक रुपये का कर्ज़ देकर उसमें से बारह आने पेशगी वसूल कर लेता है।

दूसरी तरफ, मुग़लों, अंग्रेजों के ही समय में भारत में तम्बाकू का आगमन हुआ और इसी तरह शराब का भी । अंग्रेजों ने अफ़ीम, भांग आदि को मादक द्रव्यों की श्रेणी में रखकर देशी-विलायती शराब पीने के चलन को प्रोत्साहित किया । वही गरीब मज़दूर या किसान अब 'देसी' का आदी हो गया और यदि उसे जैसे-तैसे बैंक या सरकार से कर्ज़ मिल भी जाता है तो शराब पीने के लिए खर्च कर देता है।

खेती के लिए कर्ज़ लेकर ट्यूबवैल खोदे जाते हैं, और ट्रैक्टर की सहायता से घंटों का काम मिनटों में निपटाया जाता है। खेती के जिस काम से बीस हाथों को रोज़गार मिला करता था, वे बेकार और बेरोजगार होकर बीड़ी पीते हुए टैम पास करते हैं। बैल भी बेचारे बेकार होकर कसाई के पास पहुँच जाते हैं। 

जमीन के सीने को गहरे से गहरा खोदकर भूजल से सिंचाई कर खेतों की प्यास बुझाई जाती है और बारिश का जल नदियों में न जाकर सीधे बाढ़ का कारण बन जाता है, या समुद्र में बह जाता है। भूजल का स्तर लगातार गिरता जाता है, और मिनरल वाटर तथा आर. ओ. का धंधा उसी तेजी से बढ़ता जाता है। दूषित जल से और गंदगी से होनेवाली बीमारियांँ फैलती चली जाती हैं और पैक्ड फूड खरीदकर बच्चे खुश होते रहते हैं। पॉमोलीन से उनका स्वास्थ्य बरबाद होता रहता है और आँगनबाड़ी में तथा स्कूलों में दोपहर का भोजन उन्हें दिए जाने की व्यवस्था की जाती है। माता-पिता के और भाई बहनों के संबंध से अनजान यह बच्चा और उसका परिवार अपने / सिर्फ अपने ही बारे में सोचना सीख लेता है। 

मशीनों और कल-कारखानों के शोर में घरेलू आटा-चक्की की आवाज़ भी खो गई। जिन स्त्रियों को आटा-चक्की चलाना और अनाज पीसना पिछड़ापन लगता था, अब फर्राटे से कार, स्कूटी और मोबाइल चलाती हैं। फ़िक्र न करें, पेट्रोल-डीजल की चिन्ता भी छोड़ें, अब तो ईवी का जमाना है!

यह सब ऋण का कमाल ही है न!

पैसे और ख्याति की चकाचौंध और क्या होती है?

तो बेहिचक ऋण लें, घी पीना या खाना पुराने पिछड़े जमाने का रिवाज़ लगता हो तो इंग्लिश वाइन का मजा लीजिए!

कर्ज़ की पीते थे मय, और कहते थे, हाँ!

रंग लाएगी, -हमारी फ़ाकामस्ती एक दिन!

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