April 03, 2022

ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।।

यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ।।

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किसी भी प्रकार का ऋण पाप होता है। ऋण लेना और देना भी दोनों ही पापबुद्धि से प्रेरित होता है, फिर भी ऋण से मुक्त होकर मनुष्य पाप से मुक्त हो सकता है।

ऋण पाँच प्रकार के कहे जाते हैं : मातृ-पितृ ऋण, जिसे लेकर मनुष्य जन्म लेता है। देव-ऋण, जिसे पञ्च महाभूतों से लेकर यह शरीर, मन, बुद्धि आदि पाए जाते हैं ।

ऋषि-ऋण / गुरु-ऋण, जिससे हम अज्ञान-रूपी क्लेशों आदि से मुक्त होते हैं, लोक-ऋण, अर्थात् स्थूल पञ्च-तत्वों, समाज एवं पर्यावरण से प्राप्त वे साधन जिनसे हम स्वस्थ रहकर प्रसन्नता के साथ जीवन व्यतीत करते हैं। और अंतिम ऋण है - अपने आप के, ईश्वर से भिन्न स्वतंत्र, पृथक् कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने का गर्व या अभिमान, अर्थात् अहंकार। 

ऋण इसलिए पाप है क्योंकि इसके द्वारा हम मूल्य चुकाए बिना ही विविध प्रकार के उपभोगों का भोग कर सुख अनुभव करते हैं। 

गीता अध्याय 3 में वर्णित निम्न श्लोकों से भी इसकी पुष्टि होती है :

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।। 

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।८।।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचार।।९।।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।। 

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।१०।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।१२।।

उपरोक्त अंतिम श्लोक में "स्तेन" शब्द तस्कर का पर्याय है। तस्कर का अर्थ है जिसका हमें अधिकार न हो, और किसी ऐसी वस्तु का उपभोग करना, जिसका मूल्य हमने न चुकाया हो। 

पाँच सार्वभौम महाव्रतों :

अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह में से 'अस्तेय' यही है।

ये पाँच महाव्रत ही पातञ्जल योग में सम्मिलित रूप से "यम" कहे गए हैं। इनका पालन करना धर्म और कर्तव्य, तथा इनका उल्लंघन करना ही अधर्म है।

भौतिक सुखों का उपभोग तब अवश्य ही उचित है जब उनका मूल्य देकर उन्हें प्राप्त किया जाता है। यज्ञ के अर्थात् वेदविहित कर्म के अनुष्ठान (के माध्यम) से भी इन सुखों को अर्जित किया जा सकता है, और बलपूर्वक अनधिकृत रीति से, बिना उनका मूल्य चुकाए भी। इसी आधार पर वे पुण्य अथवा पाप होते हैं।

अल्पबुद्धि, आसुरी बुद्धि से युक्त मनुष्य, तत्काल प्राप्त होनेवाले भौतिक सुखों की प्राप्ति की आशा से मोहित हो जाता है, और उनके विनाशकारी दुष्परिणामों को नहीं देख पाता है।

भौतिक प्रगति की ऐसी ही अन्धी दौड़-धूप में हम सभी, केवल व्यक्ति ही नहीं, बल्कि पूरा समाज और मानव-समुदाय इसे ही श्रेय मानकर अपनी सफलता से फूला नहीं समाता है।

किन्तु इसके साथ ही, इस सब उपक्रम से जो तनाव, चिन्ताएँ, आशंकाएँ पैदा होती हैं उनकी उसे कल्पना भी नहीं होती, और जब वे प्रत्यक्षतः सामने आ खड़ी होती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

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