केनेषितं?
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ॐ
केनेषितं पतति प्रेषितं मनः
केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति
चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।१।।
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ईशावास्योपनिषद् की कक्षा पूर्ण हो जाने पर छात्रों से पूछा कि अब आगे किस ग्रन्थ का पठन-पाठन करें?
मेरे पास गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित (#66)
"ईशादि नौ उपनिषद्"
की जो प्रति है, उसका प्रारंभ ईशावास्योपनिषद् से होता है, उस क्रम में अगला उपनिषद् है :
"केनोपनिषद्"
"केन" पद तत्पदवाची "कः" का तृतीया एकवचन रूप है।
जिसका सरल सा अर्थ है "किसके द्वारा?"
व्याकरण की दृष्टि से तृतीया विभक्ति का प्रयोग "करणं" अर्थात् उपकरण के अर्थ में किया जाता है।
अंग्रेजी भाषा के व्याकरण में विभक्ति को Case कहा जाता है।
Nominative / कर्त्ता
Accusative / कर्म
Instrumental / करण
Dative / संप्रदान
Ablative / अपादान
Conjunctive / संबंध
Locative / अधिष्ठान
Interjective / विस्मयबोधक
इस प्रकार "केन" यद्यपि करण का द्योतक है, किन्तु भावार्थ के रूप में विस्मय / कौतूहल / जिज्ञासा / प्रश्न भी हो सकता है।
तो प्रश्न यह है कि लिखता कौन है?
स्पष्ट है कि जिन साधनों (उपकरणों) की सहायता से लिखने का कार्य होता है, वे सभी जड (insentient) हैं, जबकि जिससे प्रेरित होकर ये सारे साधन किसी कार्य में संलग्न होकर उसे पूर्ण करते हैं वह तत्व चेतन (sentient) है।
जड, भौतिक पञ्च महाभूतों से बना हुआ स्थूल इन्द्रियगोचर जगत् है, जिसे 'यह' कहा जाता है।
चेतन, संवेदनशील वह तत्व है जिसे अहंकार, मन, बुद्धि और चित्त कहा जाता है। और इसे ही अपने-आपकी तरह से जाना भी जाता है। अपने-आप को "मैं" कहा जाता है।
'यह' अर्थात् इस स्थूल जगत् को पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जाना जाता है, किन्तु इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों को भी अहंकार, मन, बुद्धि और चित्त में ही जाना जाता है, -न कि स्वयं उन ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा।
अहंकार, मन, बुद्धि तथा चित्त का जो अधिष्ठान है, वह चेतना अर्थात् "जानना" या शुद्ध भान / बोध मात्र है, जिसमें ज्ञाता एवं ज्ञात का विभाजन नहीं होता।
चूँकि "जानना" ही अहंकार, मन, बुद्धि और चित्त, इन चारों का स्वामी और उन्हें प्रेरित करनेवाली शक्ति है, इसलिए "केन" पद का संकेत "जानने" का ही सूचक है।
"जानना" ही चेतन (sentience / consciousness) है, जबकि स्थूल या सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अहंकार, मन, बुद्धि एवं चित्त आदि केवल जड (insentient) हैं।
"जानना" ही "है", और "है / जो है" वह' भी "जानना" ही है।
इसे ही आत्मा के सन्दर्भ में क्रमशः उसके दो पक्षों (aspects) के रूप में व्यक्त किया जाता है।
आत्मा (चेतन) अकर्त्ता है, कुछ भी नहीं करता, जबकि उससे ही प्रेरित होकर समस्त कार्य होता है।
इसलिए अस्तित्व और चेतना ये ही वास्तविकता है।
कार्य, कर्त्ता इत्यादि अहंकार, मन, बुद्धि और चित्त में आभास / प्रतीति हैं।
यही शिक्षा केनोपनिषद् की विषय-वस्तु है।
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