एक लंबी कविता, 31-10-2022
बुद्धि विस्मित, मति भ्रमित!
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मन विकल, दृष्टि चंचल, चित्त व्याकुल हो रहा!
बुद्धि विस्मित, मति भ्रमित, विवेक जर्जर हो रहा!
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यह मन जब तक मोहित है,
तब तक विचलित तो होगा ही!
यह मन जब तक विचलित है,
तब तक यह भ्रमित भी होगा ही!
कैसे होगा इसका यह मोह भंग?
क्या मोह-भंग होगा मन का?
कैसे होगा इसका यह भ्रम भंग?
क्या भ्रम-भंग होगा मन का?
वह कौन है जिसका है यह मन?
कौन है, जो है मन का स्वामी?
अपना ही स्वामी है यह मन ?
या मन ही है, उसका स्वामी?
यदि मैं या मन, यह हैं अभिन्न,
तो कोई 'मेरा' क्यों कहता है?
'मेरा मन मेरे वश में नहीं',
ऐसा उसको क्यों लगता है!
यह दुविधा आखिर किसकी है,
यह अपनी है, या मन की है?
क्या प्रश्न कभी उठा मन में?
क्या कभी उठा है यह सन्देह?
मन और 'मैं' दोनों ही का,
क्या आश्रय कोई और नहीं?
क्या कोई ऐसा और नहीं,
जिसमें मन है आता जाता?
क्या कोई ऐसा ठौर नहीं,
जिसमें 'मैं' है आता जाता?
अगर कभी यह प्रश्न उठे तो
समझो, तुमने कुछ पाया,
वह ठौर तो है नित्य अचल,
'मैं', मन तो चंचल छाया!
जो बनती मिटती रहती है,
साथ ही साथ उभरती है,
सत्य उभरता ना मिटता,
छाया ही बनती मिटती है!
इसको जाना तो सब जाना,
यह भूला तो जैसे सब खोया,
क्या यह खोता या मिलता हो,
इसका उत्तर किसने पाया?
यद्यपि बहुत विरल है प्रश्न ,
हल किन्तु सरल ही, है अवश्य!
मन केवल है चित्त की वृत्ति,
मन है, 'मैं' बस यह अहं-वृत्ति!
इन दोनों का ही जो प्रमाण,
दोनों का ही, जो है साक्षी!
चित्तवृत्ति का जो निरोध,
यही तो है पातञ्जल-योग!
चित्त प्राण का एक ही मूल,
चित्त प्राण से प्राण चित्त से!
चित्त-वृत्तियों का यह निरोध,
होता है एकाग्र-चित्त से !
जब हो जाते हैं प्राण निरुद्ध,
चित्त भी हो जाता है निरुद्ध,
जब होता है चित्त निरुद्ध,
होते हैं प्राण भी तब निरुद्ध!
निरोध-सिद्धि, समाधि-सिद्धि है,
समाधि-सिद्धि, एकाग्र-वृत्ति ही!
वृत्तिमात्र का जो परिष्कार है,
संयम यही तो आविष्कार है!
वृत्ति शुद्ध हो, परिणत होना,
निरोध, एकाग्रता सिद्ध होना,
और समाधि में होना स्थित,
तीनों यह हैं परिणाम तीन।
पहला है एकाग्रता-परिणाम,
द्वितीय है निरोध-परिणाम,
अंतिम है समाधि-परिणाम,
तीनों का मिलकर संयम नाम।
देह, श्वास, प्राण और मन,
चारों चलते हैं साथ साथ,
तीन रुकें तो भी है जीवन,
चौथा सबको देता है साथ,
जब चारों ही रुक जाते हैं,
तो जो होता है परिणाम,
उसे भी समाधि कहते हैं,
मृत्यु भी उसका ही है नाम!
चौथे में ही तीनों का लय,
चौथे से तीनों का उद्भव,
यह चौथा ही है अहं-वृत्ति,
प्रति क्षण होता है, लय-उदय!
जब तक चलता है यह क्रम,
जन्म-मृत्यु का यह बन्धन,
तब तक पीड़ा से नहीं मुक्ति,
तब तक बंधन है अहं-वृत्ति।
यह पथ तो फिर बन्धन है,
लय-उद्भव अंतहीन क्रम है,
मन का यह लय तो मुक्ति नहीं,
यह जन्म जन्म का विभ्रम है!
मन केवल है चित्त की वृत्ति,
यही 'मैं' तो है अहं-वृत्ति,
लय विनाश दो हैं परिणाम,
बन्धन मोक्ष उन्हीं का नाम!
लय में होता है पुनः उद्भव,
नाश किन्तु है, मन का अन्त,
नाश श्रेय भी, ध्येय भी है,
लय केवल बस हेय ही है!
जब हो जाता है मन का अंत,
होता है प्रकाश ज्वलन्त,
आत्मा का परमात्मा का,
आकार-रूप उज्ज्वल, अनंत!!
जग है, तो उसका दृष्टा भी है,
दृष्टा है, तो जग यह दृश्य भी है,
जब दृष्टा-दृश्य का भेद नहीं,
दर्शन-दृष्टा का भेद नहीं।
दर्शन-दृष्टा का भेद नहीं,
तो दर्शन-दृश्य का भेद नहीं,
जब तीनों में ही भेद नहीं,
स्वरूप ही तब दृश्य-विलय !!
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