April 25, 2022

परंपरा जिसने...

अपनी आत्मा खो दी है! 

--

श्री जे. कृष्णमूर्ति की अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवादित और मूलतः अंग्रेजी में लिखित इस छोटी सी पुस्तिका का अंग्रेजी शीर्षक है :

Tradition Which Has Lost its soul.

मेरे पास इसकी जो प्रति है, वह संभवतः 1980 में प्रथम बार प्रकाशित हुई होगी, क्योंकि यह वर्ष 2000 में प्रकाशित इसके प्रथम संस्करण की पाँचवी आवृत्ति है।

इसमें सन्देह नहीं, कि यद्यपि श्री जे. कृष्णमूर्ति ने विश्वगुरु के रूप में स्वयं को स्थापित किए जाने के उद्देश्य से आयोजित किए जाने वाले समारोह में : 

"सत्य एक पथहीन भूमि है, और कोई दूसरा आपको इसे पाने के लिए मार्गदर्शन नहीं दे सकता। आपको अपने लिए स्वयं ही अपना मार्ग प्राप्त करना होगा।... "

"Truth is a pathless land."

का वक्तव्य देकर सबको चकित कर दिया था, और इस एक ही वक्तव्य में विद्यमान विरोधाभास से यह भी स्पष्ट हो गया था कि यद्यपि वे विश्वगुरु के पद को औपचारिक रूप से उस प्रकार से स्वीकार नहीं कर सकते, जैसा कि परंपरा से चलता आ रहा है, फिर भी जीवन के गूढ तात्पर्य को समझने के लिए जो कोई भी इस बारे में गंभीर और उत्सुक हैं, उनसे संवाद करने के लिए वे उपलब्ध हैं।

कुल 6 पृष्ठों की इस छोटी सी पुस्तिका के बैक-कवर पर इसका मूल्य ₹5/- अंकित है। प्रस्तावना पृष्ठ 3-4 पर तथा शेष 5,6,7 तथा 8 पर :

"स्वतन्त्रता के असली शत्रु"

शीर्षक के साथ इसे एक लेख के रूप में, अर्थात् पुस्तिका की तरह प्रस्तुत किया गया है।

श्री जे. कृष्णमूर्ति ने संगठित धर्म (organized religion) को मनुष्य की चेतना की स्वाभाविक उत्स्फूर्ति की राह में बहुत बड़ा रोड़ा कहा है, और इसलिए भी वे तमाम समुदाय जो ऐसे किसी भी धर्म से जुड़े हैं, प्रायः उन पर विश्वास नहीं कर पाते। इसलिए भी शायद ही कोई उनके शब्दों या कार्यों का गंभीरता से आकलन करता होगा। 

जे. कृष्णमूर्ति के संवाद अपने आपमें अवश्य ही बहुत अद्भुत् हैं किन्तु उनसे शायद ही किसी पाठक के मन में कोई रुचि जागृत होती होगी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि, -- और शायद है भी, कि हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा, वातावरण, परिवार और समाज भी हमें पहले ही से इतना असंवेदनशील बना चुके होते हैं कि हम उन्हें भी दूसरे सभी सिद्धान्तों आदि की ही तरह केवल बौद्धिक, वैचारिक निष्कर्षों के रूप में ग्रहण करने लगते हैं।

***




No comments:

Post a Comment