The Exact and Precise.
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किसी समय जे. कृष्णमूर्ति की पुस्तक :
J. Krishnamurti's Note-book
का महत्व और भूमिका मेरे लिए vade-mecum जैसी थी।जब मैंने इसे पढ़ना प्रारंभ किया था यद्यपि उस समय मैं केवल इसकी भाषा-शैली से आकर्षित हुआ था, किन्तु धीरे धीरे इसकी भाषा मेरे लिए गौण होती चली गई और उससे जो भाव मैं ग्रहण करने लगा वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण होने लगा।
वह 1982 का साल था।
मैंने जे. कृष्णमूर्ति की अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवादित दूसरी कुछ पुस्तकों जैसे कि जीवन-भाष्य, ज्ञात से मुक्ति, प्रथम और अंतिम मुक्ति, आदि को भी पढ़ा था पर मैंने उसमें व्यक्त उन विचारों का अर्थ समझने तक की चेष्टा तक कभी नहीं की, क्योंकि हमेशा से मुझे यही लगता रहा है कि किसी ग्रन्थ को पढ़ते समय अपनी बुद्धि से उसके तात्पर्य को समझने का प्रयास हमें उसके उस तात्पर्य से अत्यन्त दूर कर देता है जिसे ग्रन्थकर्ता व्यक्त करता, या करना चाहता है।
मैं बस उन शब्दों को पढ़ता था और बिना कोई व्याख्या किए ही लेखक क्या कहना चाहता है, इसका अनुमान लगाने का प्रयास करता था।
बिलकुल इसी तरीके से मैंने :
श्री रमण महर्षि से बातचीत
को भी पढ़ा था।
बाद में श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषद् आदि को पढ़ते समय भी मैंने इसी तरीके का सहारा लिया।
वर्ष 2002 में मुझे :
J. Krishnamurti's Note-book
का हिन्दी अनुवाद करने की उत्सुकता हुई, और मैं उस कार्य में संलग्न हो गया। मेरे पास इस पुस्तक की जो प्रति थी उसके पृष्ठ 25 पर एक वाक्य मैंने पढ़ा :
"Truth cannot be exact."
(Gstaad, Switzerland, 16th July 1961)
इसे पढ़ते ही जो शब्द मेरे मन में आया वह था :
"यथातथ्यतः"
मुझे पता था कि यह शब्द अवश्य ही मेरी स्मृति से ही आया है, किन्तु मेरी स्मृति में वह कहाँ से आया होगा, मैं इसका अनुमान नहीं कर सका।
अभी कुछ दिनों पहले ईशावास्योपनिषद् की कक्षा में पढ़ाते हुए जब यह शब्द एकाएक मेरे सामने आया, तो मुझे वह प्रसंग याद आया।
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविर्ँ शुद्धमपापविद्धम्।।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतो-
ऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।८।।
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