सत् और असत् (गीता 2/16)
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सन्दर्भ :
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६।।
(गीता, अध्याय २)
ऋण और धन के बारे में सोचते हुए इस तथ्य पर से ध्यान नहीं जाता है, कि 'ऋण' शब्द यद्यपि अभाव का सूचक है, फिर भी वह किसी ऐसी वस्तु जैसा प्रतीत होता है मानों उसे हम अनुभव कर सकें और उसे व्यवहार में उपयोग में ला सकें।
हम कहते हैं : मैंने इतने रुपयों का ऋण लिया / दिया।
जो (ऋण) लिया या दिया जाता है, -वे 'रुपये' भी इस तुलना में कागज के रूप में ही सही, एक अस्तित्वमान ऐसी वस्तु होती है, जिसका मूल्य पुनः इस ऋण शब्द की ही तरह, काल्पनिक और मानसिक विचार मात्र होता है, न कि कोई ऐसी वस्तु, जिसे कि भौतिक रूप से सत्यापित किया जा सके। फिर भी सामूहिक स्वीकार्यता के आधार पर वह हमें ठोस यथार्थ लगने लगता है।
यही है बुद्धि की भूलभुलैया!
इसलिए व्यावहारिक सत्य, मान्यताओं के आधार पर भिन्न भिन्न रूपों में स्वीकार किए जाते हुए भी मूलतः अभावात्मक वस्तु या अभाव मात्र होता है। किन्तु बुद्धि की इस भूल-भुलैया में ही तो (हमारा!?) मन उलझकर रह जाता है, और जिसका अस्तित्व ही नहीं है, ऐसी काल्पनिक वस्तु को सत्य की तरह ग्रहण कर लेता है, तथा इतना ही नहीं, उसके आधार पर उसे व्यवहार में लाने के लिए यत्न करने लगता है। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि हम व्यावहारिक सत्य को केवल भ्रम मानकर उसे काम में लाना ही बन्द कर दें? नहीं, वह तो पुनः एक और नई कल्पना का आश्रय लेने के समान होगा।
इसलिए संपूर्ण व्यवहार और व्यवहार करने का वैचारिक आधार मूलतः औपचारिक सत्य है, और स्थान, समय एवं परिस्थिति के साथ सतत बदलता रहता है।
"ऋण" ऐसी ही एक मान्यता है, जिसे अपनाने पर हमारे जीवन में सुविधा और व्यवस्था भी स्थापित हो सकती है, परंतु जिसे न समझ पाने पर हमारे जीवन में समस्याएँ या परेशानियाँ भी पैदा हो सकती हैं।
हमारा समूचा अर्थतन्त्र इसी भूल-भुलैया से ग्रस्त होने के कारण ही व्यक्तिगत और सामूहिक लोभ और भय के प्रभाव से अनेक कठिन समस्याएँ पैदा करता है, और फिर उनमें उलझकर ही रह जाता है।
इससे शायद ही कोई असहमत होगा कि अपनी बुद्धि पर हमारा वैयक्तिक अधिकार होता है और इस बुद्धि को परस्पर साझा भी किया जा सकता है। क्या 'मन' कोई ऐसी वस्तु है, जो वैयक्तिक या सामूहिक के अर्थ में 'मेरा' या 'हमारा' होता हो? 'मन' शब्द से जिसे व्यक्त किया जाता है क्या वह भी बुद्धि की ही तरह की एक अमूर्त अवधारणा (abstract notion) ही नहीं है? फिर भी हम सभी ही शायद इससे सहमत होंगे कि मन ही ऐसी एक वस्तु है, जो कि बुद्धि की भूल-भुलैया में उलझ जाया करता है।
यद्यपि मन और बुद्धि भी, दोनों ही किसी ऐसे जीवित मनुष्य के भीतर ही पाए जाते हैं, जिसमें जीवन नामक एक और यथार्थ तत्व विद्यमान होता है, और 'जीवन' नामक यह तत्व कोई मूर्त अथवा अमूर्त अवधारणा न होकर, प्रकट अनुभूतिगम्य यथार्थ होते हुए भी समस्त और किसी भी अनुभूति का वह आधारभूत सत्य है, जिसमें कि 'मेरा' और 'मुझ से भिन्न' की भावना जन्म लेती है। 'मेरा' और 'मुझ से भिन्न' की यही भावना पुनः 'मैं' तथा 'मुझ से भिन्न' की भावना में रूपान्तरित हो जाती है। मनुष्य के द्वारा तब 'मेरी बुद्धि', 'मेरी भावना' और 'मेरा मन' जैसे निरर्थक शब्द अपना लिए जाते हैं, जो व्यावहारिक रूप से उपयोगी भी होते हैं, किन्तु बस वहीं तक उनकी सार्थकता होती है।
बुद्धि, भावना या मन, -इन शब्दों से जिसे इंगित किया जाता है, क्या ऐसी वस्तु को किसी भौतिक वस्तु की तरह अस्तित्वमान कहा जा सकता है, या क्या उस तरह से सत्यापित भी किया जा सकता है?
किन्तु बुद्धि इसी भ्रम में फँस जाती है, और फँसी ही रहती है।
बुद्धि (intellect) के लिए यह संभव ही नहीं है, कि वह अपने प्रयास से इस उलझाव / भूल-भुलैया से बाहर निकल सके।
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